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मनो बौद्धिक विकास के लिए बच्चों को मातृभाषा में शिक्षा देना आवश्यक

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राजेश झा (विश्व संवाद केंद्र, मुंबई)


जन्म लेने के बाद शिशु  जो प्रथम भाषा बोलने और सीखने का प्रयास करता है  उसे उसकी मातृभाषा कहते हैं।हमारा प्रारंभिक ज्ञान मातृभाषा द्वारा ही होता है और हम अपने भावी ज्ञान को भी (वह हमें चाहे जिस भाषा द्वारा प्राप्त हो) मातृ भाषा द्वारा प्राप्त किए हुए ज्ञान के आलोक में ही देखते हैं। मातृभाषा हमारे बाल्यकाल की भाषा होने के कारण हमारे मानसिक संस्थान का मजबूत अंग बन जाती है। मातृभाषा में प्रशिक्षित बच्चों में अन्य भाषाएँ सीखने की क्षमता भी अधिक होती है ,जिन बच्चों को बहुभाषी बनाया जाता है उनकी प्रतिभा का विकास बहुत तीव्र गति से संभव होता है।आज विश्व की दस प्रमुख बहुराष्ट्रीय कंपनियों का नेतृत्व भारतीय कर रहे हैं तो उसका एक कारण यह भी है। मनुष्य चाहे जितना विदेशी रंग में रंग जाए किंतु सच्चे हर्ष और घोर विपत्ति के अवसर पर मातृभाषा में स्वयं अभिव्यक्त कर सकता है।  जिस भाषा को मनुष्य स्वाभाविक अनुकरण द्वारा बाल्यकाल से सीखता है उसे हम उसकी मातृभाषा कहते हैं इसी बात को हम दूसरे शब्दों में यह कह सकते हैं कि जिस भाषा को हम माता की गोद में सीखते हैं वह हमारी मातृभाषा हो सकती है या मातृभाषा है।

 भारतीय प्राद्योगिकी संस्थान (मुंबई) में प्राध्यापक डॉक्टर गणेश रामकृष्ण कहते हैं कि मातृभाषा से शिशु का परिचय उसके भ्रूणावस्था में ही हो जाता है क्योंकि वह उसकी ध्वनि माँ से सुनता है। मनोविज्ञान की प्रोफ़ेसर और प्रमुख लेखक  क्रिस्टीन मून ने छह महीने के भ्रूण से लेकर उसके शिशु रूप में जन्मने तक भ्रूण की गतिविधियों का गहन अध्ययन किया है। उन्होने वर्षों के शोध से सिद्ध किया है कि  गर्भावस्था में ही भ्रूण का परिचय उसकी माँ द्वारा बोले और सुने जानेवाले शब्दों से होने लगता है। मुंबई विश्वविद्यालय में मनोविज्ञान की प्राध्यापक श्रीमती मेघना ठाकुर कहती हैं कि ‘ मातृभाषा के साथ हमारे बचपन की बहुत सी मधुर स्मृतियां जुड़ी हुई होती हैं, इस कारण  उसे बोलने और सुनने के लिए हमारे मुख और कान की पेशियां अभ्यस्त हो जाती हैं।  उसके उच्चारण व श्रवण में हमको अधिक प्रयास नहीं करना पड़ता। जो आनंद हमको अपनी मातृभाषा के  गायन में होता है वह किसी दूसरी भाषा के गायन में नहीं आता।

शोधों ने यह सिद्ध किया है कि जीवन के आरंभिक वर्षों और प्राथमिक शिक्षा में मातृभाषा माध्यम में पढ़ने वाले बच्चों में सर्वश्रेष्ठ संवेगात्मक विकास के साथ साथ सभी विषयों की समझ और अधिगम भी बेहतर होते हैं उन बच्चों की तुलना में जिन्हें अपनी मातृभाषा/परिवेश भाषा से अलग किसी भाषा में पढ़ना पड़ता है। इतना ही नहीं, दूसरी भाषाएं सीखने में भी मातृभाषा/परिवेश भाषा में पढ़ने वाले बच्चे आगे पाए गए उन दूसरी श्रेणी के बच्चों की तुलना में जो अन्य भाषा से दूसरी भाषा सीखते हैं।हिंदी और अंग्रेजी माध्यम  बच्चों तथा किशोरों को मराठी सिखानेवाली संस्कार भारती की स्वयंसेविका मानसी राणे कहती हैं कि  प्राथमिक कक्षाओं में मातृभाषा माध्यम से शिक्षा देने से बच्चों को बहुभाषी बनाने में भी श्रेष्ठतर होती है।बच्चों की प्रारंभिक देखभाल और शिक्षा में मातृभाषा या पारिवारिक भाषा या परिवेश/स्थानीय भाषा का महत्व उन मुट्ठी भर विषयों में है जिस पर पूरी दुनिया के शिक्षाविदों और मनोवैज्ञानिकों की सहमति है। इस विषय पर इतने सारे शोध, प्रयोग, अध्ययन हुए हैं, इतनी सारी किताबें लिखी गई हैं कि अब इसे एक सार्वभौमिक निर्विवाद सत्य के रूप में वैश्विक स्वीकृति मिल गई है। शिक्षाविद् जानते हैं कि 6 साल की उम्र तक बच्चों के ८०-८५ प्रतिशत मस्तिष्क का विकास हो जाता है। यह भी अब एक सर्वविदित तथ्य है कि दो से आठ साल की उम्र के बीच कई भाषाएं आसानी से सीख लेने की क्षमता बच्चों में सबसे प्रबल होती है।

