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चैतन्य महाप्रभु के कीर्तनों से सैंकड़ों मुस्लिमों ने हिंदु धर्म में घरवापसी की

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  • राजेश झा ( विश्व संवाद केंद्र, मुंबई)

” घर में रहते हुए मैं वह काम नहीं कर सकता, जो करना चाहता हूं। देश में नास्तिकता, हिंसा और वाम-मार्ग के कारण बड़ी बुरी-बुरी बातें फैल रही है। मैं अज्ञान के अंधेरे को दूर करना चाहता हूं। घूम-घूमकर कृष्णभक्ति का सन्देश सारे देश को सुनाना चाहता हूं। जात-पांत के बंधनों से लोगों को निकालना चाहता हूं।

निमाई ने झट अपनी पुस्तक गंगाजी में फेंक दी। बोले, “यह तो एक पुस्तक है। मित्र के लिए मैं अपने प्राण भी दे सकता हूं।”

“मेरे यश और वेश से डाह करनेवालों को सीधे रास्ते पर लाने का केवल एक ही उपाय है और वह है त्याग। त्याग करके ही मैं दुनिया की भलाई में लग सकता हूं”।

जन्म: 18 फ़रवरी सन् 1486
जन्मस्थान :मायापुर (नादिया / नवद्वीप , पश्चिम बंगाल )

नाम : विश्वम्भर मिश्र ,निमाई ,गौर हरि, गौर सुंदर ,गौरांग महाप्रभु , चैतन्य महाप्रभु
माता : शुचि देवी
पिता : जगन्नाथ मिश्र
गुरु : केशव भारती और माधवेन्द्र पुरी

स्थापना : वैष्णव गौड़ीय सम्प्रदाय , वृन्दावन की पुनर्रचना

  • मृत्यु: सन् 1534

भक्तिकाल के प्रमुख संतों में से एक चैतन्य महाप्रभु ने वैष्णवों के गौड़ीय संप्रदाय की आधारशिला रखी और भजन गायकी की एक नयी शैली को जन्म दिया। समाज से जाति-पांत, ऊँच-नीच की भावना को दूर करने की शिक्षा देनेवाले चैतन्य महाप्रभु का जन्म 18 फ़रवरी सन् 1486 की फाल्गुन शुक्ल पूर्णिमा को पश्चिम बंगाल के नवद्वीप (नादिया) नामक उस गांव में हुआ, जिसे अब ‘मायापुर’ कहा जाता है।इनका जन्म संध्याकाल में सिंह लग्न में चंद्र ग्रहण के समय हुआ था। इनके पिता का नाम जगन्नाथ मिश्र व मां का नाम शचि देवी था। कहते हैं कि जगन्नाथ -शुचि के एक- के- बाद एक करके आठ कन्याएं पैदा हुईं और मरती गईं। फिर एक लड़का पैदा हुआ। भगवान की दया से वह बड़ा होने लगा। उसका नाम उन्होंने विश्वरूप रखा। विश्व रूप जब दस बरस का हुआ तब उसके एक भाई और हुआ। माता-पिता की खुशी का ठिकाना न रहा। बुढ़ापे में एक और बालक को पाकर वे फूले नहीं समाये। कहते हैं, यह बालक तेरह महीने माता के पेट में रहा। उसकी कुंडली बनाते ही ज्योतिषी ने कह दिया था कि वह महापुरूष होगा। यही बालक आगे चलकर चैतन्य महाप्रभु हुआ।

प्रपंची मुसलमानों द्वारा जब हिन्दूओं को छल एवं बलपूर्वक गऊ -मांस खिलाकर धर्मच्युत किया जाता था उस परिवेश में चैतन्य महाप्रभु का प्रादुर्भाव हिंदुत्व को संजीवनी ही थी। चैतन्य महाप्रभु जैसे महान संतों ने जनसाधारण में’ हिंदुत्व के प्रति भक्ति और समर्पण’ तथा अपने ‘महान इतिहास एवं राष्ट्र के प्रति गर्व’ की भावना जगाये रखी। इसके अलावा उन्होने विधवाओं को ज्ञानमार्ग पर लाकर उनका जीवन सफल बनाया तथा सामाजिक सद्भाव को सुदृढ़ किया।

