गाँधीनगर साहित्य सेवा संस्थान चेरी टेबल ट्रस्ट गुजरात के अध्यक्ष कवि लेखक अनुवादक हिंदी गुजराती को स्वामी दयानन्द सरस्वती दर्शन शास्त्र, राष्ट्रवाद,, सनातन वैदिक धर्म व संस्कृति के अंतर्गत डॉ गुलाब चंद पटेल जी को वैश्विक परिप्रेक्ष्य में गांधीजी और अन्य शोध पुस्तक को द्वितीय पुरस्कार आचार्य अकादमी चुलियाणा द्वारा वार्षिक साहित्यिक पुरस्कारों (2021) की घोषणा मे घोषित किया गया हे साहित्य, संस्कृति, धर्म, दर्शन, योग व हिन्दी के प्रसार प्रचार को समर्पित राष्ट्रवादी संस्था एवं प्रमाण अन्तरराष्ट्रीय मुल्यांकित त्रैमासिक रिसर्च जर्नल (ISSN:2249-2976) व चिन्तन अन्तरराष्ट्रीय मुल्यांकित त्रैमासिक रिसर्च जर्नल (ISSN:2229–7227) प्रकाशित करने वाली संस्था आचार्य अकादमी चुलियाणा व योग को समर्पित संस्था वैदिक योगशाला कुरुक्षेत्र (हरियाणा) द्वारा अपने वार्षिक साहित्यिक पुरस्कारों (2021) की घोषणा कर दी गई है।
श्रीमती हेमलता हिन्दी साहित्य (गद्य, पद्य) पुरस्कार के अंतर्गत प्रथम सांझा पुरस्कार श्री विकल सिंह फतेहपुर (उत्तर प्रदेश) की पुस्तक आदिवासी कविताएं व डॉ. अनु पाण्डेय आणंद (गुजरात) की पुस्तक समकालिन साहित्य में किन्नर विमर्श और अन्य संदर्भ को, द्वितीय सांझा पुरस्कार डॉ. कृष्णा आचार्य बीकानेर (राजस्थान) की पुस्तक पांचाली व सेवासदन प्रसाद नवीं मुबई (महाराष्ट्र) की पुस्तक मेरी सर्वश्रेष्ठ लघुकथाएं को तथा तृतीय सांझा पुरस्कार डॉ. मधुकांत रोहतक (हरियाणा) की पुस्तक नमिता सिंह मूछों वाली व राधिका के. त्रिवेंन्द्रम (केरल) की पुस्तक समकालिन साहित्य चिंतन एवं आयाम को दिया गया। इसी वर्ग में डॉ वंदना मिश्रा की पुस्तक बहुत कुछ शेष है अभी, नवलपाल प्रभाकर दिनकर झज्जर (हरियाणा) की पुस्तक तुम्हारा साथ, डॉ. दीन्दयाल साहू दुर्ग (छतीसगढ) की पुस्तक आंचलिक संस्कृति में देवारों का योग तथा बृजेश आनन्द राय जौनपुर (उत्तर प्रदेश) की पुस्तक को सान्तवना पुरस्कार भी दिया गया। स्वामी दयानंद सरस्वती दर्शनशास्त्र, राष्ट्रवाद, सनातन वैदिक धर्म व संस्कृति के अंतर्गत प्रथम पुरस्कार डॉ. आशुतोष पारिक अजमेर (राजस्थान) की पुस्तक सामाजिक चेतना के संवाहक स्वामी दयानंद सरस्वती को द्वितीय पुस्कार डॉ. गुलाबचंद पटेल गांधी नगर (गुजरात) की वैश्विक परिप्रेक्ष्य में गांधी और अन्य शोध को तथा तृतीय पुरस्कार डॉ. मनीषा दुबे धमोह (मध्य प्रदेश) की पुस्तक को दिया गया।
बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर समानता व समानता पुरस्कार के अंतर्गत प्रथम पुरस्कार डॉ. पायल लिल्हारे झांसी (उत्तर प्रदेश) की पुस्तक डॉ. भीमराव अंबेडकर का वैचारिक चिंतन को तथा द्वितीय पुरस्कार प्रो. आमलपुरे सूर्यकांत विश्वनाथ रायगढ (महाराष्ट्र) की पुस्तक संत रविदास सृजन के आलोक को दिया गया। तृतीय पुरस्कार के लिए कोई भी पुस्तक उपयुक्त नहीं पाई गई। चौधरी छोटूराम किसान, खेतीबाडी, मजदूरी व शिक्षा पुरस्कार के अंतर्गत कोई भी पुस्तक उपयुक्त नहीं पाई गई। आयोजक समिति व आचार्य अकादमी चुलियाणा रोहतक हरियाणा के अध्यक्ष डॉ. शीलक राम आचार्य ने सभी विजेताओं को शुभकामनाएं दी। उन्होंने यह भी बताया कि सभी विजेताओं को इनामी राशि, स्मृति चिन्ह तथा प्रमाण-पत्र तथा सान्तवना पुरस्कार विजेताओं को स्मृति चिन्ह व प्रमाण-पत्र डाक के द्वारा भेजे जाएंगे।डॉ गुलाब चंद पटेल को अध्यक्ष खम्भोंलज साहित्य संस्था के अध्यक्ष श्री शैलेष वाणिया जी ने हार्दिक बधाई दी है
सिनेबस्टर मैगज़ीन के मालिक रॉनी रॉड्रिग्स ने मुम्बई के फाइव स्टार होटल जे डब्लू मेरिएट में अपनी बेटी डेलिसिया का 5 वा बर्थडे पार्टी का शानदार आयोजन किया जहां काफी फिल्मी सेलेब्रिटीज़ ने अपनी उपस्थिति दर्ज करवाई। डेलिसिया के पांचवे जन्मदिन पर कई मेहमान और मीडियाकर्मी इस समारोह को चार चांद लगाने आए। परियों के ड्रेस पहनी कई सुंदर महिलाओं के बीच जब रॉनी की अपनी लिटिल प्रिंसेस बेटी के साथ एंट्री हुई तो लग रहा था कि जैसे कोई शानदार फ़िल्म का कोई भव्य सीन शूट हो रहा हो। डेलिसिया काफी मासूम और क्यूट लग रही थीं। यहां खूबसूरत केक काटकर बच्ची का जन्मदिन मनाया गया। सभी ने बच्ची को बधाई दी। रॉनी रॉड्रिग्स ने यहां खूब डांस किया और आए हुए तमाम मेहमानों का खूब स्वागत और शुक्रिया अदा किया।
इस बर्थडे पार्ट मे सेलेब्रिटी गेस्ट के तौर पर निर्माता निर्देशक मेहुल कुमार, ऎक्ट्रेस आरती नागपाल, संगीतकार दिलीप सेन, पंकज बेरी, अरुण बख्शी, सुरेंद्र पाल, योगेश लखानी, सन्दीप सोपारकर, कवलजीत सिंग, हॅरी वर्मा, सौरभ पटेल, लेझलीन, राजू टांक, पुनीत खरे, विकास महंते, संजय सिंग, राजीव चौधरी, एलिना टूटेजा, संतोष गुप्ता, रणवीर गेहलोत, विजय सिंग, निर्मल मिश्रा, मॉडल-अभिनेत्री आद्या सिंह, दिलीप सेठी, मधू भरती, पियू चौहान, सुधीर गायकवाड, अशोक शेखर, बाबबी वत्स, भंडारी, कबीर, पन्नू, हेमंत सांगानी, आनंद बलराज (रामलखन), कल्याणजी जाना, इत्यादि हाज़िर हुए। सभी ने रॉनी रॉड्रिग्स की बेटी डेलिसिया को बर्थडे के लिए खूब मुबारकबाद और शुभकामनाएं दीं। अरुण बख्शी ने कहा कि कोरोना काल के बाद इस तरह की भव्य पार्टी का आयोजन रॉनी रॉड्रिग्स द्वारा किया गया है। उनकी पुत्री को जन्मदिन की खूब बधाई। बिल्कुल परियों जैसी लग रही है बच्ची। जीवन मे वह सारी खुशियां पाए, हमसब की यही दुआएं हैं। इस खास मौके पर आरती नागपाल ने कहा कि रॉनी जी ने यह बेहतरीन पार्टी अपनी बेटी के जन्मदिन के मौके पर रखी है। उनकी पांच साल की बेटी डेलिसिया बहुत ही प्यारी है उसको बर्थडे की ढेर सारी विशेज़। एक्टर पंकज बेरी ने यहां मीडिया से बात करते हुए बताया कि रॉनी जी की बेटी को जन्मदिन की हार्दिक शुभकामनाएं। उन्होंने इस प्रोग्राम पर हम सबको आमंत्रित किया, यह बड़ा अच्छा लगा। उन्होंने सभी मेहमानों और मीडिया वालों के लिए भी इस खुशी के मौके पर खूब प्रबंध किया। हम सबको खुशी है कि कोरोना काल के बाद रौनक एक बार फिर छा गई है, इस तरह की पार्टियां होनी चाहिए।
मुंडे मीडिया पीआर के रमाकांत मुंडे ने यहां मीडिया के सामने घोषणा की कि अगले माह जुहू के इसी होटल जे डब्लू मेरिएट में सिनेबस्टर अवार्ड्स का एलान किया जाएगा। गौरतलब है कि सिनेबस्टर मैगज़ीन के मालिक रॉनी रॉड्रिग्स ने इस फंक्शन में आए हुए तमाम गेस्ट्स के साथ मीडिया वालों से भी मुलाकात की, उनके साथ तस्वीरें खिंचवाईं और उनकी इस दरियादिली की सभी ने खूब तारीफ की। इस बर्थडे पार्टी के पीआर की जिम्मेदारी मुंडे न्यूज़ के रमाकांत मुंडे ने बखूबी निभाई। रमाकांत मुंडे (मुंडे मीडिया)
क्या मुसलमानों को फ्रांस से बुर्क़े पर रोक लगाने की मांग करने का अधिकार है जबकि पश्चिम की महिलाओं को कम कपड़े में मुस्लिम देशों में सार्वजनिक स्थानों पर या घर से बाहर निकलकर घूमने की अनुमति नहीं है !आप आशा कर रहे हैं कि वे आपकी संस्कृति का सम्मान करें और जब वे आपके देश में आएं तब भी और जब आप उनके यहां जाए तब भी। लेकिन आप उनकी संस्कृति का सम्मान पाकिस्तान में नहीं करते हैं और यदि आपका वश चले तो उनके देश में भी नहीं होने दे सकते – इतना दोगलापन
ये अब ख़तरनाक दुनिया हो गई है। व्यक्ति यदि आपादमस्तक परदे में हो तो वह भी सुरक्षा के लिए ख़तरा हो सकता है। आपको पता ही नहीं परदे में कौन है। इस्लाम केवल ये कहता है कि महिला (औरत शब्द इसलिए नहीं लिखूंगी कि अरबी में इसका अर्थ ” महिला की योनि ” होता है और यह यह आम चलन में उनका ही दिया हुआ शब्द है ) ऐसे कपड़े पहने कि उच्चश्रृंखल न दिखें। फिर यह बुर्क़ा आया कहाँ से ?
हम सभी जानते हैं कि बुर्क़े का सम्प्रदाय या मज़हब से कोई लेना- देना नहीं। इस्लाम केवल ये कहता है कि महिला (औरत शब्द इसलिए नहीं लिखूंगी कि अरबी में इसका अर्थ ” महिला की योनि ” होता है और यह उनका ही दिया शब्द है )ऐसे कपड़े न पहनें कि उच्छृंखल दिखें। फिर बुर्क़ा आया कहा से? दुनिया भर में महिलाएं अपने चेहरे को ढंकती क्यों हैं? बुर्क़ा पुरुष द्वारा खोजी गई चलती -फिरती जेल है जिसके अंदर वह उस स्त्री को रखता है जिससे वह प्यार करता है।पर क्या सच में ऐसा है ? अगर इसमें मोहब्बत होती तो मैं इसे शायद मंज़ूर कर लेती। उस सूरतेहाल में यह जेल स्त्री को किसी दूसरे मायने में ज्यादा स्वीकार्य होती। लेकिन तब फिर प्रश्न होता कि किस स्वभाव का पुरुष उस महिला को जेल में रखेगा जिसे वह प्यार करता है। ऐसे में बुर्क़ा उस तरह की जेल अधिक है जिसमें पुरुष ‘अपनी स्त्री’ को गिरफ़्त या क़ैद में रखता है उसमें प्रेम सिर्फ बहाना है, सच्चाई नहीं ।
मुस्लिम परिवारों में महिला के ब्रेनवाश की प्रक्रिया बचपन में ही शुरू हो जाती है। छुटपन में ही उसे बताया जाता है कि तुम्हें स्वयं को पुरुषों से छिपाना है। तुम्हारा चेहरा छुपाकर रखना ‘धर्म’ है। महिला को पुरुषों से भयभीत रहना भी सिखाया जाता है। बहुत कम आयु में ही महिला को बताया जाता है कि पुरुष ख़तरनाक़ होते हैं उन पर ऐतबार नहीं किया जा सकता। स्त्री से कहा जाता है, तुम केवल अपने पिता और भाई पर ऐतबार कर सकती हो क्योंकि पुरुष आपको सहजता से फुसला सकता है। पाकिस्तान में तो महिलाओं को बताया जाता है ‘पुरुष भेड़िया यानी कामुक और क्रूर होता है जबकि महिला भेड़ या सीधी-सादी होती है।‘ इस नसीहत के चलते ही ज्यादतर पुरुष भेड़िये की तरह व्यवहार करने लगते हैं और महिला सहमी -सिकुड़ी -सितम सहनेवाली भेड़ बन जाती है।
हमारे पुरुष कहते हैं कि महिलाओं को परदा करना चाहिए जबकि हम महिलाओं के पास पुरुष के लिए किसी तरह का विचार या नज़रिया नहीं होता। ये विचार महिलाओं को हानि पहुंचाने और उनके साथ ज़ोर-ज़बरदस्ती करने का होता है। इसलिए वे (पुरुष) हमें (महिलाओं को ) जेल में रखना चाहते हैं ताकि हमें लेकर उनका दिमाग़ साफ़ रहे। यह तो तोड़ा-मरोड़ा हुआ तर्क है। लेकिन क्या यक़ीनन उनका ये विचार यहां रुक जाता है? क्या बुर्क़े में ढंकी महिला को कोई नहीं छेड़ता ? हक़ीक़त की दुनिया में छिछोरों को इससे कोई अंतर नहीं पड़ता है कि आप बुर्क़े में हैं ( या बिकनी में ), वे आपको सतायेंगे ही। मेरा अनुभव बताता है कि चेहरे पर परदा सड़कों-गलियों में होने वाली छेड़छाड़ या छींटाकशी से मेरी कभी बचा नहीं पाता।
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पाकिस्तान से छोटे शहरों में घर से निकलने पर हमेशा या मेरे पिता या मेरे भाई साथ होते हैं , अन्यथा गलियों से अकेले गुज़रते समय हमारे जिस्म पर चाहे जितने कपड़े हों, पुरुष चिल्लाएंगे, छींटाकशी करेंगे, पीछा करेंगे और हमारे जिस्म को छूने की कोशिश करेंगे। इसी के चलते महिला अपने घर से अकेली नहीं निकल सकती और उसके साथ हमेशा घर का कोई पुरुष रहता है। पाकिस्तान और दूसरे मुस्लिम देशों में पुरुष अपने घर की महिलाओं की दूसरों से हिफ़ाज़त करते हैं। लाहौर जैसे पाकिस्तान के बड़े शहरों में माहौल अलग होता है, आप यकीन करें या न करें वहां महिलाओं को यौन-शोषण जैसी समस्या से अपेक्षाकृत कम जूझना पड़ता है। यहां हमारे आसपास के पुरुष सिर न ढंकने और परदा न करने वाली महिलाओं की संगत के अभ्यस्त होते हैं।इसका कारण यह है कि पुरुष अधिक शिक्षित होते हैं इसलिए उनकी बहन और मां ज़्यादा स्वतंत्र या अधिकार संपन्न होती हैं।
आइए, अब बात करते हैं अमेरिका की, जी हां, यहां तो गलियों में पुरुष का व्यवहार विस्मयकारी अनुभव है। मैं जो चाहूं पहन कर आसपास जा सकती हूं। किसी की क्या मजाल की बुरी नज़र भी डाले। इससे मेरी समझ में आया कि बुर्क़ा ख़तरनाक़ पुरुषों को हमसे दूर नहीं रखती, बल्कि यह समाज समझ है जो हानिकारक लोगों को हमसे दूर रख सकता है या रखता है।विशेषकर क़ानून का कठोरता से पालन का परिणाम है जो किसी देश में स्त्री को सुरक्षित अनुभव कराता या रखता है। हवाई के खूबसूरत बीच पर मस्ती भरी ठंड हवाओं के सुखद स्पर्श का मेरा पहला अनुभव रोमांचकारी रहा वरना पुरुष ने बुर्क़ा कहे जाने वाले शामियाने में रखकर स्त्री से खुशनुमा मौसम को इंजॉय करने का उसका बुनियादी हक़ ही लूट लिया है। बुर्क़े के भीतर अंधेरा होता है, गर्मी होती है, स्त्री को पुरुष ने वहां केवल इसलिए ढकेल दिया है कि स्त्री के बारे में उसके पास कोई विचार नहीं है तो वो बुर्क़े के भीतर घुटती रहे।किसी सभ्य देश में अगर सामने वाले की सहमति के बग़ैर आपने अपने विचार उस पर थोपने की कोशिश की तो आप 10-20 साल के लिए जेल भेज दिए जाएंगे।
दबाए हुए समाज के पुरुष के लिए ये समझना बड़ा मुश्किल है कि खुले समाज के पुरुष वास्तव में अपने विचार पर अंकुश लगाना सीख गए हैं और उसके लिए वे औरतों पर दोषारोपण नहीं करते। जब फ्रांस में बुर्क़े पर रोक की बात आती हैं, जहां यह तर्क दिया जाता है कि महिला जो चाहे उसे पहनने की स्वतंत्रता होनी चाहिए और ये स्वतंत्रता काम नहीं करती… हर समाज में ड्रेसकोड और स्वतंत्रता की एक सीमा है। आपकी स्वतंत्रता वहीं समाप्त हो जाती है जहां से हमारा रास्ता शुरू होता है। नंगेपन के पैरोकार अकसर कहते हैं कि सड़क पर बिना कपड़े के घूमना उनका अधिकार और मौलिक अधिकार या स्वतंत्रता है जो पूरी होनी चाहिए। स्पष्ट है उन्हें उन्हें इसकीअनुमति नहीं दी जा सकती क्योंकि इससे दूसरे समाज में अव्यवस्था फैलने का खतरा बढ़ेगा । इसी तरह एक व्यक्ति यदि आपादमस्तक परदे में हो तो वह भी सुरक्षा के लिए ख़तरा हो सकता है। आपको पता ही नहीं परदे में कौन है। ये अब ख़तरनाक दुनिया हो गई है। आप अपने बच्चे को पार्क में खेलने की इजाज़त नही दे सकते जहां सिर से पांव तक बुर्क़े में ढंके लोग बैठे हैं। क्या मुसलमानों को फ्रांस से बुर्क़े पर रोक लगाने की मांग करने का अधिकार है जबकि पश्चिम की महिलाओं को कम कपड़े में मुस्लिम देशों में ,विशेषकर पाकिस्तान में सार्वजनिक स्थानों या घर से बाहर घूमने की अनुमति नहीं है !आप आशा कर रहे हैं कि वे आपकी संस्कृति का सम्मान करें और जब वे आपके देश में आए तब भी और जब आप उनके यहां जाए तब भी लेकिन आप उनकी संस्कृति का सम्मान तो अपने देश में नहीं करते हैं और यदि आपका वश चले तो उनके देश में भी नहीं होने दे सकते – ऐसा कैसे ?