चैतन्य के जन्मकाल के कुछ पहले सुबुद्धि राय गौड़ के शासक थे। उनके यहाँ हुसैनख़ाँ नामक एक पठान नौकर था। राजा सुबुद्धिराय ने किसी राजकाज को सम्पादित करने के लिए उसे रुपया दिया। हुसैनख़ाँ ने वह रकम खा- पीकर बराबर कर दी। राजा सुबुद्धिराय को जब यह पता चला तो उन्होंने दंड स्वरूप हुसैनख़ाँ की पीठ पर कोड़े लगवाये। हुसैनख़ाँ चिढ़ गया। उसने षड्यन्त्र रच कर राजा सुबुद्धिराय को हटा दिया। अब हुसैन ख़ाँ पठान गौड़ का राजा था और सुबुद्धिराय उसका कैदी। हुसैनख़ाँ की पत्नी ने अपने पति से कहा कि पुराने अपमान का बदला लेने के लिए राजा को मार डालो। परन्तु हुसैनख़ाँ ने ऐसा न किया। वह बहुत ही धूर्त था, उसने राजा को जबरदस्ती मुसलमान के हाथ से पकाया और लाया हुआ भोजन करने पर बाध्य किया। वह जानता था कि इसके बाद कोई हिन्दू सुबुद्धिराय को अपने समाज में शामिल नहीं करेगा। इस प्रकार सुबुद्धिराय को जीवन्मृत ढंग से अपमान भरे दिन बिताने के लिए ‘एकदम मुक्त’ छोड़कर हुसैनख़ाँ हुसैनशाह बन गया। चैतन्य प्रभु ने ‘कृष्ण महामंत्र ‘ देकर कालांतर में सुबुद्धिराय का उद्धार किया।

अस्तु ,उन दिनों देश में छूआछूत ओर ऊंच-नीच का भेद बहुत था।विशेषतः वैष्णव और ब्राह्मण अपने या अपने घरवाले के ही हाथ का पका हुआ खाना खाते थे।एक दिन एक ब्राह्मण निमाई के यहां आया।पिता जगन्नाथ मिश्र ने उसकी बड़ी आवभगत की। शचीदेवी ने उन्हें सीदा ( बिना पकाया हुआ भोज्य सामग्री ) दिया।ब्राह्मण ने चौका लीप-पोत कर तैयार किया और खाना बनाया। खाने से पहले वह आंखें बन्द करके विष्णु भगवान को भोग लगाने लगा। तभी निमाई ने आकर उसकी थाली में से खाना खाना शुरू कर दिया। यह देखकर ब्राह्मण चिल्लाने लगा।उनकी आवाज सुनते ही मिश्रजी और शचीदेवी दौड़े आये। मिश्रजी ने निमाई को पकड़ लिया और उन्हें पीटना ही चाहते थे कि ब्राह्मण ने छुड़ा दिया।मिश्रजी और शचीदेवी के आग्रह पर ब्राह्मण ने दूसरी बार भोजन तैयार किया। निमाई को अलग जाकर रस्सी से बांध दिया, पर भगवान को भोग लगाते समय फिर वही घटना घटी। निमाई रस्सी खोलकर आ गये और थाली में से चावल खाने लगे। अब की बार मिश्रजी के गुस्से का ठिकाना न रहा। वह मारने को लपके, पर ब्राह्मण ने उन्हें रोक दिया।
उसी समय पाठशाला से पढ़कर निमाई के बड़े विश्वरूप आ गये। सबने मिलकर ब्राह्मण से फिर खाना बनाने का आग्रह किया।ब्राह्मण मान गया। विश्वरूप और माता ने निमाई के रस्सी से बांधकर अपने पास बिठा लिया। कहते हैं, जब ब्राह्मण ने भोजन बनाकर भगवान विष्णु को भोग लगाया तो भगवान चतुर्भुज रूप में उसके सामने आ खड़े हुए और बोले, “तुम्हारे बुलाने पर मैं बालक के रूप में दो बार तुम्हारे पास आया, पर तुम पहचान नहीं पाये। अब जो इच्छा हो, मांगो।” ब्राह्मण गदगद् हो गया। बस, मुझे यही वर दीजिए कि आपकी मूर्ति सदा मेरे हृदय में बसी रहे।” विष्णु भगवान ने कहा, “ऐसा ही होगा।” ब्राह्मण ने बड़ी खुशी से भोजन किया। फिर वह निमाई को देखने गया। वह सो रहे थे। ब्राह्मण ने मन-ही-मन उन्हें प्रणाम किया और अपने घर लौट गया।जिसके घर से जो कुछ मिलता, निमाई भी वही खा लेते थे । पड़ोसिन प्यार से उन्हें खिलातीं। कोई-कोई कहतीं, “निमाई ब्राह्मण होकर हर किसी का छुआ खा लेता है।” निमाई हंसकर कहते, “हम तो बालगोपाल हैं। हमारे लिए ऊंच-नीच क्या! तू खिला, हम तेरा खा लेंगे।”

Chaitnya Mhaprabhu

एक दिन की बात है। बालक के स्वभाव की जांच करने के लिए पिताजगन्नाथ मिश्र ने उसके सामने खिलौने, रुपये और भगवतगीता रख दी। बोले, “बेटा, इनमें से कोई-सी एक चीज़ उठा लो।” बालक ने भगवतगीता उठा ली। पिता समझ गये कि आगे चलकर यह बालक भगवन का बड़ा भक्त होगा। एक बार निमाई काले नाग से खेलते हुए पाये गए।उनके चारों ओर सांप-कुंडली मार कर बैठा हुआ था ओर वह बड़े प्यार से उसके शरीर पर हाथ फेर रहे थे। लोगों को पक्का विश्वास हो गया कि हो-न-हो, इस बालक के शरीर में कोई महान आत्मा रहती है। निमाई बचपन से ही विलक्षण प्रतिभा संपन्न थे। साथ ही, अत्यंत सरल, सुंदर व भावुक भी थे। बाल्यावस्था में इनका नाम विश्वंभर था, परंतु सभी इन्हें ‘निमाई’ कहकर पुकारते थे। गौरवर्ण का होने के कारण लोग इन्हें ‘गौरांग’, ‘गौर हरि’, ‘गौर सुंदर’ आदि भी कहते थे।

निमाई जितने शरारती थे, बड़े भाई विश्वरूप उतने ही गम्भीर और अपने विचारों की दुनिया में खोये रहने वाले आदमी थे।विश्वरूप की उम्र इस समय १६-१७ साल की थी। माता-पिता विश्वरूप के विवाह की बात सोचने लगे, किन्तु उनकी लगन दूसरी ही ओर थी। मां-बाप ने जोर दिया तो अवसर पाकर एक दिन वह रात को घर से निकल गये और संन्यासी हो गये। बहुत ढूंढ़ने पर भी उनका पता न चला। मिश्रजी और शचोदेवी के दु:ख की सीमा न रही। निमाई पर भी इस घटना का बहुत असर पड़ा। वह भी अब गम्भीर रहने लगे।निमाई का मन अब पढ़ने की ओर झुका, पर पिता को उसमें रस न था। वह सोचते थे कि एक लड़का तो खो ही गया, कहीं दूसरा भी हाथ से न चला जाय। वह निमाई को पढ़ते देखते तो बहुत नाराज होते। पर निमाई जब पढ़ने पर ही तुले थे, तो उन्हें कौन रोक सकता था! वह पिता से छिपकर पढ़ते।इस समय उनकी अवस्था ग्यारह वर्ष की थी। इस छोटी-सी उम्र में ही उन्होंने बहुत-कुछ पढ़ डाला। पिता अपने पुत्र की चतुराई की बातें सुन-सुनकर बहुत खुश होते। पर भाग्य के आगे किसका बस चलता है! एक दिन अचानक जगन्नाथ मिश्र को जोर का बुखार चढ़ा और कुछ ही दिनों में वह चल बसे।घर पर दु:ख का पहाड़ टूट पड़ा। पर निमाई ने हिम्मत से काम लिया। अपने-आपको तो सम्भाला ही, मां को भी को भी धीरज बंधाया।

दुखी मां का अब निमाई ही सहारा थे। पढ़ने से जो समय बचता, उसमें वह माता की खूब सेवा करते।व्याकरण के साथ-साथ निमाई अब अन्य विषय भी पढ़ने लगे। धीरे-धीरे उनके ज्ञान की चर्चा चारों ओर होने लगी। उनकी उम्र सोलह साल की हो चुकी थी। लोग उन्हें ‘निमाई पंडित’ कहने लगे।निमाई के एक मित्र थे पं० रघुनाथ। वह उन दिनों एक पुस्तक लिख रहे थे। उनका विचार था कि इस पुस्तक को लिख लेने पर उस विषय का उनसे बड़ा विद्वान कोई नहीं होगा। तभी उन्हें पता लगा कि निमाई पंडित भी उसी विषय पर पुस्तक लिख रहे हैं। वह जानते थे कि निमाई इस विषय के पंडित हैं। वह उनके घर पहुंचे। रघुनाथ ने कहा, “सुना है, तुम न्याय पर कोई पुस्तक लिख रहे हो!” हंसते हुए निमाई ने कहा, “अजी, छोड़ो। तुम्हें किसी ने बहका दिया होगा। कहां मैं और कहां न्याय जैसा कठिन विषय ! मन-बहलाव के लिए वैसे ही कुछ लिख रहा हूं।”
“फिर भी मैं उसे सुनना चाहता हूं।” रघुनाथ ने जोर देकर कहा।

“जैसी तुम्हारी इच्छा! चलो, गंगाजी पर नाव में सैर करेंगे और पुस्तक भी सुनायेंगे।”

दोनों गंगा-घाट पर पहुंचे और नाव में बैठकर घूमने लगे। निमाई ने अपनी पुस्तक पढ़नी शुरू की। सुनकर रघुनाथजी रोने लग गये।

“निमाई ने हैरानी से पूछा, “क्यों, क्या हुआ? रो क्यों रहे हो?”