( डॉ शाज़िया नवाज़ पाकिस्तान की प्रमुख एवं चर्चित लेखिका हैं। वर्ष 2011 में फ़्रांस सरकार ने बुर्क़े पर रोक लगाया तो पाकिस्तान में उसपर छिड़ी बहस में हस्तक्षेप करते हुए डॉ शाज़िया नवाज़ ने अंग्रेजी में एक लेख लिखा था।उसी लेख का यह हिंदी अनुवाद विश्व संवाद संवाद केंद्र मुंबई के राजेश झा ने किया है। )
जन्म लेने के बाद शिशु जो प्रथम भाषा बोलने और सीखने का प्रयास करता है उसे उसकी मातृभाषा कहते हैं।हमारा प्रारंभिक ज्ञान मातृभाषा द्वारा ही होता है और हम अपने भावी ज्ञान को भी (वह हमें चाहे जिस भाषा द्वारा प्राप्त हो) मातृ भाषा द्वारा प्राप्त किए हुए ज्ञान के आलोक में ही देखते हैं। मातृभाषा हमारे बाल्यकाल की भाषा होने के कारण हमारे मानसिक संस्थान का मजबूत अंग बन जाती है। मातृभाषा में प्रशिक्षित बच्चों में अन्य भाषाएँ सीखने की क्षमता भी अधिक होती है ,जिन बच्चों को बहुभाषी बनाया जाता है उनकी प्रतिभा का विकास बहुत तीव्र गति से संभव होता है।आज विश्व की दस प्रमुख बहुराष्ट्रीय कंपनियों का नेतृत्व भारतीय कर रहे हैं तो उसका एक कारण यह भी है। मनुष्य चाहे जितना विदेशी रंग में रंग जाए किंतु सच्चे हर्ष और घोर विपत्ति के अवसर पर मातृभाषा में स्वयं अभिव्यक्त कर सकता है। जिस भाषा को मनुष्य स्वाभाविक अनुकरण द्वारा बाल्यकाल से सीखता है उसे हम उसकी मातृभाषा कहते हैं इसी बात को हम दूसरे शब्दों में यह कह सकते हैं कि जिस भाषा को हम माता की गोद में सीखते हैं वह हमारी मातृभाषा हो सकती है या मातृभाषा है।
भारतीय प्राद्योगिकी संस्थान (मुंबई) में प्राध्यापक डॉक्टर गणेश रामकृष्ण कहते हैं कि मातृभाषा से शिशु का परिचय उसके भ्रूणावस्था में ही हो जाता है क्योंकि वह उसकी ध्वनि माँ से सुनता है। मनोविज्ञान की प्रोफ़ेसर और प्रमुख लेखक क्रिस्टीन मून ने छह महीने के भ्रूण से लेकर उसके शिशु रूप में जन्मने तक भ्रूण की गतिविधियों का गहन अध्ययन किया है। उन्होने वर्षों के शोध से सिद्ध किया है कि गर्भावस्था में ही भ्रूण का परिचय उसकी माँ द्वारा बोले और सुने जानेवाले शब्दों से होने लगता है। मुंबई विश्वविद्यालय में मनोविज्ञान की प्राध्यापक श्रीमती मेघना ठाकुर कहती हैं कि ‘ मातृभाषा के साथ हमारे बचपन की बहुत सी मधुर स्मृतियां जुड़ी हुई होती हैं, इस कारण उसे बोलने और सुनने के लिए हमारे मुख और कान की पेशियां अभ्यस्त हो जाती हैं। उसके उच्चारण व श्रवण में हमको अधिक प्रयास नहीं करना पड़ता। जो आनंद हमको अपनी मातृभाषा के गायन में होता है वह किसी दूसरी भाषा के गायन में नहीं आता।
शोधों ने यह सिद्ध किया है कि जीवन के आरंभिक वर्षों और प्राथमिक शिक्षा में मातृभाषा माध्यम में पढ़ने वाले बच्चों में सर्वश्रेष्ठ संवेगात्मक विकास के साथ साथ सभी विषयों की समझ और अधिगम भी बेहतर होते हैं उन बच्चों की तुलना में जिन्हें अपनी मातृभाषा/परिवेश भाषा से अलग किसी भाषा में पढ़ना पड़ता है। इतना ही नहीं, दूसरी भाषाएं सीखने में भी मातृभाषा/परिवेश भाषा में पढ़ने वाले बच्चे आगे पाए गए उन दूसरी श्रेणी के बच्चों की तुलना में जो अन्य भाषा से दूसरी भाषा सीखते हैं।हिंदी और अंग्रेजी माध्यम बच्चों तथा किशोरों को मराठी सिखानेवाली संस्कार भारती की स्वयंसेविका मानसी राणे कहती हैं कि प्राथमिक कक्षाओं में मातृभाषा माध्यम से शिक्षा देने से बच्चों को बहुभाषी बनाने में भी श्रेष्ठतर होती है।बच्चों की प्रारंभिक देखभाल और शिक्षा में मातृभाषा या पारिवारिक भाषा या परिवेश/स्थानीय भाषा का महत्व उन मुट्ठी भर विषयों में है जिस पर पूरी दुनिया के शिक्षाविदों और मनोवैज्ञानिकों की सहमति है। इस विषय पर इतने सारे शोध, प्रयोग, अध्ययन हुए हैं, इतनी सारी किताबें लिखी गई हैं कि अब इसे एक सार्वभौमिक निर्विवाद सत्य के रूप में वैश्विक स्वीकृति मिल गई है। शिक्षाविद् जानते हैं कि 6 साल की उम्र तक बच्चों के ८०-८५ प्रतिशत मस्तिष्क का विकास हो जाता है। यह भी अब एक सर्वविदित तथ्य है कि दो से आठ साल की उम्र के बीच कई भाषाएं आसानी से सीख लेने की क्षमता बच्चों में सबसे प्रबल होती है।
ज्ञान मनन से बढ़ता है और मनन के लिए पारस्परिक आदान-प्रदान आवश्यक है। यह आदान-प्रदान और विचार- विनियम में जितना व्यापक मातृभाषा द्वारा हो सकता है उतना दूसरी भाषा द्वारा नहीं हो सकता। बाल- साहित्य की अधिकारी ज्ञाता अर्चना पोहनेर के अनुसार मातृभाषा के शब्दों में हमारी जातीय संस्कृति का इतिहास छिपा होता है। उसके द्वारा हम अपने घर वालों और जाति वालों के साथ एक सूत्र में जुड़ जाते हैं और हम उनके हृदय तक अपनी बात पहुंचा सकते हैं। मातृभाषा अपने व्यवहार करने वालों में एक आरक्षित प्रेम भाव उत्पन्न कर देती है। विश्व के किसी भी स्थान-समाज में जन्म लेने वाले बच्चों के लिए मातृभाषा/परिवेश/स्थानीय भाषा ही सर्वांगीण विकास तथा सभी विषयों के बारे में सीखने के लिए सर्वोत्तम माध्यम होती है। यह बात सुदूर जंगलों में रहने वाले वनवासी बच्चों पर भी उतनी है लागू होती है जितनी सबसे विकसित, संपन्न समाजों-देशों के बच्चों पर।
मानसी राणे कहती हैं कि समाज विकसित या अविकसित हो सकते हैं लेकिन कोई भी भाषा अविकसित नहीं होती। संसार की हर भाषा में अपने बोलने-बरतने वालों की सभी संचार-अभिव्यक्ति-आवश्यकताओं को पूरा करने की अन्तर्निहित क्षमता होती है। यह बात इसलिए भी केन्द्रीय महत्व की है कि बहुत से ऐसे देशों-समाजों में जो आधुनिक विकास, संपन्नता, तकनीकी-आर्थिक प्रगति में विकसित देशों से पिछड़ गए हैं, लोगों के मन में यह बात बिठा दी जाती है कि उनकी अपनी देशज, स्थानीय भाषाएं विकसित देशों की तथाकथित विकसित भाषाओं की तुलना में अविकसित, गरीब और असमृद्ध हैं। यह स्थिति ज्यादातर उन देशों की है जो किसी -न- किसी औपनिवेशिक देश की दासता के शिकार रहे हैं। अपनी भाषा-संस्कृति-समाज-समझ की हीनता का यह भाव इन समाजों में अपनी विरासत, अपनी हर बात को लेकर एक गहरा आत्महीनता , आत्म-लज्जा का भाव भर देता है जिससे उनके आत्म-विश्वास खंडित होते जाते है।इसका परिणाम यह होता है कि ऐसे विजित समाज अपनी भाषा, अपनी सांस्कृतिक पहचान, तौर-तरीकों, परंपराओं, पद्धतियों, ज्ञान-परंपराओं को लेकर गहरे संशय और अविश्वास से भर जाते हैं। उन्हें विजेता समाज, संस्कृति, भाषा, शिक्षा, जीवन शैली श्रेष्ठतर लगने लगते हैं। परिणामतः वे अपने पारंपरिक तौर तरीके छोड़ कर विजेता या प्रभुत्वशाली वर्ग के तौर तरीके अपनाने लगते हैं। उनकी नकल करने लगते हैं।
विश्व के सभी पूर्व-औपनिवेशित देश-समाज इस आत्महंता चेतना से ग्रस्त हो गहरी और व्यापक सांस्कृतिक-बौद्धिक-शैक्षिक दासता के शिकार बने दिखते हैं भले ही उन्हें राजनीतिक स्वाधीनता मिल गई हो। ऐन्स्रे ने १९७९ में कहा था कि सांस्कृतिक दासता का एक स्पष्ट परिणाम उस समाज में नवाचार, मौलिक चिंतन, शोध, आविष्कारों की कमी में दिखता है। चूँकि समाज का शिक्षित वर्ग पराई शिक्षा पद्धति और विचार सरणियों की नकल करना ह्रदयंगम कर चुका होता है इसलिए अपनी नैसर्गिक प्रकृति तथा प्रतिभा की नींव पर मौलिक विचार, कल्पनाओं और नवोन्मेष की उसकी क्षमता क्षीण पड़ जाती है। भाषायी साम्राज्यवाद- “वह परिघटना जिसमें एक भाषा के बोलने वालों के मन-मस्तिष्क और जीवन दूसरी भाषा द्वारा इतने दबा दिए जाते हैं कि वे यह विश्वास करते हैं कि जब मामला जीवन के उच्चतर पहलुओं का हो तो वे उसी विदेशी भाषा का प्रयोग कर सकते हैं और उन्हें करना चाहिए जब मामला जीवन के उन्नत पक्षों से, जैसे शिक्षा, दर्शन, साहित्य, शासन, प्रशासन, न्याय व्यवस्था आदि, निपटने का हो। भाषायी साम्राज्यवाद में किसी समाज के श्रेष्ठ लोगों के भी मानस, दृष्टिकोणों और आकांक्षाओं को विकृत करने और उन्हें देशज भाषाणों के सही मूल्यांकन तथा उनकी संपूर्ण संभावनाओं का अहसास करने से रोकने की एक शक्ति है।“ भारत भी इस ऐतिहासिक विकार, भाषायी साम्राज्यवाद का शिकार है।
इस विषय का दूसरा पहलू बच्चों के व्यक्तित्व निर्माण में मातृभाषा या भाषा की भूमिका का है। इसे समझने से पहले यह जरूरी है कि भाषा के बारे में इस सबसे बड़ी लगभग वैश्विक और सार्वभौमिक भ्रम को दूर किया जाए कि भाषा केवल संवाद का माध्यम है। जब तक इस भ्रम को दूर नहीं किया जाता और भाषा की ज्यादा बड़ी भूमिका को ठीक से नहीं समझा जाता तब तक बच्चों की प्रारंभिक देखभाल तथा शिक्षा में मातृभाषा के महत्व को नहीं समझा जा सकता। जिस तरह गर्भनाल के माध्यम से बच्चे को मां के गर्भ में सारा पोषण प्राप्त होता है, धीरे-धीरे उसके विभिन्न अंगों और पूरे शरीर का निर्माण होता है, वैसे ही बच्चे की माँ/परिवार/परिवेश की भाषा उसके अंतःशरीर या अंतःकरण के गठन में निभाती है। दृष्टि, स्पर्श, ध्वनियां और स्वाद- मुख्यतः जन्म के समय से सक्रिय इन चार इंद्रियों के माध्यम से भीतर जाने वाले अनुभवों, अनुभूतियों, प्रभावों से बच्चे की आंतरिक दुनिया बनती है। बच्चा जो देखता है, जिन्हें देखता है, जिन ध्वनियों को सुनता है, जिन स्पर्शों को महसूस करता है उनके दैनिक अनुभव से धीरे-धीरे उस की चेतना को कोरे पन्ने पर अनुभवों का कोश बढ़ता जाता है और बाहरी संसार के इन अनुभवों से, परिचित-सुखद अनुभूतियाँ देने वाले चेहरों-आवाज़ों-स्पर्शों से उसके रिश्तों और ज्ञान का आंतरिक संसार बनता जाता है। यही आंतरिक संसार धीरे-धीरे बच्चे के आत्मबोध में परिवर्तित हो जाता है।
जैसे-जैसे बच्चा बड़ा होता जाता है वैसे -वैसे उसका परिचय अपने परिवार से शुरू होकर अपने परिवेश से होने लगता है। शैशव के इस बीजरूपी आत्मबोध से वयस्क होने पर संसार-बोध तक की इस यात्रा में उसकी इन्द्रियां ही सबसे अधिक सहायक होती है। इन ऐन्द्रिक अनुभवों के माध्यम से वह जानता और पहचानता है माँ को, पिता को, निकट परिजनों को, घर को, विविध रूपों और वस्तुओं को, विभिन्न ध्वनियों और उनके स्रोतों-आशयों-अर्थों को। और यूं रूपाकारों, पारिवारिक तथा पारिवेशिक व्यक्तियों, संबंधों और वस्तुओं, नामों, उनके अर्थों तथा प्रयोजनों से उसका ज्ञान संसार भरता जाता है। जैसे-जैसे यह संसार बड़ा होता जाता है, बच्चा इसके अनुभवों को ह्रदयंगम करता जाता है। वह सहज मानवीय प्रतिक्रिया में अपने इस अंतरंग संसार से संवाद करना शुरू कर देता है, हाथ-पैर चला कर, मुखमुद्राओं से, किलकारियों या रुदन से, फिर अपनी तोतली अनगढ़ बातों से अपने को व्यक्त करना शुरू कर देता है। तब तक प्रमुखतः माँ और दूसरे परिजनों को सुनते-सुनते ध्वनियों, शब्दों, अर्थों, आशयों का उसका कोश भी बढ़ते हुए तुतुलाने से शुरू होकर एक दिन माँ/मम्मा शब्द से भाषा में बदल जाता है। यहाँ से बच्चे का भाषा भंडार आश्चर्चजनक तेजी से भरने लगता है। डेढ़-दो साल से आठ साल बच्चों के भाषिक, संवेगात्मक विकास के सबसे उत्कट साल होते हैं। ये अपने घर से आरंभ करके बाहर के वृहत्तर संसार से रोज़ सघन और विविधतापूर्ण परिचय के वे वर्ष हैं जब बच्चा सोख्ते की तरह हर चीज़ ग्रहण करता है। ये ही वे वर्ष हैं जब उसकी शाला-पूर्व शिक्षा आरंभ होती है और कक्षा आठ तक चलती है। इस भाषा से ही बच्चा अपने रोज बढ़ते, विस्तृत होते संसार के बारे में ज्ञान प्राप्त करता है, उससे संबंध स्थापित करता है। ये संबंध केवल बौद्धिक जानकारी के ही नहीं स्थानीय, सामाजिक, सांस्कृतिक, भावनात्मक तथा संवेगात्मक भी होते हैं। अपने भौतिक तथा मनोवैज्ञानिक ज्ञान तथा सहज जिज्ञासा से बच्चा अवचेतन स्तर पर ही संसार की खोज करता जाता है और इस तरह अपने आपको उसमें स्थापित भी करता जाता है।