“निमाई, मेरी बरसों की मेहनत बेकार गई। तुम्हारी इस पुस्तक के सामने मेरी पुस्तक पर कौन ध्यान देगा? अपनी जिस पुस्तक पर मुझे इतना गुमान था, वह तो इसके सामने कुछ भी नहीं है ” रघुनाथ ने कहा।

निमाई हंसने लगे। बोले, “बस इतनी-सी बात के लिए परेशान हो!” यह कहकर उन्होंने झट अपनी पुस्तक गंगाजी में फेंक दी। बोले, “यह तो एक पुस्तक है। मित्र के लिए मैं अपने प्राण भी दे सकता हूं।”

उस दिन के बाद से फिर निमाई पाठशाला में पढ़ने नहीं गये। घर पर ही पिता और भाई की किताबों से पढ़ने लगे।कुछ दिन बाद उन्होंने लड़कों को पढ़ाने के लिए एक पाठशाला खोली। धीरे-धीरे उसमें बहुत-से विद्यार्थी हो गये। उनमें कई तो उम्र में उनसे बड़े थे। निमाई अपने विद्यार्थियों को खूब मेहनत से पढ़ाते और मित्र की तरह उनसे प्रेमभाव रखते। माता के बहुत दबाव डालने पर उन्होंने पंडित बल्लभाचार्य की पुत्री लक्ष्मीदेवी से विवाह कर लिया। लक्ष्मीदेवी को वह बचपन से ही जानते थे।इन्ही दिनों नवद्वीप में एक पंडित आये। उन्हें अपने ज्ञान का बड़ा घमंड था, लेकिन निमाई के सामने उन्हें मुंह को खानी पड़ी। इससे निमाई का नाम और प्रचारित हो गया। उनकी पाठशाला विद्यार्थियों से भरी रहती।
कुछ दिनों के लिए निमाई पूर्वी बंगाल की यात्रा पर गये। इसी बीच घर पर सर्पदंश से लक्ष्मीदेवी की मृत्यु हो गई। बेचारी मां को उस समय धीरज बंधानेवाला कोई न था। लौटने पर निमाई को जब यह समाचार मिला तो वह बहुत दुखी हुए। इसी तरह एक-दो बरस निकल गए। निमाई विद्वानों और माता की सेवा करते अपनी पाठशाला में छात्रों को पढ़ाते।अपनी मां का वह बहुत मान करते थे। माता की आज्ञा और आग्रह से उन्होंने पंडित सनातन मिश्र की कन्या विष्णुप्रिया से विवाह कर लिया। सूने घर में फिर चहल-पहल हो गई। विष्णुप्रिया के अच्छे स्वभाव के कारण धीरे-धीरे शचीदेवी और निमाई लक्ष्मीदेवी के विछोह का दु:ख भूल-सा गये।

गया जाकर बहुत-से लोग अपने पितरों का श्राद्ध करते हैं। इस बार नवद्वीप से गया आनेवालों में निमाई भी थे। वह वहां जाकर अपने पिता का श्राद्ध करना चाहते थे। गया में इस समय बड़ी भीड़ थी। माने हुए सिद्ध-महात्मा वहां आये हुए थे। वहीं पर संन्यासी माधवेन्द्र पुरी से निमाई की भेंट हुई। नवद्वीप में एक बार वह पहले भी मिल चुके थे। पर तब के और अब के निमाई में बड़ा अन्तर था। भेंट होते ही निमाई ने श्रद्धा से उनके चरण पकड़ लिये। संन्यासी ने उन्हें प्यार से आशीर्वाद दिया। निमाई बोले, “स्वामी! संसार की गति के साथ यह जीवन इसी तरह बीत जायगा। अब हमें भी कृष्ण-भक्ति दीजिये।”
संन्यासी ने सरलता से कहा, “आप तो स्वयं कृष्णरूप हैं। पहुंचे हुए पंडित हैं। आपको कोई क्या दीक्षा देगा!”

निमाई के बहुत जोर देने पर माधवेन्द्र पुरी स्वामी ने उन्हें दीक्षा दे दी। ज्यों ही निमाई के कान में मंत्र फूंका गया, वह बेहोश हो गए और उसी हालत में चिल्लाने लगे, “अरे प्यारे कृष्ण, तुम कहां हो? मुझे भी अपने पास बुला लो।” होश आने पर अपने साथियों से बोले, “भैया, तुम घर लौट जाओ। हम तो अब कृष्ण के पास वृन्दावन जाते हैं।”

पर पुरी स्वामी ने उन्हें समझाकर कहा, “वृन्दावन बाद में जाना। पहले नवद्वीप में कृष्ण-भक्ति की गंगा बहाओ। पहले अपने यहां के लोगों का उद्धार करो।”
गुरु की आज्ञा से निमाई नवद्वीप लौट आये।

गया से लौटने के बाद निमाई का मन पाठशाला में न लगा। वह हर समय कीर्त्तन में लीन रहने लगे। व्याकरण पढ़ाते-पढ़ाते श्रीकृष्ण की लीलाओं का वर्णन करने लगते, फिर कृष्ण-वियोग में फूट-फूटकर रोने लगते।धीरे-धीरे पाठशाला का अन्त हो गया। निमाई के कारण नवद्वीप के वैष्णवों में एक नई लहर आ गई। जोरों का कीर्त्तन होता। निमाई कीर्त्तन करते-करते नाचने लग जाते। उनके साथ-साथ और भी भक्त नाचने लगते।भक्तों की संख्या बढ़ने लगी। बिना जात-पांत के भेद के सब लोग उनके कीर्त्तन में शामिल होते थे। लोग उनको भगवान कृष्ण का अवतार मानने लगे।निभाई के विरोधी उन्हें नीचा दिखाने के उपाय सोचते रहते थे।
बंगाल का यह इलाका उन दिनों गौड़ देश के नाम के नाम से प्रसिद्ध था। वहां पर मुसलमान बादशाह का राज्य था। राज्य की ओर से हर बड़े नगर में काजी की अदालत थी।एक बार उन्होंने काजी से शिकायत की कि उनके कीर्त्तन से हम बड़े परेशान हैं। वह शोर मचाकर राज को सोने नहीं देते और कीर्त्तन से हम बड़े परेशान हैं। वह शोर मचाकर रात को सोने नहीं देते और कीर्त्तन के बहाने बुरे-बुरे काम करते हैं। साथ ही उन्होंने मुसलमानों को कृष्ण भक्त बना लिया है।
यह सुनते ही काजी जलभुन गया। उसने फौरन आज्ञा दी कि कहीं भी कीर्त्तन नहीं होगा।
भक्तों ने आकर जब काजी की यह आज्ञा सुनाई तो निमाई पंडित मुस्कुराते हुए बोले , “घबराते क्यों हो? उन्होने नगर में ढिंढोरा पिटवा दिया कि निमाई पंडित आज शहर के बाजारों में कीर्त्तन करता हुआ काजी के मकान के सामने जाएंगे और वहां कीर्त्तन करेंगे क्योंकि काजी साहब के उद्धार का समय आ गया है।” इस मुनादी को सुनकर लोगों की खुशी की कोई सीमा न रही। लोगों ने नगर के बाजार सजाये। दूसरे मत को माननेवाले लोगों ने भी अपने मकानों को सजाया। निमाई पंडित अपने भक्तों के साथ कीर्त्तन करते चले “हरिबोल ! हरिबोल !” जुलूस कीर्त्तन करता हुआ बाजारों से गुजरने लगा। निमाई प्रभु-भक्ति में लीन होकर नृत्य कर रहे थे। उनकी आंखों से कृष्ण-विरह में आंसू बह रहे थे। उन्हें देखकर विरोध करनेवालों के भी हृदय उनके चरणों में झुके जा रहे थे।

जनता में काजी की आज्ञा के खिलाफ जोश पैदा होने लगा। जनता चिल्लाने लगी, “काजी का मकान जला दो, काजी को मार दो।” लोग गुस्से में भरे हुए काजी के मकान की ओर बढ़ने लगे।निमाई पंडित कीर्त्तन में मस्त थे। जब भक्तों ने उन्हें लोगों के जोश की बात बतलाई तो उन्होंने कीर्त्तन बन्द कर दिया और गुस्से से भरी हुई जनता के सामने जाकर बोले, “काजी का बुरा करनेवाला मेरा बुरा करेगा। मैं काजी को प्रेम से जीतना चाहता हूं, डर दिखाकर नहीं। इसलिए आप मेरे काम में रुकावट न डालें।”