इस प्रारंभिक भूमिका के बाद जब हम भारतीय शैक्षिक परिदृश्य को देखते हैं तो पाते हैं कि ७२ साल की स्वाधीनता के बाद हमारी शिक्षा व्यवस्था की ध्वस्त अवस्था, हमारी भाषाओं की बढ़ती अप्रासंगिकता, हमारे करोड़ों शिक्षित युवाओं की रोजगार-अयोग्यता, देश में नवाचार और मौलिक वैज्ञानिक आविष्कारों की लज्जास्पद कमी, आधुनिक ज्ञान के विविध क्षेत्रों में विश्वस्तरीय मौलिक चिंतन- पुस्तकों- खोजों का अभाव, आर्थिक-सामाजिक पिछड़ापन जैसी बातें सामने खड़ी दिखती हैं। इन स्थितियों के लिए जिम्मेदार कारणों, वर्गों में प्रमुख हमारी शिक्षा व्यवस्था के लिए जिम्मेदार नेतृत्व है जिसने स्वाधीनता के बाद भी भारत की बौ्द्धक आजादी की नींव यानी शैक्षिक आजादी के महत्व को नहीं समझा और शिक्षा व्यवस्था में बुनियादी, आमूल-चूल परिवर्तन नहीं किए। अंग्रेजों द्वारा अपने औपनिवेशिक हितों के लिए बनाया गया शिक्षा तंत्र ही मामूली बदलावों के साथ जारी रहा। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद की अस्थिर स्थितियों और चुनौतियों से जूझते राजनीतिक-शैक्षिक नेतृत्व ने कुछ इस दबाव में और कुछ बौद्धिक आलस्य में शिक्षा की वह सुविचारित नई प्रणाली विकसित नहीं की जो भारत की प्रकृति, परंपरा और प्रतिभा के अनुरूप इस नए भारत के स्वप्न को मूर्त रूप दे पाती। इस बौद्धिक आलस्य में राजभाषा हिंदी के साथ साथ अंग्रेजी को भी जारी रख कर उसके प्रभुत्व, प्रभाव को बनाए रखना भी था और शिक्षा की माध्यम भाषा के रूप में बनाए रखना भी, विशेषतः उच्चतर शिक्षा में। प्रशासन, उद्योग, ज्ञान-विज्ञान में अंग्रेजी का प्रभाव, शक्ति और प्रतिष्ठा घटे नहीं, बढ़ते रहे। इनका स्वाभाविक असर प्राथमिक शिक्षा पर पड़ा और धीरे-धीरे उसमें भी स्थानीय भाषाओं की जगह अंग्रेजी ही माध्यम भाषा के रुप में बढ़ती रही। इस विदेशी भाषा से मिलने वाले प्रगति और रोजगार के अवसरों, सामाजिक प्रतिष्ठा के आकर्षण में अभिभावको की कई पीढ़ियों ने अपने बच्चों को भाषाई माध्यम की जगह अंग्रेजी माध्यम विद्यालयों में भर्ती कराया। इस तरह इन बच्चों के साथ ऐसी अनेक पीढ़ियाँ तैयार हो गईं जो बचपन से ही अपनी-अपनी भाषाओं से शिक्षा, ज्ञान ग्रहण तथा गंभीर अभिव्यक्ति के माध्यम के रूप में दूर हो चुकी थीं। वे अपनी भाषाओं का बातचीत, जीवन के सामान्य व्यापार में तो इस्तेमाल करती थीं लेकिन जीवन के ज्यादा महत्वपूर्ण आयामों में अंग्रेजी पर ही निर्भर थी, उसकी अभ्यस्त बना दी गई थीं।
इसका परिणाम आज इस रूप में हमारे सामने है कि एक ओर तो गरीब -से -गरीब अभिभावक भी अपने बच्चों को अच्छे भाषा-माध्यम सरकारी विद्यालयों से हटाकर तथाकथित अंग्रेजी माध्यम विद्यालयों में डाल रहे हैं भले ही वे कितने भी घटिया और मँहगे हों। दूसरी ओर, अंग्रेजी माध्यम में पढ़ कर निकले हमारे दोहरा नुकसान उठा रहे हैं। एक तो उन्हें इस थोपे हुए अंग्रेजी माध्यम के कारण सच्चा विषय-ज्ञान नहीं मिलता, उनका ज्ञान उथला और अनुपयोगी रहता है। इससे वे शिक्षित डिग्रीधारी तो बन जाते हैं लेकिन ये डिग्रियाँ उनमें रोजगार, अच्छी नौकरियों के लिए सुयोग्य नहीं बनातीं। दूसरा इससे भी बड़ा नुकसान यह होता है कि वे अपनी भाषाओं की समृद्धि, क्षमताओं, शक्ति और सौन्दर्य से क्रमशः दूर, कटे हुए और अपरिचित होते जाते हैं। चूँकि हमारी सांस्कृतिक पहचान, आत्म-संस्कृति बोध अविच्छिन्न रूप से हमारी विविध भाषाओं से जुड़ा हुआ है, उनके सघन परिचय-प्रयोग से ही विकसित होता है इसलिए ये शिक्षित युवा आत्म विकास के रोजगारपरक रास्तों से तो दूर रहते ही हैं अपनी सांस्कृतिक पहचान, अपना अस्मिता बोध भी खो देते हैं।
‘नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति’ के संशोधित मसौदे में भी मातृभाषा और भारतीय भाषाओं के संदर्भ में अनेक अहम सिफारिशें हैं, लेकिन मातृभाषा के संदर्भ में एक महत्वपूर्ण बिंदु को लेकर शिक्षा नीति तैयार वाली कस्तूरीरंगन समिति ने शायद इस पर बहुत गंभीरता से विचार नहीं किया। यह बिंदु है प्राथमिक शिक्षा में मातृभाषा का। हालांकि मातृभाषा किसे कहें, इसे लेकर एक विवाद भी है। क्या है मातृभाषा की भारतीय संकल्पना? मातृभाषा में शिक्षा क्यों जरूरी है? इस संदर्भ में शिक्षाशास्त्र के शोधों के क्या निष्कर्ष हैं? यह भी कि राष्ट्रहित में क्या किया जाना चाहिए? पिछले कुछ दशकों से भारत में सरकारी स्कूली शिक्षा में काफी गिरावट आई है। दूसरी तरफ निजी स्कूल कुकुरमुत्ते की तरह महानगरों को तो छोड़िए, छोटे शहरों और कस्बों तक में चौतरफा उग आए हैं। सरकारी स्कूलों में शिक्षण का माध्यम जहां अपने-अपने राज्यों की भाषाएं या कहें कि स्थानीय अथवा मातृभाषा हुआ करता था, वहीं अब लगभग सभी निजी स्कूलों में शिक्षण का माध्यम अंग्रेजी हो गया है। हालांकि मातृभाषा की अवधारणा को ही लेकर कुछ विद्वान विवाद खड़ा करते हैं।
भाषाई अधिकारों पर विश्व सम्मेलन (बारसेलोना) में बेनिन के प्रतिनिधि ने जून 1996 में जो कहा था वह अपनी सांस्कृतिक विरासत, जड़ों, ज्ञान-परंपराओं, अस्मिता के सभ्यतामूलक सूत्रों से यह कटाव प्राथमिक शिक्षा अंग्रेजी माध्यम से पाने वाले बच्चों में भी देखा जा सकता है। इनके साथ ही इन बच्चों के मन में अंग्रेजी-जनित एक अहंकार, भाषा-माध्यम समवयस्क व्यक्तियों के बरक्स एक श्रेष्ठता ग्रंथि भी विकसित हो जाती है। इसी के चलते भारत और इंडिया एक देश के दो नाम ही नहीं दो अलग-अलग मनोवैज्ञानिक तथा आर्थिक-सामाजिक-सांस्कृतिक संसार भी बन गए हैं। “अपनी भाषा बोलने के लिए एक बच्चे को सज़ा देना उस भाषा के विनाश का आरंभ है।“ भारत के हजारों अंग्रेज़ी माध्यम विद्यालयों में यह शर्मनाक व्यवहार आज भी आम है। इस तरह भारत के विद्यालयों में ही भारत की भाषाओं के विनाश की नींव तैयार की जा रही है। भारतीय मानस पर अंग्रेजी और अंग्रेजियत के इस प्रभाव ने आम शिक्षित भारतीय को पश्चिमपरस्त, पश्चिमी सभ्यता, ज्ञान-विज्ञान, तकनीक तथा चिंतन का मुखापेक्षी बना कर देश को एक नकलची राष्ट्र बना दिया है। पराई भाषा में मौलिक चिंतन नहीं हो सकता। वह अपनी भाषा में ही संभव है। लेकिन अंग्रेजी के वर्चस्व ने सारी भारतीय भाषाओं को बोलने वालों, उनके परिवेश, परंपराओं, जीवनशैलियों को इस आधुनिक अंग्रेजी-परस्त युवा के लिए पिछड़ा हुआ, अनाधुनिक और शर्म का कारण बना दिया है। इसी कारण भारत में ज्ञान-विज्ञान के उच्चतर क्षेत्रों में नवाचार, मौलिक चितन, शोध, आविष्कार इतने कम हैं।
भारत को यदि इस ज्ञान युग में आधुनिक, प्रगतिशील, समृद्ध और ज्ञान-विज्ञान में अग्रणी बनना है तो उसे अंग्रेजी का यह मोह छोड़ कर अपनी ९०% प्रतिभाओं को उनकी अपनी भाषाओं में शाला-पूर्व स्तर से ही उत्कृष्टतम शिक्षा देकर उनकी मौलिकता तथा रचनाशीलता को उच्चतम प्रस्फुटन के अवसर देने होंगे। सशक्त भारत-निर्माण एवं प्रभावी शिक्षा के लिए मातृभाषा में शिक्षा की सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका है। शिक्षा को अपने समाज एवं राष्ट्र के अनुरूप संचालित करने और अपनी भाषाओं में शिक्षण करने से ज्ञान के नए क्षितिज खुलेंगे, नवाचार के नए-नए आयाम उभरेंगे।अपनी-अपनी मातृ/परिवेश/प्रादेशिक भाषाओं में शिक्षा-संस्कार तथा स्वस्थ आत्म-बोध प्राप्त करके ही ये नई पीढियाँ भारतीय नवोन्मेष का नया युग निर्मित कर सकेंगी। सौभाग्य से नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति ने दशकों बाद भारतीय राष्ट्र के नवनिर्माण में भारतीय भाषाओं की इस अनिवार्य भूमिका को पहचाना है और प्राथमिक से लेकर उच्चतम स्तर की शिक्षा में उनको केन्द्रीय स्थान दिया है। अगले १५-२० वर्षों में इस नई शिक्षा व्यवस्था से आधुनिक ज्ञान-विज्ञान, तकनीक तथा एक पुनर्प्राप्त सांस्कृतिक गौरव और सभ्यता-बोध से संपन्न होकर जब भावी भारतीय संसार में पदार्पण करेंगे तब भारत की वास्तविक प्रतिभा का चमत्कार संसार देखेगा। इसका प्राथमिक माध्यम बनेंगी भारतीय भाषाएं।
मातृ भाषा की यह विशेषता होती है कि यह हमारे लिए सभी भाषाओं में सबसे आसान भाषा होती है।इसे बोलना आसान होता है तथा यह हमारी मूल भाषा तथा प्रांत को दर्शाता है। हम सभी के जीवन में मातृभाषा का एक अलग ही महत्व है। हम चाहे जितनी भी अलग अलग भाषा का ज्ञान प्राप्त कर लें किन्तु को जगह मातृभाषा की है वो जगह कोई और दूसरी भाषा नहीं ले सकती है। बचपन से बोलने के कारण यह सदा हमारे साथ होती है। हम बाद में सीखी हुई भाषा को भले ही भूल जाएं लेकिन हम मातृभाषा को कभी नहीं भूलते है।भाषा की उन्नति के साथ विचार की स्पष्टता आती है और विचार ही सारी क्रियाओं का मूल स्रोत है। यदि विचार में शक्ति और स्पष्टता है तो हमारी क्रियाओं का प्रवाह निर्बाध बहता रहेगा और हम उत्तरोत्तर उन्नति करते जाएंगे।मातृभाषा, किसी भी व्यक्ति की सामाजिक एवं भाषायी पहचान होती है।