काजी डर के मारे अपने घर में छिपकर बैठा था। निमाई ने उसके नौकरों से कहा, “काजीसाहब को मेरे आने की खबर दो। उनसे कहो कि डर की कोई बात नहीं। वह मुझ पर यकीन करें। मेरे होते हुए उनका बाल भी बांका न होगा।” गांव के नाते काजी निमाई के मामा लगते थे। नौकरों के समझाने-बुझाने पर काजी बाहर आये।

निमाई पंडित ने प्यार से कहा, “मामाजी, भानजा मिलने आये और मामा मकान के द्वार बन्द करके अन्दर जा बैठे, यह भी कोई बात हुई!”
काजी ने कहा, “तुम्हारे कीर्त्तन में रुकावट डालने का मुझे दु:ख हैं। मैं लोगों के बहकावे में आ गया था। अब तुम खूब कीर्त्तन करो, तुम्हें कोई नहीं रोकेगा।”

इस घटना से निमाई पंडित के हृदय में एक बड़ा परिवर्तन आने लगा। संन्यास लेने की इच्छा पैदा होने लगी। वह सोचते थे कि मेरे यश और वेश से डाह करनेवालों को सीधे रास्ते पर लाने का केवल एक ही उपाय है और वह है त्याग। त्याग करके ही मैं दुनिया की भलाई में लग सकता हूं। यह इच्छा जब उन्होंने भक्तों, अपनी माता और पत्नी के बताई तो सब रोने लगे। सबने उन्हें समझाने की कोशिश की, पर बेकार। निमाई पंडित चट्टान की तरह अटल थे।बाद में सबने उनकी बात मान ली। एक रात को माता और पत्नी को सोता छोड़ वह संन्यास लेने के लिए घर से निकल पड़े।
घर से निकलकर वह केशव भारती की कुटी पर पहुंचे और उनसे दीक्षा देने की प्रार्थना की। उस समय निमाई की उम्र चौबीस साल की थी।
केशव भारती ने उन्हें बहुत समझाया। कहा, “अभी तुम्हारी उम्र छोटी है। तुम्हारे कोई बाल-बच्चा भी नहीं है। इस हालत में तुम्हारे लिए संन्यास लेना ठीक नहीं होगा। जाओ, घर लौट जाओ।”
निमाई ने हाथ जोड़कर कहा, “गुरुदेव, घर में रहते हुए मैं वह काम नहीं कर सकता, जो करना चाहता हूं। देश में नास्तिकता, हिंसा और वाम-मार्ग के कारण बड़ी बुरी-बुरी बातें फैल रही है। मैं अज्ञान के अंधेरे को दूर करना चाहता हूं। घूम-घूमकर कृष्णभक्ति का सन्देश सारे देश को सुनाना चाहता हूं। जात-पांत के बंधनों से लोगों को निकालना चाहता हूं। आप मुझ पर दया करें, मुझे दीक्षा दें।”
केशव भारती कुछ सोचते हुए बोले, “अच्छा, निमाई पंडित, एक शर्त पर मैं तुम्हें दीक्षा दे सकता हूं। तुम अपनी माता और पत्नी से आज्ञा ले आओ।”
निमाई ने कहा, “गुरूदेव उन दोनों ने मुझे आज्ञा दे दी है। मैं उनसे पहले ही पूछ चुका हूं।”

निमाई के बहुत कहने पर केशव भारती उन्हें दीक्षा देने को तैयार हो गए। इतने में निमाई को ढ़ूंढ़ते हुए नवद्वीप के अनेक भक्त वहां आ पहुंचे। वह बड़ा ही हृदयविदारक दृश्य था। यह सुनकर कि एक युवक पत्नी और मां को छोड़कर संन्यासी बन रह है, आसपास के गांव के नर-नारी इकट्ठे हो गये। वे उन्हें मना करते और केशव भारती को गालियां देते। कोई भी नाई निमाई पंडित के सुन्दर बाल काटने को तैयार न हो रहा था । तब निमाई ने अपनी मधुर वाणी से सबको शान्त किया। उनके अनुरोध पर एक नाई ने उनके केश कटे पर उसने कसम खा ली कि आगे से वह यह काम नहीं करेगा। वह कृष्ण-भक्त हो गया। सन 1510 में संत प्रवर श्री पाद केशव भारती से संन्यास की दीक्षा लेने के बाद निमाई का नाम कृष्ण चैतन्य देव हो गया।

अपने समय में सम्भवत: इनके समान ऐसा कोई दूसरा आचार्य नहीं था, जिसने लोकमत को चैतन्य के समान प्रभावित किया हो। एक बार चैतन्यप्रभु अकेले ही चेरानन्दी वन में जा रहे थे। उस वन में मशहूर डाकू नौरोजी रहता था। उसका नाम सुनकर लोग कांप उठते थे। चैतन्य को इस वन में से जाने के लिए लोगों ने बहुत मना किया, पर उनके मन में नौरोजी को सही रास्ते पर लाने की धुन समाई हुई थी।नौरोजी उनको देखते ही उनका भक्त हो गया और वह संन्यासी बनकर महाप्रभु के साथ रहने लगा। पश्चिम बंगाल में अद्वैताचार्य और नित्यानन्द को तथा मथुरा में रूप गोस्वामी और सनातन गोस्वामी को अपने प्रचार का भार संभलवाकर चैतन्य नीलांचल (कटक) में चले गए और वहाँ 12 वर्ष तक लगातार जगन्नाथ की भक्ति और पूजा में लगे रहे। चैतन्यप्रभु अधिकतर जगन्नाथपुरी में रहते थे और जगन्नाथजी की मूर्ति के आगे खड़े होकर घंटों रोया करते थे। वह प्रभु प्रेम की मस्ती में ‘श्री कृष्ण, श्री कृष्ण, मेरे प्राणाधार, श्री हरि तुम कहां हो’ पुकारते हुए कीर्तन करने लगे। उनके बहुत से शिष्य बन गए जो मिलकर ‘हरि हरये नम:,गोपाल गोबिंद, राम श्री मधुसूदन’ का संकीर्तन करते हुए प्रभु को ढूंढने लगे। उनके व्यक्तित्व का लोगों पर ऐसा विलक्षण प्रभाव पड़ा कि बहुत से अद्वैत वेदांती व संन्यासी भी उन के संग से कृष्ण प्रेमी बन गए और उनके विरोधी भी उनके अनुयायी बन गए।

कृष्ण-भक्ति के गीत गाते हुए वह जनता के हृदय में भगवत् भक्ति की भावना भरने लगे। वे कहते थे कि गिरिजाघरों या मस्जिदों में पूजा का प्रसार सम्भव नहीं, क्योंकि लोगों की रुचि इसमें नहीं रही, किन्तु हरे कृष्ण का कीर्तन कहीं भी और कभी भी किया जा सकता है | इस प्रकार श्री चैतन्य की पूजा करते हुए लोग सर्वोच्च कर्म कर सकते है और परमेश्वर को प्रसन्न करने का सर्वोच्च धार्मिक प्रयोजन पूरा कर सकते हैं | उन दिनों अलग-अलग प्रांतों में अलग-अलग राजाओं के राज्य थे; किन्तु चैतन्यप्रभु इतने प्रसिद्द और सम्मानित थे कि उन्हें कहीं भी जाने की रोक-टोक न थी। एक यात्रा में उन्हें पता चला कि उनके बड़े भाई विश्वरूप दो वर्ष साधु रहकर मर गये।साधु बनने के बाद दो बार चैतन्य अपनी माता से मिले। वैसे माता के समाचार वह समय-समय पर अपने भक्तों से पूछते रहते थे। एक बार जब वह नवद्वीप गये, तो विष्णुप्रिया उनसे मिली। चैतन्य बोले, “देवी, इस संन्यासी के लिए क्या आज्ञा है?” विष्णुप्रिया ने सिर झुकाकर कहा, “महाराज, मुझे आपके खड़ाऊं चाहिए।” चैतन्यप्रभु ने खड़ाऊं दे दिया। बाद में विष्णुप्रिया ने कृष्ण-भक्ति की दीक्षा ले ली।

चैतन्य महाप्रभु ने बंगाल की विधवाओं की दयनीय दशा और सामाजिक तिरस्कार को देखते हुए उनके शेष जीवन को प्रभु -भक्ति की ओर मोड़ा और इसके बाद ही उनके वृंदावन आने की परंपरा शुरू हो गई।वे 1515 में वृंदावन आए और उन्होंने अपना शेष जीवन वृंदावन में व्यतीत किया।वृंदावन करीब 500 वर्ष से विधवाओं के आश्रय स्थल के तौर पर जाना जाता है। कान्हा के चरणों में जीवन की अंतिम सांसें गुजारने की इच्छा लेकर देशभर से यहां जो विधवाएं आती हैं, उनमें ज्यादातर करीब 90 फीसद बंगाली हैं। अधिकतर अनपढ़ और बांग्लाभाषी। वृंदावन की ओर बंगाली विधवाओं के रुख के पीछे मान्यता यह है कि भक्तिकाल के प्रमुख कवि चैतन्य महाप्रभु का जन्म 1486 में पश्चिम बंगाल के नवद्वीप गांव में हुआ था।उन्होने विलुप्त वृन्दावन को फिर से बसाया और अपने जीवन का अंतिम भाग वहीं व्यतीत किया।कहा जाता है कि यदि गौरांग ना होते तो वृंदावन आज तक एक मिथक ही होता। वैष्णव लोग तो इन्हें श्रीकृष्ण का राधा रानी के संयोग का अवतार मानते हैं।