विश्वभर में यह स्वीकार किया गया है कि बच्चों के गुणों व क्षमताओं का अधिकतम विकास मातृभाषा में शिक्षा प्रदान करने से ही संभव हो सकता है। शैक्षणिक मनोविज्ञान के अनुसार मातृभाषा में संप्रेषण एवं संज्ञान सहज तथा शीघ्र हो जाता है। इससे बच्चे कठिन चीजें भी आसानी से समझ लेते हैं, जबकि इतर भाषाओं में बच्चों को रटना पड़ता है, जो उनके पूर्ण मानसिक विकास के लिए ठीक नहीं है। यूनेस्को ने भी इसके महत्व पर मुहर लगाते हुये प्रतिवर्ष 21 फरवरी को मातृभाषा शिक्षण दिवस के रूप में मनाने का आग्रह किया हुआ है। नायर अस्पताल मुंबई में मनोविज्ञान की शिक्षक डॉक्टर जाह्नवी केदारे कहती हैं कि मातृभाषा से बच्चों का परिचय घर और परिवेश से ही शुरू हो जाता है। इस भाषा में बातचीत करने और चीज़ों को समझने-समझाने की क्षमता के साथ बच्चे विद्यालय में प्रवेश करते हैं। यदि उनकी इस क्षमता का उपयोग पढ़ाई के माध्यम के रूप में मातृभाषा का चुनाव करके किया जाये तो इसके सकारात्मक परिणाम देखने को मिलते हैं। मातृभाषा में शिक्षा देने के प्रमुख उद्देश्यों पर प्रकाश डालते हुए बाल -प्रशिक्षक श्रीमती अर्चना पोहनेर कहती हैं कि (1) विद्यार्थी एवं अध्यापकों में भाषा ज्ञान द्वारा विचारशीलता उत्पन्न करने, (2) उनमें अपने विचारों के परावर्तन, अभिव्यक्ति व संप्रेषण कुशलता उत्पन्न करने, (3) शिक्षण की भाषा को सरल, बोधगम्य, विषयकेन्द्रित बनाने तथा (4) पाठ्य आधारित भाषायी गतिविधियों (श्रवण, पठन, भाषण, लेखन, समझ) के आयोजन में सक्षम बनाने में मातृभाषा अधिक उपयोगी और प्रभावी सिद्ध हुई है । विभिन्न शोध बताते हैं कि बच्चों के पूर्ण मनो-बौद्धिक विकास के लिए आरंभिक शिक्षण मातृभाषा में ही होना चाहिए। आरंभिक शिक्षण मातृभाषा में होने से बोध एवं संज्ञान क्षमता बढ़ती है। छोटे बच्चों के संदर्भ में प्रत्यक्ष अनुभव है कि गणित या सामान्य चीजें भी अंग्रेजी में उन्हें नहीं समझ आतीं, जबकि वही चीज उनकी मातृभाषा में बतायी जाए तो उनके लिए ज्यादा कठिनायी नहीं आती। नई शिक्षा नीति मसौदे में भी मातृभाषा की शक्ति को रेखांकित करते हुए पैरा 4.8 में कहा गया है कि जहां तक हो सके आठवीं कक्षा तक की पढ़ाई मातृभाषा में ही होनी चाहिए। पैरा 22.8 में तो उच्चतर शिक्षा में भी शिक्षण माध्यम के रूप में भारतीय भाषाओं के उपयोग को बढ़ाने की बात की गई है, लेकिन इन अनुशंसाओ को लागू करने लेकर कोई अनिवार्यता नहीं है।मातृभाषा हमें राष्ट्रीयता से जोड़ती है और देश प्रेम की भावना उत्प्रेरित भी करती है। मातृभाषा ही किसी भी व्यक्ति के शब्द और संप्रेषण कौशल की उद्गम होती है। एक कुशल संप्रेषक अपनी मातृभाषा के प्रति उतना ही संवेदनशील होगा जितना विषय-वस्तु के प्रति। मातृभाषा व्यक्ति के संस्कारों की परिचायक है।इतना ही नहीं, दूसरी भाषाएं सीखने में भी मातृभाषा/परिवेश भाषा में पढ़ने वाले बच्चे आगे पाए गए हैं उन दूसरी श्रेणी के बच्चों की तुलना में जो अन्य भाषा से अपनी शिक्षा प्रारम्भ करते हैं।
आज विश्व की दस प्रमुख बहुराष्ट्रीय कंपनियों का नेतृत्व भारतीय कर रहे हैं तो इसका कारण क्या यह है ? अगर हाँ तो हमारे देश के ग्रामीण और अर्ध शहरी क्षेत्रो में अधिकांश बच्चे आज भी मातृभाषा में ही प्रशिक्षित होते हैं तो उनमें इतनी तीव्रता क्यों नहीं होती ? क्यों हमारे पास सुन्दर पिचाइयों की भरमार नहीं है ? श्रीमती अर्चना पोहनेर कहती हैं कि उनके शिक्षा के माध्यम लेकर शोध है क्या ?वहा कौन- कौनसी भाषा मे बोलते थे, घर पर कौन सी भाषा में बोलते थे, किस उम्र मे उन्हेने इंग्लिश सिखा, कौन सी कक्षा तक वो अपनी मातृभाषा में पढ़े ? परिसर भाषा मे सीखे ऐसी अनेक बाते हो सकती है इसलिए पहले विन्दुओं को देखा जाना चाहिए।किन्तु श्री दिलीप केलकर कहते हैं कि पहली बात यह है कि अपवादों को विशेष विषय के रूप में लेना चाहिए उनको जनरलाइज नहीं चाहिए। इसका दूसरा पक्ष यह है कि मातृभाषा में सीखी हमारे देश की सुन्दर पिचाई जैसी प्रतिभाओं ने विश्व स्तर पर अपने ज्ञान का डंका बजवाया है। इसका श्रेय हमारी वैदिक शिक्षा पद्धति को है। अंग्रेजी हमारे देश की उपरोक्त प्रतिभाओं की द्वितीयक भाषा है और उन्होने अंगेजों और अमेरिकियों को उनके घर में हराया है तो उसके मूल में वैदिक शिक्षण है। अगर हम इस अपवादों को छोड़ दें तो भी यह पाया गया है कि प्रारम्भ में मातृभाषा में प्रशिक्षित बच्चों में अन्य भाषाएँ सीखने की क्षमता भी अधिक होती है ,जिन बच्चों को बहुभाषी बनाया जाता है उनकी प्रतिभा का विकास बहुत तीव्र गति से संभव होता है।
प्रसिद्ध भाषा वैज्ञानिक रवींद्रनाथ श्रीवास्तव लिखते हैं कि प्रयोजन की दृष्टि से मातृभाषा के दो आयाम हैं। पहले रूप में मातृभाषा का अर्थ है मां की भाषा अर्थात झूले-पालने की भाषा, जिसके द्वारा शिशु अपने भाषाई बोध एवं जीवन बोध का निर्माण करता है, लेकिन पश्चिम से अलग भारत जैसे बहुभाषी देश में मातृभाषा का एक और भी आयाम है। वह भाषा भी मातृभाषा है जो सड़क, बाजार और व्यापक सामाजिक जीवन की भाषा है, जिसके माध्यम से व्यक्ति विचार, संस्कार और जातीय इतिहास एवं परंपरा से जुड़ता है। जब हम अपनी मातृभाषा में बातचीत करने लग जाते हैं तो अपनापन होने लगता है , लोगों के साथ हमारा सहकारिता का भाव बढ़ जाता है. आजकल जो विचार और क्रिया में अंतर है वह मातृभाषा का समुचित आदर ना होने के कारण ही हो रहा है।’ विचार’ पढ़े- लिखे लोगों के हाथ में है जो प्राय मातृभाषा से विमुख रहते हैं और ‘ क्रिया ‘मातृभाषा भाषी अनपढ़ों के हाथ में हैं जिससे बहुत सी सामाजिक सुधार संबंधी योजनाएं निष्फल हो जाती हैं। भारतवर्ष में जो मौलिकता का अभाव है उसका बहुत कुछ कारण यह भी है कि हमारी शिक्षा का माध्यम हमारी मातृभाषा नहीं है। हम विचार किसी और भाषा में करते हैं और शिक्षा दूसरी भाषा में इसलिए हमारी शिक्षा हमारे मानसिक संस्थान का अंग नहीं बन पाती ,इसलिए वर्तमान शिक्षा द्वारा प्राप्त ज्ञान फलता -फूलता नहीं है। मातृभाषा माता के दूध के समान पवित्र और स्वास्थ्यवर्धक है, माता के सामान्य हमारी गुरु है और उसी के सामान स्नेहमयी है। तभी तो भारतेन्दु हरिश्चंद्र ने कहा था -‘ निज भाषा की उन्नति है सब उन्नति का मूल’।
बॉलीवुड अभिनेता सोनू सूद के खिलाफ मोगा थाना सिटी में चुनाव आचार संहिता के उल्लंघन के आरोप में केस दर्ज किया है। हालांकि अभिनेता सोनू सूद का कहना है कि उन्हें क्षेत्र में शिअद प्रत्याशी के समर्थकों के धमकाने की सूचना मिली थी। जिसकी पुष्टि के लिए वहां गया था। पुलिस ने एक गाड़ी को कब्जे में लिया है। इस पर सोनू सूद अपने साथियों के साथ सवार थे। हालांकि वह किसी और के नाम पर पंजीकृत है। गाड़ी में सोनू सूद के साथ मुंबई के उनके कुछ दोस्त भी थे। जबकि 18 फरवरी की शाम से ही बाहरी लोगों को विधानसभा छोड़ने का आदेश था।
बताया जा रहा है कि अभिनेता सोनू सूद पर यह कार्रवाई एसएसपी स्तर से हुई है। शिकायत में कहा गया है कि सोनू सूद मोगा के मतदाता नहीं हैं। जबकि सोनू का कहना है कि वह मोगा के जन्मे और यहीं पले-बढ़े हैं। गौरतलब है कि मतदान वाले दिन (20 फरवरी) सोनू सूद गांव लंडेके जा रहे थे। इसी दौरान उनकी गाड़ी को शिअद की शिकायत पर पुलिस ने रोक ली और अभिनेता को घर भेज दिया। अभिनेता पर मतदाताओं को प्रभाव में लेने का आरोप लगा। बताते हैं कि सोनू सूद को मतदान के दिन घर से बाहर न निकलने का निर्देश दिया गया था।
सोनू सूद से जब्त इंडेवर गाड़ी मोगा के दत्त रोड निवासी हरविंदर सिहं उर्फ काला के नाम पर बताई जा रही है। सूत्रों के अनुसार यह गाड़ी अक्सर ही सोनू सूद के मोगा स्थित आवास पर खड़ी रहती है। उधर, सोनू सूद ने इन आरोपों को नकार दिया और कहा कि उन्हें सूचना मिली थी कि शिअद प्रत्याशी बरजिंदर सिंह बराड़ के बूथ के समक्ष शिअद कार्यकर्ता उनके कार्यकर्ता को धमका रहे हैं और वहां रुपये बांटने पर कुछ विवाद हुआ था। जिसकी पुष्टि के लिए मैं वहां जा रहा था।
पुलिस अधिकारी हरप्रीत सिंह के अनुसार उन्हें मुखबिर से सूचना मिली थी कि सोनू सूद अपनी बहन मालविका के पक्ष में मुंबई के कुछ लोगों समेत प्रचार कर रहे हैं और उन पर प्रभाव बना रहे हैं। जब वह मौके पर पहुंचे तो सोनू सूद लंडेके गांव में एक मतदान केंद्र के बाहर कार में सवार थे। उधर, सोनू सूद विवादों के बाद शूट पर दक्षिण अफ्रीका रवाना हो गए हैं।
साइरस मिस्त्री के समूह को राहत देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने 26 मार्च, 2021 के अपने उस फैसले पुनर्विचार करने का फैसला किया है जिसमें वर्ष 2016 में उन्हें कंपनी के कार्यकारी अध्यक्ष व बोर्ड निदेशक से हटाने के टाटा संस के फैसले को बरकरार रखा गया था। इस मामले पर 9 मार्च को सुनवाई होगी।
चीफ जस्टिस एनवी रमण, जस्टिस एएस बोपन्ना और जस्टिस वी रामसुब्रमण्यम की तीन न्यायाधीशों की पीठ ने 2:1 के बहुमत से मिस्त्री समूह द्वारा दायर पुनर्विचार याचिका पर नौ मार्च को खुली अदालत में विचार करने पर सहमति व्यक्त की है। जस्टिस रामसुब्रमण्यम ने पुनर्विचार याचिका पर विचार करने के 15 फरवरी के इस आदेश से असहमति जताई है। सुप्रीम कोर्ट के नियमों के अनुसार पुनर्विचार याचिकाओं पर जजों के चैंबर के भीतर विचार किया जाता है।
सोमवार को जारी आदेश में बहुमत ने कहा है कि पुनर्विचार याचिकाओं की मौखिक सुनवाई की मांग करने वाले आवेदनों को स्वीकार किया जाता है। वहीं बहुमत के विचार से अलग जस्टिस रामसुब्रमण्यम ने कहा है, मुझे आदेश से सहमत होने में असमर्थता पर खेद है। मैंने पुनर्विचार याचिकाओं को ध्यान से देखा है और मुझे निर्णय की समीक्षा करने के लिए कोई वैध आधार नहीं मिला है। पुनर्विचार याचिकाओं में उठाए गए आधार इसके अंतर्गत नहीं आते हैं। इसलिए मौखिक सुनवाई की मांग करने वाले आवेदन खारिज किए जाने योग्य हैं।
अक्तूबर 2016 में मिस्त्री को चेयरमैन पद से हटाया गया मिस्त्री को 24 अक्तूबर 2016 को टाटा संस के चेयरमैन पद से अचानक बिना कोई कारण बताए हटा दिया गया था। हालांकि, बाद में कुछ प्रेस बयानों में समूह ने दावा किया कि मिस्त्री अपेक्षा के अनुसार प्रदर्शन नहीं कर पा रहे थे और उनकी निगरानी में टाटा संस को नुकसान हुआ। दूसरी ओर मिस्त्री के अनुसार घाटे के आंकड़ों में समूह की भारी लाभ कमाने वाली कंपनी टीसीएस से मिलने वाले लाभांश को शामिल नहीं किया गया, जो औसतन सालाना 85 फीसदी से अधिक था।
चित्रगुप्त आर्ट्स के बैनर तले बनी फिल्म ‘पलक’ अब बहुत जल्द ही सिनेदर्शकों तक पहुँचने वाली है। इस फिल्म की कहानी एक दिव्यांग लड़की की है जो दूसरे दिव्यांग लड़की का जीवन सुधारती है, उसके जीवन में रोशनी लेकर आती है। इस फ़िल्म के लिए ‘आय (नेत्र) बैंक’ (एन जी ओ) भी सहयोग कर रहा है। ‘ऑय बैंक’ के फाउंडर शैलेश श्रीवास्तव के द्वारा इस फिल्म के निर्माण में पुरा सहयोग दिया गया है। यह फ़िल्म राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर रिलीज होगी। जिसमें ऑय ब्रांड के कलाकारों का भी साथ होगा जिनमें से एक महानायक अमिताभ बच्चन भी हैं। इस फ़िल्म को रिलीज होने से पहले ही दो फिल्म पुरस्कारों द्वारा सम्मानित किया जा चुका है जो गर्व की बात है। फिल्म की कहानी में एक महत्वपूर्ण संदेश है साथ ही चार गीत भी है जिसमें कव्वाली, सैड सांग, सगाई का गीत और सोलो गीत मुख्य हैं। फिल्म में सभी रंगमंच से जुड़े अनुभवी कलाकार हैं जो ज्यादातर उत्तर भारतीय हैं। इस फिल्म में ‘नदिया के पार’ फेम अभिनेत्री शीला शर्मा, अभिनेता अतुल श्रीवास्तव, वेब सिरीज़ आश्रम की तूलिका बनर्जी, विक्रम शर्मा जैसे मंझे हुये कलाकार हैं। सिवान (बिहार) के मूल निवासी फिल्म निर्माता मधुप श्रीवास्तव ने संदेशपरक फिल्म ‘पलक’ के पहले भी प्रोडक्शन डिजाइन और निर्देशन जैसे कई काम फ़िल्म और टेलीविजन के लिए किये हैं। दूरदर्शन पर उनकी क्राइम बेस्ड सीरियल भी टेलीकास्ट हो चुकी है।