जब चैतन्य महाप्रभु कीर्तन करते थे, तो लगता था मानो ईश्वर का आह्वान कर रहे हैं। ” हरे-कृष्ण, हरे-कृष्ण, कृष्ण-कृष्ण, हरे-हरे। हरे-राम, हरे-राम, राम-राम, हरे-हरे॥” यह अठारह शब्दीय (32 अक्षरीय) कीर्तन महामंत्र निमाई उपाख्य चैतन्य महाप्रभु की ही देन है। भक्तिमार्ग में इसे तारकब्रह्ममहामंत्र कहा गया, व कलियुग में जीवात्माओं के उद्धार हेतु प्रचारित किया गया था। कलियुग के युगधर्म श्री हरिनाम संकीर्तन को प्रदान करने के लिए श्री चैतन्य महाप्रभु जी ने अपने पार्षद श्री नित्यानंद प्रभु श्री अद्वैत, श्री गदाधर, श्री वासु को गांव-गांव और शहर-शहर में जाकर श्री हरिनाम संकीर्तन का प्रचार करने की शिक्षा दी। उनके द्वारा प्रारंभ किए गए महामन्त्र ‘नाम संकीर्तन’ का अत्यंत व्यापक व सकारात्मक प्रभाव यूरोप,अमेरिका जैसे महादेशों में भी है। श्री चैतन्य महाप्रभु जी के जीवन का लक्ष्य लोगों में भगवद भक्ति और भगवतनाम का प्रचार करना था। वह सभी धर्मों का आदर करते थे।विश्व भर में श्री हरिनाम संकीर्तन श्री चैतन्य महाप्रभु की ही आचरण युक्त देन है। उन्होंने कलियुग के जीवों के मंगल के लिए ही उन्हें श्रीकृष्ण प्रेम प्रदान किया है, वह सांसारिक वस्तु प्रदाता नहीं बल्कि करुणा और भक्ति के प्रदाता हैं।
चैतन्य महाप्रभु ने संस्कृत में कुछ लिखित कृष्ण-वर्णं त्विषाकृष्णम्रि रिकॉर्ड किये है। चैतन्य के आध्यात्मिक, धार्मिक, महमोहक और प्रेरणादायक विचार लोगो की अंतरआत्मा को छू जाते थे। उनकी सिखाई कुछ बाते इस प्रकार हैं – :

• कृष्णा ही सर्वश्रेष्ट परम सत्य है।
• कृष्णा ही सभी उर्जाओ को प्रदान करता है।
• कृष्णा ही रस का सागर है।
• सभी जीव भगवान के ही छोटे-छोटे भाग है।
• जीव अपने तटस्थ स्वाभाव की वजह से ही मुश्किलों में आते है।
• अपने तटस्थ स्वाभाव की वजह से ही जीव सभी बन्धनों से मुक्त होते है।
• जीव इस दुनिया और एक जैसे भगवान से पूरी तरह से अलग होते है।
• पूर्ण और शुद्ध श्रद्धा ही जीवो का सबसे बड़ा अभ्यास है।
• कृष्णा का शुद्ध प्यार ही सर्वश्रेष्ट लक्ष्य है।

    चैतन्य के अनुसार भक्ति ही मुक्ति का साधन है। उनके अनुसार जीवो के दो प्रकार होते है, नित्य मुक्त और नित्य संसारी। नित्य मुक्त जीवो पर माया का प्रभाव नही पड़ता जबकि नित्य संसारी जीव मोह-माया से भरे होते है। कृष्ण-वर्णं त्विषाकृष्णम् बताता है कि कृष्ण-नाम को प्रधानता दी जानी चाहिए | भगवान् श्री चैतन्य ने कृष्णभावनामृत की शिक्षा दी और कृष्ण-नाम का कीर्तन किया | अतएव श्री चैतन्य की पूजा करने के लिए सबको मिलकर महामंत्र का कीर्तन करना चाहिए- हरे कृष्ण, हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण,हरे हरे |हरे राम, हरे राम, राम राम, हरे हरे || 

४८ वर्ष की उम्र में रथ-यात्रा के दिन उनकी जीवन-लीला समाप्त हो गई। उनका शरीर चला गया, पर उनका नाम सदा अमर रहेगा। भक्ति की उन्होंने जो धारा बहाई, वह कभी नहीं सूखेगी और लोगों को हमेशा पवित्र करती रहेगी।

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