उनकी ‘उड़ेंगे ऊंची उड़ान’ नाम की धारावाहिक भी टेलीविजन पर आ चुकी है। निर्देशन के क्षेत्र में वह कई अवार्ड से भी सम्मानित हो चुके हैं। नवीनतम प्रोजेक्ट ‘पलक’ के बाद मधुप श्रीवास्तव अपनी चित्रगुप्त आर्ट्स के बैनर तले पुनः फिल्म निर्माण का कार्य करने जा रहे हैं जिसमें उनके सहयोगी बैनर युनिप्लेयर फिल्म्स है। यूनिप्लेयर फिल्मस की संचालिका अनामिका श्रीवास्तव हैं। बकौल मधुप श्रीवास्तव मौज़ूदा दौर में फिल्मों के प्रति लोगों के मन में काफी बदलाव आए हैं वो कुछ नया देखना चाहते हैं जिसमें मनोरंजन के साथ नई कहानी और संदेश भी हो और उनकी यह तुष्टि फिल्म ‘पलक’ से पूर्ण होगी। यह फिल्म एक संदेशपरक सामाजिक कहानी है जिसे सभी दर्शकों तक पहुंचाना जरूरी है। प्रस्तुति : काली दास पाण्डेय
अहमदाबाद बम धमाके के ४९ आरोपियों में ३८ को मृत्युदंड और शेष ११ को जीवन के अंतिम सांस तक जेल में रखने का आदेश विशेष न्यायालय ने दिया है।करीब १४ साल बाद, २००८ अहमदाबाद सीरियल बम ब्लास्ट केस में स्पेशल कोर्ट का फैसला आया है। इस बम कांड की रचना पांच राज्यों दिल्ली -मध्यप्रदेश -गुजरात -उत्तरप्रदेश और बिहार में की गयी थी।बम फोड़ने से पहले ईमेल द्वारा इसकी घोषणा आतंकियों ने की थी जो देश में हुए आतंकी घटनाओं में पहली बार तब देखा गया था। यह सीधे -सीधे भारतीय गणतंत्र को चुनौती थी।
हमारे देश में पहली बार एक साथ ३८ लोगों को फांसी की सजा सुनाई गई है। इसके पहले राजीव गांधी हत्या काण्ड में २० लोगों को फांसी की सज़ा सुनाई गई थी। पूरा ट्रायल साबरमती जेल के अंदर हुआ है।कुल ११०० गवाह थे ।इस बीच सैफू और उसके साथियों ने २१३ फीट लंबी सुरंग खोद कर भागने का भी प्रयास किया था , मगर सफल नहीं हो सके थे।आतंकियों को पता था कि घायलों को देखने तत्कालीन सीएम मोदी अस्पताल जाएंगे और वो उन्हे्ं भी निशाना बनाना चाहते थे. सरकारी वकील भी यही बात कह रहे हैं। २५ जुलाई २००८ को बंगलुरु और उसके ठीक दूसरे दिन अहमदाबाद में सीरियल बम फोड़कर आतंकियों ने भारतीय गणतंत्र को सकते में ला दिया था। बंगलुरु में एक की मृत्यु हुई और अहमदाबाद में ५६ की जानें गयीं। अहमदाबाद सीरियल ब्लास्ट एक आतंकी हमला था , हमले में शामिल जिन दोषियों को फांसी हुई सबसे पहले एक बार उनके नाम इस प्रकार हैं -: १ .पहला नाम है आतिफ अमीन ये इंडियन मुजाहिद्दीन से जुड़ा हुआ आतंकी था, आजमगढ़ मॉड्यूल का चीफ भी. जिसे दिल्ली पुलिस ने सिंतबर 2008 में हुए बाटला हाउस एनकाउंटर में मार गिराया था २ इमरान इब्राहीम शेख ३ . इकबाल शेख ४ . समसुद्दीन शाहबुद्दीन शेख ५ . गयासुद्दीन अब्दुल हलिम अंसारी ६ . मोहम्मद आरिफ ७ . अनीस अगरबत्तीवाला ८ . यूनुस महम्मद मंसूरी ९ . कमरुद्दीन चाँद मोहम्मद नागोरी १० . आमिल परवाज काजी सैफुद्दीन शेख ११ . अब्दुल करीम मुस्लिम १२ . इकबाल जहरुल नागोरी १३ . हाफिस हुसैन उर्फ अदनान मुल्ला १४ चौदहवां नाम है मोहम्मद साजिद, इसे भी बाटला हाउस एनकाउंटर में मार गिराया गया था १५ . मुफ्ती अबु बशर १६ . अब्बास समेजा १७ . जावेद अहमद सगीर अहमद शेख १८ . मोहमद इस्माइल १९ . अफजल उस्मानी २० . मोहम्मद आरिफ उर्फ जुम्मन शेख २१ . आसिफ उर्फ़ हसन बशीरुद्दीन शेख २२ . सरफुद्दीन कापडिया २३ . मोहम्मद सेफ २४ . जीशान अहमद २५’ जियाउर रहमान २६ मोहम्मद शकील २७ . मोहम्मद अकबर २८ . फजले रहमान उर्फ सलाउद्दीन दुर्रानी २९ . अहमद बावा उर्फ अबू बकर बरेलवी ३० . सरफुद्दीन उर्फ सलीम ३१ . सैफुर रहमान ३२ .अब्दुल करीम मुस्लिम ३३ . मोहम्मद तनवीर ३४ . राजा अय्यूब शेख ३५ . मोहम्मद मुबीन ३६ मोहम्मद रफीक ३७ . तौसीफ खान ३८ . मोहम्मद आरिफ ये कुल 38 दोषी हैं जिसे अहमदाबाद की स्पेशल कोर्ट ने फांसी की सजा सुनाई है.
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गोधरा काण्ड के बाद मुस्लिम आतंकियों ने मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को मार डालने की बड़ी कोशिश की। अहमदाबाद बम कांड का लक्ष्य मोदी थे और उसमें ५६ लोग मारे गए और २०० लोग घायल हुए थे। सबसे अचरज की बात है कि पहली बार पूर्व सूचना देकर बम फोड़े गए । अगर दुर्भाग्य से आतंकी सफल हो जाते तो भारत को ‘बनाना कंट्री ‘ विश्व स्तर पर सिद्ध करने की आवश्यकता फिर कभी नहीं होती। आजमगढ़ जिले (उत्तरप्रदेश ) के सरायमीर के अबू बशर को अहमदाबाद सीरियल ब्लास्ट का मास्टर माइंड माना गया। इसके अलावा आजमगढ़ के मोहम्मद सैफ, मोहम्मद आरिफ, शकीब निसार और शैपुर रहमान भी दोषी पाया गया है ।आजमगढ़ के ही रहने वाले पांच को मौत की सजा दी गई है, जबकि तीन अन्य को बरी कर दिया गया है। अहमदाबाद सीरियल ब्लास्ट में सजा सुनाए जाने के बाद आजमगढ़ का नाम सामने आया है। बाटला हाउस एनकाउंटर में भी आजमगढ़ का कनेक्शन सामने आया था।सराय मीर के निवासी मोहम्मद यासिर ने कहा कि यह एक स्थानीय अदालत की ओर से कठोर निर्णय है। हम निश्चित रूप से उच्च न्यायालय का रुख करेंगे।
बाटला हाउस एनकाउंटर के बाद आजमगढ़ को एक आतंक का केंद्र बताया गया क्योंकि मारे गए दो संदिग्ध और गिरफ्तार किए गए तीन सभी जिले के सराय मीर इलाके के संजरपुर गांव के थे।बाटला हाउस एनकाउंटर के बाद गिरफ्तार किए गए इंडियन मुजाहिदीन (IM) के चार आतंकवादी २००८ के अहमदाबाद सीरियल बम विस्फोटों में मौत की सजा पाने वालों में शामिल हैं। चार अन्य दोषी उसी साल दिल्ली सीरियल बम विस्फोट की साजिश में शामिल थे।पुलिस की ओर से दाखिल चार्जशीट में कहा गया था कि तीन आतंकवादी २२ जुलाई को अहमदाबाद में विस्फोट करने के लिए पहुंचे थे। इनके पहुंचने के तीन दिन बाद ९ दूसरे आतंकवादी भी पहुंचे। इन सभी ने बम लगाए और उसी शाम को वापस ट्रेन पकड़ ली। विस्फोटों की जांच के दौरान पता चला कि आतंकवादी बटला हाउस में छिपे हुए हैं और बाद में उसी साल सितंबर में मुठभेड़ हुई।
२६ जुलाई २००८ को जब कुछ न्यूज़ एजेंसियों और पत्रकारों को एक ई -मेल आया (जो अनजान जगह से भेजा गया था) तो मजाक मान अधिकांश ने उसे पढ़ने की भी आवश्यकता नहीं समझी क्योंकि ई -मेल में लिखा गया था कि हम नरेंद्र मोदी को बता देंगे की उसकी औकात क्या है ।भेजने वाले की जगह लिखा था- IM (आई एम मतलब इंडियन मुजाहिदीन) मगर शाम होते -होते कहर बरप चुका था। यश व्यास तब सिर्फ १० वर्ष का था। उसका पूरा परिवार अहमदाबाद बम धमाके की चपेट में आ गया। उसके पिता और भाई की मौत हो गई, जबकि वह महीनों असरवा इलाके में एक अस्पताल में भर्ती रहा। वह आज २४ साल का हो गया है। विज्ञान में स्नातक की पढ़ाई कर रहा है, लेकिन उसकी आंखों के सामने आज भी १३ साल पहले की घटना घूमती है। यश व्यास की तरह कई लोगों ने अपनों को आंखों के सामने तड़पते, कर्राहते और मरते देखा।ब्लास्ट में घायल हुए यश ने बताया कि वह विस्फोट में ५० प्रतिशत से ज्यादा जल गए थे। उन्हें चार महीने तक आईसीयू में रखा गया। वह आज भी पूरी तरह से ठीक नहीं हो पाए हैं। उनके सुनने की क्षमता कम हो गई थी। यश के बड़े भाई १२ साल के थे, पिता के साथ वह भी इस धमाके की चपेट में आ गए थे। अपनी मां और दादी के साथ वह अकेले परिवार में जिंदा बचे। मां को उनके इलाज से लेकर पालने-पोसने और पढ़ाने में काफी संघर्ष करना पड़ा। उनके पिता दुष्यंत व्यास सिविल अस्पताल में कैंसर चिकित्सा सुविधा में लैब टेक्नीशन थे।दुष्यंत अपने दोनों बेटों को साइकिल चलाना सिखाने के लिए अस्पताल के एक खुले मैदान में ले गए थे। शाम करीब साढ़े सात बजे थे। उनके पिता को पता चला कि विस्फोट पीड़ितों को एम्बुलेंस में लाया जा रहा है। वह सिविल अस्पताल के ट्रॉमा वॉर्ड के पास पहुंचे, लेकिन तभी एक तेज आवाज के साथ विस्फोट हुआ। उसके बाद आंखों के सामने सब बिफर गया।
बीजेपी नेता प्रदीप परमार ने बताया कि वह भी इस ब्लास्ट में घायल हुए थे। वह असहनीय दर्द से कराह रहे थे। डॉक्टरों ने उनके शरीर को और संक्रमण से बचाने के लिए पैर काटने का फैसला किया लेकिन सौभाग्य से उनका पैर काटने की नौबत नहीं आई। हालांकि आज भी उनके पैरों में घावों के गहरे निशान नजर आते हैं। उन्होंने बताया कि वह असरवा इलाके में हुए ब्लास्ट पीड़ितों से मिलने सिविल अस्पताल पहुंचे थे, जहां ब्लास्ट हुआ और वह भी चपेट में आ गए। पुराने शहर की जमालपुर-खड़िया सीट से भाजपा के पूर्व विधायक भूषण भट्ट ने याद किया कि कैसे यहां के रायपुर चाकला इलाके में एक विस्फोट के बाद वह बाल-बाल बचे थे। उन्होंने कहा, ‘शनिवार का दिन था…मैं और भाजपा के कुछ अन्य स्थानीय कार्यकर्ता एक सैंडविच विक्रेता के ठेले के पास बैठे थे। अचानक, पास स्थित एक मेडिकल दुकान के पास एक विस्फोट हुआ और लोग उस जगह की ओर भागने लगे जहां हम बैठे थे। मैं और अन्य कर्मचारी उठे और दुकान के पास जाकर देखने लगे कि क्या हुआ है।’ सैंडविच विक्रेता की पत्नी, हसुमती कादिया, अपने पति के लिए कुछ घर का बना नाश्ता लेकर आई और एक मेज के पास बैठ गई जहां भट्ट कुछ मिनट पहले बैठे थे। उन्होंने कहा, ‘कुछ समय बाद, उस टेबल के पास एक और विस्फोट हुआ, जिसमें हसुमतिबेन की मौत हो गई। पास की एक दुकान के एक अन्य कर्मचारी अंकित और तीन अन्य की मौके पर ही मौत हो गई।’ भट्ट ने कहा कि विस्फोट के बाद, यहां के लोग घायलों को उनके स्कूटर पर, और ऑटो-रिक्शा और एम्बुलेंस में ले गए।
अहमदाबाद में लगातार २१ बम धमाके हुए ,एक- के- बाद एक ,७० मिनट के अंदर , सब पूरी तरह योजनाबद्ध । उसमें ५६ लोग मारे गए और २०० लोग घायल हुए थे। सबसे अचरज की बात है कि पहली बार सूचना देकर बम फोड़े गए । आतंकवादी जानते थे कि बाज़ार में बम- विस्फोट होने के बाद घायलों को अस्पताल ले जाया जाएगा और इतनी बड़ी दुर्घटना होने के कारण राज्य के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी अस्पताल अवश्य आएंगे इसलिए उन्होंने उस इलाके के अस्पताल में पहले से दो कारों में विस्फोटक सामग्री जमा कर रखी थी।जैसे ही घायलों को लेकर एम्बुलेंस, टेंपो,कार ,बस वहां पहुंचे और घायलों को स्ट्रेचर पर लाद कर अंदर ले जाया जाने लगा वहाँ विस्फोट हुए और कुल ३६ घायलों की मृत्यु सिर्फ अस्पताल में हो गई । ये विभत्सतम और अकल्पनीय था – अस्पताल में विस्फोट !! ऐसा तो सीरिया और फिलिस्तीन में भी नहीं होता है , लेकिन यह अहमदाबाद में हुआ।
बम विस्फोट मणिनगर इलाके में हुआ था जो नरेन्द्र मोदी का विधान सभा क्षेत्र था ।जो मेल भेजा गया था उसके आई पी एड्रेस की जांच की गई तो पता चला कि एक पब्लिक लाइब्रेरी के फ्री वाई -फाई से वह भेजा गया है और IM का मतलब था इंडियन मुजाहिदीन जो कि सिमी के बैन होने के बाद बना नया संगठन था। हांलांकि खुफिया एजेंसियों को पता था कि यह सिर्फ दुनिया की नजरों में धूल झोंकने की कवायद थी असल खिलाड़ी तो लश्कर का था।जांच शुरू हुई तो कहीं कोई सुराग नहीं मिला।केंद्रीय और स्थानीय एजेंसी बहुत हाथ पैर मार रही थी पर कहीं कुछ नहीं, कोई लीड नहीं मिल रही थी। रोड चेकपोस्ट, होटलों,लौजों की तलाशी, मस्जिदों की जांच के बाद भी कुछ नहीं मिला ऐसे ही हताशा व् निराशा के काल में भरुच से एक पुलिस कॉन्स्टेबल का फोन आया तो सबके आँखों में बिजली कौंध गयी।
भरूच के एक कांस्टेबल याकूब अली ने विशेष जांचदल के प्रमुख (एस आई टी चीफ) को फोन किया कि जिन गाड़ियों में बम रखे गए थे तथा जिनकी फोटो समाचार- पत्रों में छपी है उन्हें उसने भरूच में एक हफ्ते पहले देखा है। टीम भरूच पहुंची और याकूब अली के साथ बिस्मिल्लाह लौज गई जहां दोनों कारें खड़ी देखी गई थीं ।लौज के मालिक ने बताया कि टूरिस्ट आए थे जिन्होंने दो कमरे किराये पर लिये थे; उन्ही की गाड़ियां थीं। दोनों कमरों की बारीकी से जांच की गई , सबके पहचानपत्र भी नकली थे।सी सी टी वी का चलन था नहीं, मोबाइल फोन भी उतना ज्यादा नहीं चल रहा था। मगर उनमें से एक आदमी ने होटल के फोन से एक कौल किया था जिसका पेमेंट चेक आउट के समय बिल के साथ दिया था। जाँच से पता चला कि वह फोन आजमगढ़ किया गया था । और जब आजमगढ़ के उस फ़ोन मालिक के घर पर पुलिस पहुंची तो मिल गया सफदर नागौरी उर्फ सैफू इंडियन मुजाहिदीन का सरगना…. फिर धीरे- धीरे सब पकड़े गए ।आठ लोग तो आजमगढ़ के ही हैं।
नवभारत टाइम्स (मुंबई ) के क्राइम बीट पर लगभग ३० वर्षों से कार्यरत सुनील मल्होत्रा ने लगातार एक सप्ताह तक अहमदाबाद बमकांड की रिपोर्टिंग कर सबको हतप्रभ कर दिया था। वे बताते हैं -‘कल जब अहमदाबाद कोर्ट ने ३८ लोगों को फांसी की सजा सुनाई और ११ को आजीवन कारावास दिया, तो अपने आप वह पुराने दिन याद आ गए। सोचा, उन संस्मरण को शेयर करूं, क्योंकि अहमदाबाद केस का सीधा कनेक्शन मुंबई से था और हर पत्रकार की तरह मुझमें भी तब कुछ एक्सक्लूसिव पाने की भूख थी। दिप्तीमान तिवारी उन दिनों मुंबई मिरर में मुंबई में थे, इन दिनों इंडियन एक्सप्रेस (दिल्ली) में है। वह किसी स्टोरी के बारे में मुझसे ऑफिस में या प्रेस रूम में बात कर रहे थे। मैंने उन्हें मुंबई क्राइम ब्रांच के एक अधिकारी का नाम और मोबाइल नंबर दिया और कहा कि यह अधिकारी आपकी स्टोरी में बहुत मदद कर सकते हैं। दो तीन दिन बाद मुंबई मिरर में वह स्टोरी पब्लिश हुई। उस अधिकारी का नाम भी । क्राइम ब्रांच के उस अधिकारी ने मुझसे कहा कि मेहरोत्रा जी, क्या आपने मुंबई मिरर में मेरी स्टोरी पढ़ी? मैंने जवाब हां में दिया, लेकिन साथ ही मुस्करा भी दिया । वह अधिकारी बोले, आप मुस्करा क्यों रहे हैं ? तब मैंने उनसे कहा, कि आपका मोबाइल नंबर मैंने ही तिवारी को दिया था।जवाब में वह अधिकारी बोले- बदले में मैं आपको १५ दिन में एक एक्सक्लूसिव खबर दूंगा । मैंने जवाब में उस अधिकारी से कहा कि राकेश मारिया के क्राइम ब्रांच चीफ रहते आप मुझे एक्सक्लूसिव खबर देंगे, मुझे संदेह है। उस अधिकारी ने फिर वादा किया कि मुझ पर यकीन करो। लगभग १५ दिन बाद मुंबई पुलिस प्रेस रूम से फोन आया कि आज शाम पांच बजे ( या चार बजे)आजाद मैदान पुलिस क्लब में मुंबई क्राइम ब्रांच की प्रेस कॉन्फ्रेंस है। आजाद मैदान पुलिस क्लब में प्रेस कॉन्फ्रेंस का मतलब ही होता है कि बड़ा मामला है। बहरहाल, शाम को वहां पहुंचे, तो क्राइम ब्रांच चीफ राकेश मारिया वहां मौजूद थे। मुंबई पुलिस कमिश्नर हसन गफूर और एटीएस चीफ हेमंत करकरे भी आए थे।उस पहली प्रेस कॉन्फ्रेंस में क्राइम ब्रांच के वह अधिकारी भी मिल गए । मेरा उनसे सामना हुआ, तो मैंने उनसे कहा कि १५ दिन पहले क्या इसी एक्सक्लूसिव खबर की बात आप कर रहे थे? वह बोले, हां । मैंने उन्हें याद दिलाया कि मैंने तब जवाब में आपसे क्या कहा था? वह बोले, चिंता न करो, तुम्हें एक्सक्लूसिव खबर ही दूंगा, बस यहां खामोश रहो। प्रेस कॉन्फ्रेंस खत्म होते -होते करीब ६ बज गए। उसके बाद जैसा कि बड़े केसों से जुड़ी प्रेस कांफ्रेंस में होता है, पत्रकार प्रेस कांफ्रेंस खत्म होने के बाद केस के इन्वेस्टिगेशन से जुड़े अधिकारियों को घेर लेते हैं । मेरा सोर्स अधिकारी भी तमाम पत्रकारों से घिरा हुआ था। करीब सवा सात, साढ़े सात बजे वह अधिकारी आजाद मैदान पुलिस क्लब से बाहर निकला। लेकिन मेरी टेंशन खत्म नहीं हुई, बल्कि और बढ़ गई। कारण? उस अधिकारी के साथ और भी अधिकारी थे। वह आगे चल रहे थे, मैं पीछे चल रहा था। अखबार की डेडलाइन का अलग टेंशन था। मैंने अपने सोर्स अधिकारी को तब पीछे से जोर से आवाज दी–सर। उन्होंने मुझे लगभग अनसुना का ड्रामा करते हुए आगे से पीछे अपना हाथ हिलाया और इशारा किया कि बस, मेरे पीछे -पीछे चलते रहो। मैं एक्सक्लूसिव स्टोरी की भूख में वैसा ही करता रहा। कुछ मिनट बाद मेरा सोर्स अधिकारी अन्य अधिकारियों और मुझे बीच रास्ते छोड़कर एसबी वन के ऑफिस में घुस गया। मुझे बहुत गुस्सा आया। लगा, इस अधिकारी ने मुझे पोपट बना दिया है। कुछ मिनट बाद मैंने उन्हें फोन लगाया, जवाब में एसबी वन से बाहर निकलते उनका चेहरा सामने आया। वह बोले कि उन अधिकारियों से खुद को अलग करने के लिए टॉयलेट जाने के बहाने वह जानबूझ कर एसबी वन गए थे। रात के करीब पौने आठ बजे रहे थे। वह मुझे इसके बाद एसबी वन ऑफिस से कुछ दूर एक अंधेरी जगह पर ले गए। सिर्फ १५ मिनट बात की और सिर्फ इतनी रिक्वेस्ट की कि १५ दिन तक तुम मुझे न कॉल करना और न ही ऑफिस आना, नहीं तो सारे बॉस समझ जाएंगे कि यह एक्सक्लूसिव ख़बर किसने दी? मैं इसके बाद लगभग दौड़ते -दौड़ते ऑफिस आया, क्योंकि एक्सक्लूसिव खबर देने के साथ डेडलाइन का प्रेशर मुझ पर बहुत ज्यादा था। पर आप लोग यकीन मानिए, अपने सोर्स अधिकारी से उस १५ मिनट की बातचीत से मैंने करीब एक हफ्ते तक रोज नई स्टोरी दीं। अब तो मैं बूढ़ा हो गया हूं, लेकिन वह मेरी पत्रकारिता के बेहद रोमांच भरे दिन थे। मुंबई के लगभग सभी पत्रकारों ने इंडियन मुजाहिद्दीन से जुड़े उस केस को कई दिनों तक कवर किया था। उन दिनो एनडीटीवी में शैलेंद्र मोहन जी थे, जिनके सेंट्रल एजेंसियों में अच्छे सोर्स थे। उस केस की रिपोर्टिंग के दौरान, शायद PTC करते वक्त वह घायल हो गए थे और कई दिन तक अस्पताल में भर्ती थे।
सफदर नागोरी उन ३८ दोषियों में से एक है, जिन्हें गुजरात की एक अदालत ने २००८ में अहमदाबाद में हुए सीरियल ब्लास्ट मामले में शुक्रवार को मौत की सजा सुनाई। नागोरी और अन्य आरोपियों पर आतंकी वारदात के जरिए ५६ लोगों की जान लेने का दोष है। मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल के सेंट्रल जेल में बंद नागोरी को सजा मिलने के बाद भी अपने किए पर कोई पछतावा नहीं है। उसने कहा है कि भारत का संविधान उसके लिए कोई मायने नहीं रखता। अभियोजन पक्ष के अनुसार मध्य प्रदेश के उज्जैन का रहने वाला नागोरी (५४ ) प्रतिबंधित स्टूडेंट्स इस्लामिक मूवमेंट ऑफ इंडिया (सिमी) से जुड़ा था और अहमदाबाद धमाकों का मुख्य साजिशकर्ता था। जेल अधिकारियों के मुताबिक, नागोरी ने वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के माध्यम से अहमदाबाद की विशेष अदालत में हुई सुनवाई में हिस्सा लिया।
भोपाल सेंट्रल जेल के अधीक्षक दिनेश नरगावे ने बताया कि नागोरी ने मौत की सजा सुनाए जाने के तुरंत बाद कहा, ‘संविधान मेरे लिए कोई मायने नहीं रखता। मेरे लिए कुरान के फैसले सबसे ऊपर हैं।’ सिमी के महासचिव रह चुके नागोरी पर अहमदाबाद धमाकों के लिए विस्फोटकों का इंतजाम करने और सिमी की अन्य अवैध गतिविधियों के लिए धन इकठ्ठा करने का आरोप लगाया गया था।सूत्रों के मुताबिक नागोरी लगभग १०० आपराधिक मामलों में आरोपी है। उसके विरुद्ध उज्जैन के महाकाल पुलिस स्टेशन में १९९७ में पहला आपराधिक मामला दर्ज किया गया था। नागोरी को २६ मार्च २००८ को इंदौर के एक फ्लैट से गिरफ्तार किया गया था और तब से वह जेल में कैद है। नागोरी के पिता मध्य प्रदेश पुलिस की अपराध शाखा में सहायक उप-निरीक्षक थे। २६ जुलाई २००८ को अहमदाबाद में ७० मिनटों के बीच २२ धमाके हुए थे। जिधर देखो, उधर तबाही का मंजर था। सिविल अस्पताल हो, नगर निगम का एलजी अस्पताल, बसें, पार्किंग में खड़ी साइकलें, कारें… ५६ से ज्यादा लोगों की मौत हो गई। २०० से ज्यादा घायल हुए। कुल २४ बम लगाए गए थे। कलोल और नरोदा में लगा बम नहीं फटा। अदालत ने ४९ में से ३८ दोषियों को मौत की सजा सुनाई है। बाकी ११ दोषियों को उम्रकैद की सजा मिली है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हरदोई में आयोजित एक चुनावी रैली को संबोधित करते हुए आतंकवाद का मुद्दा उठाया और कहा,‘एक समय था जब देश में हर सप्ताह बम धमाके होते थे और हिंदुस्तान के कितने शहरों में निर्दोष नागरिक मारे गये।मैं उस दिन को भूल नहीं सकता जब मैं गुजरात का मुख्यमंत्री था और अहमदाबाद में सीरियल बम धमाके हुए थे… मैंने उस खून से गीली हुई मिट्टी को उठाकर संकल्प लिया था कि मेरी सरकार इन आतंकवादियों को पाताल से भी खोज कर सजा देगी।अहमदाबाद धमाके में अदालत के फैसले का जिक्र करते हुए मोदी ने कहा, ‘आज मैं विशेष तौर पर इसका जिक्र इसलिए कर रहा हूं क्योंकि कुछ राजनीतिक दल ऐसे ही आतंकवादियों के प्रति मेहरबान रहे हैं और ये राजनीतिक दल वोट बैंक के स्वार्थ में आतंकवाद को लेकर नरमी बरतते रहे हैं।’ खैर मोदी मुख्यमंत्री से प्रधानमंत्री बन चुके हैं. वो अस्पताल गए थे, मगर धमाकों के बाद। अहमदाबाद धमाकों को नहीं रोका जा सका। उसकी पीड़ा और वेदना आज भी लोगों के आंखों में तैर रही है , अस्पताल में हुए धमाकों में जो घायल हुए आज फैसले से बहुत खुश हैं जबकि सजा पाए आतंकियों पास अभी उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय के विकल्प हैं।
” घर में रहते हुए मैं वह काम नहीं कर सकता, जो करना चाहता हूं। देश में नास्तिकता, हिंसा और वाम-मार्ग के कारण बड़ी बुरी-बुरी बातें फैल रही है। मैं अज्ञान के अंधेरे को दूर करना चाहता हूं। घूम-घूमकर कृष्णभक्ति का सन्देश सारे देश को सुनाना चाहता हूं। जात-पांत के बंधनों से लोगों को निकालना चाहता हूं।
निमाई ने झट अपनी पुस्तक गंगाजी में फेंक दी। बोले, “यह तो एक पुस्तक है। मित्र के लिए मैं अपने प्राण भी दे सकता हूं।”
“मेरे यश और वेश से डाह करनेवालों को सीधे रास्ते पर लाने का केवल एक ही उपाय है और वह है त्याग। त्याग करके ही मैं दुनिया की भलाई में लग सकता हूं”।
जन्म: 18 फ़रवरी सन् 1486 जन्मस्थान :मायापुर (नादिया / नवद्वीप , पश्चिम बंगाल )
नाम : विश्वम्भर मिश्र ,निमाई ,गौर हरि, गौर सुंदर ,गौरांग महाप्रभु , चैतन्य महाप्रभु माता : शुचि देवी पिता : जगन्नाथ मिश्र गुरु : केशव भारती और माधवेन्द्र पुरी
स्थापना : वैष्णव गौड़ीय सम्प्रदाय , वृन्दावन की पुनर्रचना
मृत्यु: सन् 1534
भक्तिकाल के प्रमुख संतों में से एक चैतन्य महाप्रभु ने वैष्णवों के गौड़ीय संप्रदाय की आधारशिला रखी और भजन गायकी की एक नयी शैली को जन्म दिया। समाज से जाति-पांत, ऊँच-नीच की भावना को दूर करने की शिक्षा देनेवाले चैतन्य महाप्रभु का जन्म 18 फ़रवरी सन् 1486 की फाल्गुन शुक्ल पूर्णिमा को पश्चिम बंगाल के नवद्वीप (नादिया) नामक उस गांव में हुआ, जिसे अब ‘मायापुर’ कहा जाता है।इनका जन्म संध्याकाल में सिंह लग्न में चंद्र ग्रहण के समय हुआ था। इनके पिता का नाम जगन्नाथ मिश्र व मां का नाम शचि देवी था। कहते हैं कि जगन्नाथ -शुचि के एक- के- बाद एक करके आठ कन्याएं पैदा हुईं और मरती गईं। फिर एक लड़का पैदा हुआ। भगवान की दया से वह बड़ा होने लगा। उसका नाम उन्होंने विश्वरूप रखा। विश्व रूप जब दस बरस का हुआ तब उसके एक भाई और हुआ। माता-पिता की खुशी का ठिकाना न रहा। बुढ़ापे में एक और बालक को पाकर वे फूले नहीं समाये। कहते हैं, यह बालक तेरह महीने माता के पेट में रहा। उसकी कुंडली बनाते ही ज्योतिषी ने कह दिया था कि वह महापुरूष होगा। यही बालक आगे चलकर चैतन्य महाप्रभु हुआ।
प्रपंची मुसलमानों द्वारा जब हिन्दूओं को छल एवं बलपूर्वक गऊ -मांस खिलाकर धर्मच्युत किया जाता था उस परिवेश में चैतन्य महाप्रभु का प्रादुर्भाव हिंदुत्व को संजीवनी ही थी। चैतन्य महाप्रभु जैसे महान संतों ने जनसाधारण में’ हिंदुत्व के प्रति भक्ति और समर्पण’ तथा अपने ‘महान इतिहास एवं राष्ट्र के प्रति गर्व’ की भावना जगाये रखी। इसके अलावा उन्होने विधवाओं को ज्ञानमार्ग पर लाकर उनका जीवन सफल बनाया तथा सामाजिक सद्भाव को सुदृढ़ किया।
चैतन्य के जन्मकाल के कुछ पहले सुबुद्धि राय गौड़ के शासक थे। उनके यहाँ हुसैनख़ाँ नामक एक पठान नौकर था। राजा सुबुद्धिराय ने किसी राजकाज को सम्पादित करने के लिए उसे रुपया दिया। हुसैनख़ाँ ने वह रकम खा- पीकर बराबर कर दी। राजा सुबुद्धिराय को जब यह पता चला तो उन्होंने दंड स्वरूप हुसैनख़ाँ की पीठ पर कोड़े लगवाये। हुसैनख़ाँ चिढ़ गया। उसने षड्यन्त्र रच कर राजा सुबुद्धिराय को हटा दिया। अब हुसैन ख़ाँ पठान गौड़ का राजा था और सुबुद्धिराय उसका कैदी। हुसैनख़ाँ की पत्नी ने अपने पति से कहा कि पुराने अपमान का बदला लेने के लिए राजा को मार डालो। परन्तु हुसैनख़ाँ ने ऐसा न किया। वह बहुत ही धूर्त था, उसने राजा को जबरदस्ती मुसलमान के हाथ से पकाया और लाया हुआ भोजन करने पर बाध्य किया। वह जानता था कि इसके बाद कोई हिन्दू सुबुद्धिराय को अपने समाज में शामिल नहीं करेगा। इस प्रकार सुबुद्धिराय को जीवन्मृत ढंग से अपमान भरे दिन बिताने के लिए ‘एकदम मुक्त’ छोड़कर हुसैनख़ाँ हुसैनशाह बन गया। चैतन्य प्रभु ने ‘कृष्ण महामंत्र ‘ देकर कालांतर में सुबुद्धिराय का उद्धार किया।
अस्तु ,उन दिनों देश में छूआछूत ओर ऊंच-नीच का भेद बहुत था।विशेषतः वैष्णव और ब्राह्मण अपने या अपने घरवाले के ही हाथ का पका हुआ खाना खाते थे।एक दिन एक ब्राह्मण निमाई के यहां आया।पिता जगन्नाथ मिश्र ने उसकी बड़ी आवभगत की। शचीदेवी ने उन्हें सीदा ( बिना पकाया हुआ भोज्य सामग्री ) दिया।ब्राह्मण ने चौका लीप-पोत कर तैयार किया और खाना बनाया। खाने से पहले वह आंखें बन्द करके विष्णु भगवान को भोग लगाने लगा। तभी निमाई ने आकर उसकी थाली में से खाना खाना शुरू कर दिया। यह देखकर ब्राह्मण चिल्लाने लगा।उनकी आवाज सुनते ही मिश्रजी और शचीदेवी दौड़े आये। मिश्रजी ने निमाई को पकड़ लिया और उन्हें पीटना ही चाहते थे कि ब्राह्मण ने छुड़ा दिया।मिश्रजी और शचीदेवी के आग्रह पर ब्राह्मण ने दूसरी बार भोजन तैयार किया। निमाई को अलग जाकर रस्सी से बांध दिया, पर भगवान को भोग लगाते समय फिर वही घटना घटी। निमाई रस्सी खोलकर आ गये और थाली में से चावल खाने लगे। अब की बार मिश्रजी के गुस्से का ठिकाना न रहा। वह मारने को लपके, पर ब्राह्मण ने उन्हें रोक दिया। उसी समय पाठशाला से पढ़कर निमाई के बड़े विश्वरूप आ गये। सबने मिलकर ब्राह्मण से फिर खाना बनाने का आग्रह किया।ब्राह्मण मान गया। विश्वरूप और माता ने निमाई के रस्सी से बांधकर अपने पास बिठा लिया। कहते हैं, जब ब्राह्मण ने भोजन बनाकर भगवान विष्णु को भोग लगाया तो भगवान चतुर्भुज रूप में उसके सामने आ खड़े हुए और बोले, “तुम्हारे बुलाने पर मैं बालक के रूप में दो बार तुम्हारे पास आया, पर तुम पहचान नहीं पाये। अब जो इच्छा हो, मांगो।” ब्राह्मण गदगद् हो गया। बस, मुझे यही वर दीजिए कि आपकी मूर्ति सदा मेरे हृदय में बसी रहे।” विष्णु भगवान ने कहा, “ऐसा ही होगा।” ब्राह्मण ने बड़ी खुशी से भोजन किया। फिर वह निमाई को देखने गया। वह सो रहे थे। ब्राह्मण ने मन-ही-मन उन्हें प्रणाम किया और अपने घर लौट गया।जिसके घर से जो कुछ मिलता, निमाई भी वही खा लेते थे । पड़ोसिन प्यार से उन्हें खिलातीं। कोई-कोई कहतीं, “निमाई ब्राह्मण होकर हर किसी का छुआ खा लेता है।” निमाई हंसकर कहते, “हम तो बालगोपाल हैं। हमारे लिए ऊंच-नीच क्या! तू खिला, हम तेरा खा लेंगे।”
Chaitnya Mhaprabhu
एक दिन की बात है। बालक के स्वभाव की जांच करने के लिए पिताजगन्नाथ मिश्र ने उसके सामने खिलौने, रुपये और भगवतगीता रख दी। बोले, “बेटा, इनमें से कोई-सी एक चीज़ उठा लो।” बालक ने भगवतगीता उठा ली। पिता समझ गये कि आगे चलकर यह बालक भगवन का बड़ा भक्त होगा। एक बार निमाई काले नाग से खेलते हुए पाये गए।उनके चारों ओर सांप-कुंडली मार कर बैठा हुआ था ओर वह बड़े प्यार से उसके शरीर पर हाथ फेर रहे थे। लोगों को पक्का विश्वास हो गया कि हो-न-हो, इस बालक के शरीर में कोई महान आत्मा रहती है। निमाई बचपन से ही विलक्षण प्रतिभा संपन्न थे। साथ ही, अत्यंत सरल, सुंदर व भावुक भी थे। बाल्यावस्था में इनका नाम विश्वंभर था, परंतु सभी इन्हें ‘निमाई’ कहकर पुकारते थे। गौरवर्ण का होने के कारण लोग इन्हें ‘गौरांग’, ‘गौर हरि’, ‘गौर सुंदर’ आदि भी कहते थे।
निमाई जितने शरारती थे, बड़े भाई विश्वरूप उतने ही गम्भीर और अपने विचारों की दुनिया में खोये रहने वाले आदमी थे।विश्वरूप की उम्र इस समय १६-१७ साल की थी। माता-पिता विश्वरूप के विवाह की बात सोचने लगे, किन्तु उनकी लगन दूसरी ही ओर थी। मां-बाप ने जोर दिया तो अवसर पाकर एक दिन वह रात को घर से निकल गये और संन्यासी हो गये। बहुत ढूंढ़ने पर भी उनका पता न चला। मिश्रजी और शचोदेवी के दु:ख की सीमा न रही। निमाई पर भी इस घटना का बहुत असर पड़ा। वह भी अब गम्भीर रहने लगे।निमाई का मन अब पढ़ने की ओर झुका, पर पिता को उसमें रस न था। वह सोचते थे कि एक लड़का तो खो ही गया, कहीं दूसरा भी हाथ से न चला जाय। वह निमाई को पढ़ते देखते तो बहुत नाराज होते। पर निमाई जब पढ़ने पर ही तुले थे, तो उन्हें कौन रोक सकता था! वह पिता से छिपकर पढ़ते।इस समय उनकी अवस्था ग्यारह वर्ष की थी। इस छोटी-सी उम्र में ही उन्होंने बहुत-कुछ पढ़ डाला। पिता अपने पुत्र की चतुराई की बातें सुन-सुनकर बहुत खुश होते। पर भाग्य के आगे किसका बस चलता है! एक दिन अचानक जगन्नाथ मिश्र को जोर का बुखार चढ़ा और कुछ ही दिनों में वह चल बसे।घर पर दु:ख का पहाड़ टूट पड़ा। पर निमाई ने हिम्मत से काम लिया। अपने-आपको तो सम्भाला ही, मां को भी को भी धीरज बंधाया।
दुखी मां का अब निमाई ही सहारा थे। पढ़ने से जो समय बचता, उसमें वह माता की खूब सेवा करते।व्याकरण के साथ-साथ निमाई अब अन्य विषय भी पढ़ने लगे। धीरे-धीरे उनके ज्ञान की चर्चा चारों ओर होने लगी। उनकी उम्र सोलह साल की हो चुकी थी। लोग उन्हें ‘निमाई पंडित’ कहने लगे।निमाई के एक मित्र थे पं० रघुनाथ। वह उन दिनों एक पुस्तक लिख रहे थे। उनका विचार था कि इस पुस्तक को लिख लेने पर उस विषय का उनसे बड़ा विद्वान कोई नहीं होगा। तभी उन्हें पता लगा कि निमाई पंडित भी उसी विषय पर पुस्तक लिख रहे हैं। वह जानते थे कि निमाई इस विषय के पंडित हैं। वह उनके घर पहुंचे। रघुनाथ ने कहा, “सुना है, तुम न्याय पर कोई पुस्तक लिख रहे हो!” हंसते हुए निमाई ने कहा, “अजी, छोड़ो। तुम्हें किसी ने बहका दिया होगा। कहां मैं और कहां न्याय जैसा कठिन विषय ! मन-बहलाव के लिए वैसे ही कुछ लिख रहा हूं।” “फिर भी मैं उसे सुनना चाहता हूं।” रघुनाथ ने जोर देकर कहा।
“जैसी तुम्हारी इच्छा! चलो, गंगाजी पर नाव में सैर करेंगे और पुस्तक भी सुनायेंगे।”
दोनों गंगा-घाट पर पहुंचे और नाव में बैठकर घूमने लगे। निमाई ने अपनी पुस्तक पढ़नी शुरू की। सुनकर रघुनाथजी रोने लग गये।
“निमाई ने हैरानी से पूछा, “क्यों, क्या हुआ? रो क्यों रहे हो?”
“निमाई, मेरी बरसों की मेहनत बेकार गई। तुम्हारी इस पुस्तक के सामने मेरी पुस्तक पर कौन ध्यान देगा? अपनी जिस पुस्तक पर मुझे इतना गुमान था, वह तो इसके सामने कुछ भी नहीं है ” रघुनाथ ने कहा।
निमाई हंसने लगे। बोले, “बस इतनी-सी बात के लिए परेशान हो!” यह कहकर उन्होंने झट अपनी पुस्तक गंगाजी में फेंक दी। बोले, “यह तो एक पुस्तक है। मित्र के लिए मैं अपने प्राण भी दे सकता हूं।”
उस दिन के बाद से फिर निमाई पाठशाला में पढ़ने नहीं गये। घर पर ही पिता और भाई की किताबों से पढ़ने लगे।कुछ दिन बाद उन्होंने लड़कों को पढ़ाने के लिए एक पाठशाला खोली। धीरे-धीरे उसमें बहुत-से विद्यार्थी हो गये। उनमें कई तो उम्र में उनसे बड़े थे। निमाई अपने विद्यार्थियों को खूब मेहनत से पढ़ाते और मित्र की तरह उनसे प्रेमभाव रखते। माता के बहुत दबाव डालने पर उन्होंने पंडित बल्लभाचार्य की पुत्री लक्ष्मीदेवी से विवाह कर लिया। लक्ष्मीदेवी को वह बचपन से ही जानते थे।इन्ही दिनों नवद्वीप में एक पंडित आये। उन्हें अपने ज्ञान का बड़ा घमंड था, लेकिन निमाई के सामने उन्हें मुंह को खानी पड़ी। इससे निमाई का नाम और प्रचारित हो गया। उनकी पाठशाला विद्यार्थियों से भरी रहती। कुछ दिनों के लिए निमाई पूर्वी बंगाल की यात्रा पर गये। इसी बीच घर पर सर्पदंश से लक्ष्मीदेवी की मृत्यु हो गई। बेचारी मां को उस समय धीरज बंधानेवाला कोई न था। लौटने पर निमाई को जब यह समाचार मिला तो वह बहुत दुखी हुए। इसी तरह एक-दो बरस निकल गए। निमाई विद्वानों और माता की सेवा करते अपनी पाठशाला में छात्रों को पढ़ाते।अपनी मां का वह बहुत मान करते थे। माता की आज्ञा और आग्रह से उन्होंने पंडित सनातन मिश्र की कन्या विष्णुप्रिया से विवाह कर लिया। सूने घर में फिर चहल-पहल हो गई। विष्णुप्रिया के अच्छे स्वभाव के कारण धीरे-धीरे शचीदेवी और निमाई लक्ष्मीदेवी के विछोह का दु:ख भूल-सा गये।
गया जाकर बहुत-से लोग अपने पितरों का श्राद्ध करते हैं। इस बार नवद्वीप से गया आनेवालों में निमाई भी थे। वह वहां जाकर अपने पिता का श्राद्ध करना चाहते थे। गया में इस समय बड़ी भीड़ थी। माने हुए सिद्ध-महात्मा वहां आये हुए थे। वहीं पर संन्यासी माधवेन्द्र पुरी से निमाई की भेंट हुई। नवद्वीप में एक बार वह पहले भी मिल चुके थे। पर तब के और अब के निमाई में बड़ा अन्तर था। भेंट होते ही निमाई ने श्रद्धा से उनके चरण पकड़ लिये। संन्यासी ने उन्हें प्यार से आशीर्वाद दिया। निमाई बोले, “स्वामी! संसार की गति के साथ यह जीवन इसी तरह बीत जायगा। अब हमें भी कृष्ण-भक्ति दीजिये।” संन्यासी ने सरलता से कहा, “आप तो स्वयं कृष्णरूप हैं। पहुंचे हुए पंडित हैं। आपको कोई क्या दीक्षा देगा!”
निमाई के बहुत जोर देने पर माधवेन्द्र पुरी स्वामी ने उन्हें दीक्षा दे दी। ज्यों ही निमाई के कान में मंत्र फूंका गया, वह बेहोश हो गए और उसी हालत में चिल्लाने लगे, “अरे प्यारे कृष्ण, तुम कहां हो? मुझे भी अपने पास बुला लो।” होश आने पर अपने साथियों से बोले, “भैया, तुम घर लौट जाओ। हम तो अब कृष्ण के पास वृन्दावन जाते हैं।”
पर पुरी स्वामी ने उन्हें समझाकर कहा, “वृन्दावन बाद में जाना। पहले नवद्वीप में कृष्ण-भक्ति की गंगा बहाओ। पहले अपने यहां के लोगों का उद्धार करो।” गुरु की आज्ञा से निमाई नवद्वीप लौट आये।
गया से लौटने के बाद निमाई का मन पाठशाला में न लगा। वह हर समय कीर्त्तन में लीन रहने लगे। व्याकरण पढ़ाते-पढ़ाते श्रीकृष्ण की लीलाओं का वर्णन करने लगते, फिर कृष्ण-वियोग में फूट-फूटकर रोने लगते।धीरे-धीरे पाठशाला का अन्त हो गया। निमाई के कारण नवद्वीप के वैष्णवों में एक नई लहर आ गई। जोरों का कीर्त्तन होता। निमाई कीर्त्तन करते-करते नाचने लग जाते। उनके साथ-साथ और भी भक्त नाचने लगते।भक्तों की संख्या बढ़ने लगी। बिना जात-पांत के भेद के सब लोग उनके कीर्त्तन में शामिल होते थे। लोग उनको भगवान कृष्ण का अवतार मानने लगे।निभाई के विरोधी उन्हें नीचा दिखाने के उपाय सोचते रहते थे। बंगाल का यह इलाका उन दिनों गौड़ देश के नाम के नाम से प्रसिद्ध था। वहां पर मुसलमान बादशाह का राज्य था। राज्य की ओर से हर बड़े नगर में काजी की अदालत थी।एक बार उन्होंने काजी से शिकायत की कि उनके कीर्त्तन से हम बड़े परेशान हैं। वह शोर मचाकर राज को सोने नहीं देते और कीर्त्तन से हम बड़े परेशान हैं। वह शोर मचाकर रात को सोने नहीं देते और कीर्त्तन के बहाने बुरे-बुरे काम करते हैं। साथ ही उन्होंने मुसलमानों को कृष्ण भक्त बना लिया है। यह सुनते ही काजी जलभुन गया। उसने फौरन आज्ञा दी कि कहीं भी कीर्त्तन नहीं होगा। भक्तों ने आकर जब काजी की यह आज्ञा सुनाई तो निमाई पंडित मुस्कुराते हुए बोले , “घबराते क्यों हो? उन्होने नगर में ढिंढोरा पिटवा दिया कि निमाई पंडित आज शहर के बाजारों में कीर्त्तन करता हुआ काजी के मकान के सामने जाएंगे और वहां कीर्त्तन करेंगे क्योंकि काजी साहब के उद्धार का समय आ गया है।” इस मुनादी को सुनकर लोगों की खुशी की कोई सीमा न रही। लोगों ने नगर के बाजार सजाये। दूसरे मत को माननेवाले लोगों ने भी अपने मकानों को सजाया। निमाई पंडित अपने भक्तों के साथ कीर्त्तन करते चले “हरिबोल ! हरिबोल !” जुलूस कीर्त्तन करता हुआ बाजारों से गुजरने लगा। निमाई प्रभु-भक्ति में लीन होकर नृत्य कर रहे थे। उनकी आंखों से कृष्ण-विरह में आंसू बह रहे थे। उन्हें देखकर विरोध करनेवालों के भी हृदय उनके चरणों में झुके जा रहे थे।
जनता में काजी की आज्ञा के खिलाफ जोश पैदा होने लगा। जनता चिल्लाने लगी, “काजी का मकान जला दो, काजी को मार दो।” लोग गुस्से में भरे हुए काजी के मकान की ओर बढ़ने लगे।निमाई पंडित कीर्त्तन में मस्त थे। जब भक्तों ने उन्हें लोगों के जोश की बात बतलाई तो उन्होंने कीर्त्तन बन्द कर दिया और गुस्से से भरी हुई जनता के सामने जाकर बोले, “काजी का बुरा करनेवाला मेरा बुरा करेगा। मैं काजी को प्रेम से जीतना चाहता हूं, डर दिखाकर नहीं। इसलिए आप मेरे काम में रुकावट न डालें।”
काजी डर के मारे अपने घर में छिपकर बैठा था। निमाई ने उसके नौकरों से कहा, “काजीसाहब को मेरे आने की खबर दो। उनसे कहो कि डर की कोई बात नहीं। वह मुझ पर यकीन करें। मेरे होते हुए उनका बाल भी बांका न होगा।” गांव के नाते काजी निमाई के मामा लगते थे। नौकरों के समझाने-बुझाने पर काजी बाहर आये।
निमाई पंडित ने प्यार से कहा, “मामाजी, भानजा मिलने आये और मामा मकान के द्वार बन्द करके अन्दर जा बैठे, यह भी कोई बात हुई!” काजी ने कहा, “तुम्हारे कीर्त्तन में रुकावट डालने का मुझे दु:ख हैं। मैं लोगों के बहकावे में आ गया था। अब तुम खूब कीर्त्तन करो, तुम्हें कोई नहीं रोकेगा।”
इस घटना से निमाई पंडित के हृदय में एक बड़ा परिवर्तन आने लगा। संन्यास लेने की इच्छा पैदा होने लगी। वह सोचते थे कि मेरे यश और वेश से डाह करनेवालों को सीधे रास्ते पर लाने का केवल एक ही उपाय है और वह है त्याग। त्याग करके ही मैं दुनिया की भलाई में लग सकता हूं। यह इच्छा जब उन्होंने भक्तों, अपनी माता और पत्नी के बताई तो सब रोने लगे। सबने उन्हें समझाने की कोशिश की, पर बेकार। निमाई पंडित चट्टान की तरह अटल थे।बाद में सबने उनकी बात मान ली। एक रात को माता और पत्नी को सोता छोड़ वह संन्यास लेने के लिए घर से निकल पड़े। घर से निकलकर वह केशव भारती की कुटी पर पहुंचे और उनसे दीक्षा देने की प्रार्थना की। उस समय निमाई की उम्र चौबीस साल की थी। केशव भारती ने उन्हें बहुत समझाया। कहा, “अभी तुम्हारी उम्र छोटी है। तुम्हारे कोई बाल-बच्चा भी नहीं है। इस हालत में तुम्हारे लिए संन्यास लेना ठीक नहीं होगा। जाओ, घर लौट जाओ।” निमाई ने हाथ जोड़कर कहा, “गुरुदेव, घर में रहते हुए मैं वह काम नहीं कर सकता, जो करना चाहता हूं। देश में नास्तिकता, हिंसा और वाम-मार्ग के कारण बड़ी बुरी-बुरी बातें फैल रही है। मैं अज्ञान के अंधेरे को दूर करना चाहता हूं। घूम-घूमकर कृष्णभक्ति का सन्देश सारे देश को सुनाना चाहता हूं। जात-पांत के बंधनों से लोगों को निकालना चाहता हूं। आप मुझ पर दया करें, मुझे दीक्षा दें।” केशव भारती कुछ सोचते हुए बोले, “अच्छा, निमाई पंडित, एक शर्त पर मैं तुम्हें दीक्षा दे सकता हूं। तुम अपनी माता और पत्नी से आज्ञा ले आओ।” निमाई ने कहा, “गुरूदेव उन दोनों ने मुझे आज्ञा दे दी है। मैं उनसे पहले ही पूछ चुका हूं।”
निमाई के बहुत कहने पर केशव भारती उन्हें दीक्षा देने को तैयार हो गए। इतने में निमाई को ढ़ूंढ़ते हुए नवद्वीप के अनेक भक्त वहां आ पहुंचे। वह बड़ा ही हृदयविदारक दृश्य था। यह सुनकर कि एक युवक पत्नी और मां को छोड़कर संन्यासी बन रह है, आसपास के गांव के नर-नारी इकट्ठे हो गये। वे उन्हें मना करते और केशव भारती को गालियां देते। कोई भी नाई निमाई पंडित के सुन्दर बाल काटने को तैयार न हो रहा था । तब निमाई ने अपनी मधुर वाणी से सबको शान्त किया। उनके अनुरोध पर एक नाई ने उनके केश कटे पर उसने कसम खा ली कि आगे से वह यह काम नहीं करेगा। वह कृष्ण-भक्त हो गया। सन 1510 में संत प्रवर श्री पाद केशव भारती से संन्यास की दीक्षा लेने के बाद निमाई का नाम कृष्ण चैतन्य देव हो गया।
अपने समय में सम्भवत: इनके समान ऐसा कोई दूसरा आचार्य नहीं था, जिसने लोकमत को चैतन्य के समान प्रभावित किया हो। एक बार चैतन्यप्रभु अकेले ही चेरानन्दी वन में जा रहे थे। उस वन में मशहूर डाकू नौरोजी रहता था। उसका नाम सुनकर लोग कांप उठते थे। चैतन्य को इस वन में से जाने के लिए लोगों ने बहुत मना किया, पर उनके मन में नौरोजी को सही रास्ते पर लाने की धुन समाई हुई थी।नौरोजी उनको देखते ही उनका भक्त हो गया और वह संन्यासी बनकर महाप्रभु के साथ रहने लगा। पश्चिम बंगाल में अद्वैताचार्य और नित्यानन्द को तथा मथुरा में रूप गोस्वामी और सनातन गोस्वामी को अपने प्रचार का भार संभलवाकर चैतन्य नीलांचल (कटक) में चले गए और वहाँ 12 वर्ष तक लगातार जगन्नाथ की भक्ति और पूजा में लगे रहे। चैतन्यप्रभु अधिकतर जगन्नाथपुरी में रहते थे और जगन्नाथजी की मूर्ति के आगे खड़े होकर घंटों रोया करते थे। वह प्रभु प्रेम की मस्ती में ‘श्री कृष्ण, श्री कृष्ण, मेरे प्राणाधार, श्री हरि तुम कहां हो’ पुकारते हुए कीर्तन करने लगे। उनके बहुत से शिष्य बन गए जो मिलकर ‘हरि हरये नम:,गोपाल गोबिंद, राम श्री मधुसूदन’ का संकीर्तन करते हुए प्रभु को ढूंढने लगे। उनके व्यक्तित्व का लोगों पर ऐसा विलक्षण प्रभाव पड़ा कि बहुत से अद्वैत वेदांती व संन्यासी भी उन के संग से कृष्ण प्रेमी बन गए और उनके विरोधी भी उनके अनुयायी बन गए।
कृष्ण-भक्ति के गीत गाते हुए वह जनता के हृदय में भगवत् भक्ति की भावना भरने लगे। वे कहते थे कि गिरिजाघरों या मस्जिदों में पूजा का प्रसार सम्भव नहीं, क्योंकि लोगों की रुचि इसमें नहीं रही, किन्तु हरे कृष्ण का कीर्तन कहीं भी और कभी भी किया जा सकता है | इस प्रकार श्री चैतन्य की पूजा करते हुए लोग सर्वोच्च कर्म कर सकते है और परमेश्वर को प्रसन्न करने का सर्वोच्च धार्मिक प्रयोजन पूरा कर सकते हैं | उन दिनों अलग-अलग प्रांतों में अलग-अलग राजाओं के राज्य थे; किन्तु चैतन्यप्रभु इतने प्रसिद्द और सम्मानित थे कि उन्हें कहीं भी जाने की रोक-टोक न थी। एक यात्रा में उन्हें पता चला कि उनके बड़े भाई विश्वरूप दो वर्ष साधु रहकर मर गये।साधु बनने के बाद दो बार चैतन्य अपनी माता से मिले। वैसे माता के समाचार वह समय-समय पर अपने भक्तों से पूछते रहते थे। एक बार जब वह नवद्वीप गये, तो विष्णुप्रिया उनसे मिली। चैतन्य बोले, “देवी, इस संन्यासी के लिए क्या आज्ञा है?” विष्णुप्रिया ने सिर झुकाकर कहा, “महाराज, मुझे आपके खड़ाऊं चाहिए।” चैतन्यप्रभु ने खड़ाऊं दे दिया। बाद में विष्णुप्रिया ने कृष्ण-भक्ति की दीक्षा ले ली।
चैतन्य महाप्रभु ने बंगाल की विधवाओं की दयनीय दशा और सामाजिक तिरस्कार को देखते हुए उनके शेष जीवन को प्रभु -भक्ति की ओर मोड़ा और इसके बाद ही उनके वृंदावन आने की परंपरा शुरू हो गई।वे 1515 में वृंदावन आए और उन्होंने अपना शेष जीवन वृंदावन में व्यतीत किया।वृंदावन करीब 500 वर्ष से विधवाओं के आश्रय स्थल के तौर पर जाना जाता है। कान्हा के चरणों में जीवन की अंतिम सांसें गुजारने की इच्छा लेकर देशभर से यहां जो विधवाएं आती हैं, उनमें ज्यादातर करीब 90 फीसद बंगाली हैं। अधिकतर अनपढ़ और बांग्लाभाषी। वृंदावन की ओर बंगाली विधवाओं के रुख के पीछे मान्यता यह है कि भक्तिकाल के प्रमुख कवि चैतन्य महाप्रभु का जन्म 1486 में पश्चिम बंगाल के नवद्वीप गांव में हुआ था।उन्होने विलुप्त वृन्दावन को फिर से बसाया और अपने जीवन का अंतिम भाग वहीं व्यतीत किया।कहा जाता है कि यदि गौरांग ना होते तो वृंदावन आज तक एक मिथक ही होता। वैष्णव लोग तो इन्हें श्रीकृष्ण का राधा रानी के संयोग का अवतार मानते हैं।
जब चैतन्य महाप्रभु कीर्तन करते थे, तो लगता था मानो ईश्वर का आह्वान कर रहे हैं। ” हरे-कृष्ण, हरे-कृष्ण, कृष्ण-कृष्ण, हरे-हरे। हरे-राम, हरे-राम, राम-राम, हरे-हरे॥” यह अठारह शब्दीय (32 अक्षरीय) कीर्तन महामंत्र निमाई उपाख्य चैतन्य महाप्रभु की ही देन है। भक्तिमार्ग में इसे तारकब्रह्ममहामंत्र कहा गया, व कलियुग में जीवात्माओं के उद्धार हेतु प्रचारित किया गया था। कलियुग के युगधर्म श्री हरिनाम संकीर्तन को प्रदान करने के लिए श्री चैतन्य महाप्रभु जी ने अपने पार्षद श्री नित्यानंद प्रभु श्री अद्वैत, श्री गदाधर, श्री वासु को गांव-गांव और शहर-शहर में जाकर श्री हरिनाम संकीर्तन का प्रचार करने की शिक्षा दी। उनके द्वारा प्रारंभ किए गए महामन्त्र ‘नाम संकीर्तन’ का अत्यंत व्यापक व सकारात्मक प्रभाव यूरोप,अमेरिका जैसे महादेशों में भी है। श्री चैतन्य महाप्रभु जी के जीवन का लक्ष्य लोगों में भगवद भक्ति और भगवतनाम का प्रचार करना था। वह सभी धर्मों का आदर करते थे।विश्व भर में श्री हरिनाम संकीर्तन श्री चैतन्य महाप्रभु की ही आचरण युक्त देन है। उन्होंने कलियुग के जीवों के मंगल के लिए ही उन्हें श्रीकृष्ण प्रेम प्रदान किया है, वह सांसारिक वस्तु प्रदाता नहीं बल्कि करुणा और भक्ति के प्रदाता हैं। चैतन्य महाप्रभु ने संस्कृत में कुछ लिखित कृष्ण-वर्णं त्विषाकृष्णम्रि रिकॉर्ड किये है। चैतन्य के आध्यात्मिक, धार्मिक, महमोहक और प्रेरणादायक विचार लोगो की अंतरआत्मा को छू जाते थे। उनकी सिखाई कुछ बाते इस प्रकार हैं – :
• कृष्णा ही सर्वश्रेष्ट परम सत्य है। • कृष्णा ही सभी उर्जाओ को प्रदान करता है। • कृष्णा ही रस का सागर है। • सभी जीव भगवान के ही छोटे-छोटे भाग है। • जीव अपने तटस्थ स्वाभाव की वजह से ही मुश्किलों में आते है। • अपने तटस्थ स्वाभाव की वजह से ही जीव सभी बन्धनों से मुक्त होते है। • जीव इस दुनिया और एक जैसे भगवान से पूरी तरह से अलग होते है। • पूर्ण और शुद्ध श्रद्धा ही जीवो का सबसे बड़ा अभ्यास है। • कृष्णा का शुद्ध प्यार ही सर्वश्रेष्ट लक्ष्य है।
चैतन्य के अनुसार भक्ति ही मुक्ति का साधन है। उनके अनुसार जीवो के दो प्रकार होते है, नित्य मुक्त और नित्य संसारी। नित्य मुक्त जीवो पर माया का प्रभाव नही पड़ता जबकि नित्य संसारी जीव मोह-माया से भरे होते है। कृष्ण-वर्णं त्विषाकृष्णम् बताता है कि कृष्ण-नाम को प्रधानता दी जानी चाहिए | भगवान् श्री चैतन्य ने कृष्णभावनामृत की शिक्षा दी और कृष्ण-नाम का कीर्तन किया | अतएव श्री चैतन्य की पूजा करने के लिए सबको मिलकर महामंत्र का कीर्तन करना चाहिए- हरे कृष्ण, हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण,हरे हरे |हरे राम, हरे राम, राम राम, हरे हरे ||
४८ वर्ष की उम्र में रथ-यात्रा के दिन उनकी जीवन-लीला समाप्त हो गई। उनका शरीर चला गया, पर उनका नाम सदा अमर रहेगा। भक्ति की उन्होंने जो धारा बहाई, वह कभी नहीं सूखेगी और लोगों को हमेशा पवित्र करती रहेगी।
गलिटीज़ टेलीप्ले के बैनर तले प्रथम प्रस्तुति के रूप में वेब सीरीज ‘रोहतक सिस्टर्स’ की शूटिंग इन दिनों भोपाल(मध्य प्रदेश) में तेज गति से जारी है। सत्य घटना पर आधारित इस वेब सीरीज में नवोदित कलाकारों के साथ बॉलीवुड के नामचीन कलाकार भी अपने अभिनय का जलवा बिखेरते नज़र आएंगे। मौजूदा दौर में दर्शकों के बदलते मिज़ाज़ को ध्यान में रखते हुए इस वेब सीरीज की कथावस्तु में एक्शन, कॉमेडी और ट्रेजडी का भी समावेश किया गया है।
राजोरा एंटरटेनमेंट के द्वारा प्रस्तुत की जा रही इस वेब सीरीज के निर्माता द्वय बच्चन तोमर और अज़रा सईद हैं। बॉलीवुड के चर्चित निर्देशक मनोज सिंह के निर्देशन में बन रही इस वेब सीरीज के लेखक आबिद निसार और डीओपी धर्मेंद्र बिस्वास हैं। इस वेब सीरीज के मुख्य कलाकार तेज सप्रू, बृजेश त्रिपाठी, अनिल नागरथ, मृणाल जैन, गौरव शर्मा, सोनम अरोड़ा, उर्वी सिंह, विक्रम कोचर, स्मिता शरण, विभा छिबर श्वेता खंडूरी, प्रीति मेहरा, एहसान खान, उपासना रथ, कल्याणी झा, अरुण सिंह, हेराम त्रिपाठी, सुनीत राजदान, मुनि झा, कुणाल, सिकंदर मिर्ज़ा और परेश ब्रह्मभट्ट आदि हैं।