ज्ञान मनन से बढ़ता है और मनन के लिए पारस्परिक आदान-प्रदान आवश्यक है। यह आदान-प्रदान और विचार- विनियम में जितना व्यापक मातृभाषा द्वारा हो सकता है उतना दूसरी भाषा द्वारा नहीं हो सकता।  बाल- साहित्य की अधिकारी ज्ञाता अर्चना पोहनेर के अनुसार मातृभाषा के शब्दों में हमारी जातीय संस्कृति का इतिहास छिपा होता है। उसके द्वारा हम अपने घर वालों  और जाति वालों के साथ एक सूत्र में जुड़  जाते हैं और हम उनके हृदय तक  अपनी बात पहुंचा सकते हैं। मातृभाषा अपने व्यवहार करने वालों में एक आरक्षित प्रेम भाव उत्पन्न कर देती है। विश्व  के किसी भी स्थान-समाज में जन्म लेने वाले बच्चों के लिए मातृभाषा/परिवेश/स्थानीय भाषा ही सर्वांगीण विकास तथा सभी विषयों के बारे में सीखने के लिए सर्वोत्तम माध्यम होती है। यह बात सुदूर जंगलों में रहने वाले वनवासी बच्चों पर भी उतनी है लागू होती है जितनी सबसे विकसित, संपन्न समाजों-देशों के बच्चों पर।

मानसी  राणे कहती हैं कि समाज विकसित या अविकसित हो सकते हैं लेकिन कोई भी भाषा अविकसित नहीं होती। संसार की हर भाषा में अपने बोलने-बरतने वालों की सभी संचार-अभिव्यक्ति-आवश्यकताओं को पूरा करने की अन्तर्निहित क्षमता होती है। यह बात इसलिए भी  केन्द्रीय महत्व की है कि बहुत से ऐसे देशों-समाजों में जो आधुनिक विकास, संपन्नता, तकनीकी-आर्थिक प्रगति में विकसित देशों से पिछड़ गए हैं, लोगों के मन में यह बात बिठा दी जाती है कि उनकी अपनी देशज, स्थानीय भाषाएं विकसित देशों की तथाकथित विकसित भाषाओं की तुलना में अविकसित, गरीब और असमृद्ध हैं। यह स्थिति ज्यादातर उन देशों की है जो किसी -न- किसी औपनिवेशिक देश की दासता के शिकार रहे हैं। अपनी भाषा-संस्कृति-समाज-समझ की हीनता का यह भाव इन समाजों में अपनी विरासत, अपनी हर बात को लेकर एक गहरा आत्महीनता , आत्म-लज्जा का भाव भर देता है जिससे  उनके आत्म-विश्वास खंडित होते जाते है।इसका  परिणाम यह होता है कि ऐसे विजित समाज अपनी भाषा, अपनी सांस्कृतिक पहचान, तौर-तरीकों, परंपराओं, पद्धतियों, ज्ञान-परंपराओं को लेकर गहरे संशय और अविश्वास से भर जाते हैं। उन्हें विजेता समाज, संस्कृति, भाषा, शिक्षा, जीवन शैली श्रेष्ठतर लगने लगते हैं। परिणामतः वे अपने पारंपरिक तौर तरीके छोड़ कर विजेता या प्रभुत्वशाली वर्ग के तौर तरीके अपनाने लगते हैं। उनकी नकल करने लगते हैं।

विश्व के सभी पूर्व-औपनिवेशित देश-समाज इस आत्महंता चेतना से ग्रस्त हो गहरी और व्यापक सांस्कृतिक-बौद्धिक-शैक्षिक दासता के शिकार बने दिखते हैं भले ही उन्हें राजनीतिक स्वाधीनता मिल गई हो। ऐन्स्रे ने  १९७९ में कहा था कि सांस्कृतिक दासता का एक स्पष्ट परिणाम उस समाज में नवाचार, मौलिक चिंतन, शोध, आविष्कारों की कमी में दिखता है। चूँकि समाज का शिक्षित वर्ग पराई शिक्षा पद्धति और विचार सरणियों की नकल करना ह्रदयंगम कर चुका होता है इसलिए अपनी नैसर्गिक प्रकृति तथा प्रतिभा की नींव पर मौलिक विचार, कल्पनाओं और नवोन्मेष की उसकी क्षमता क्षीण पड़ जाती है। भाषायी साम्राज्यवाद- “वह परिघटना जिसमें एक भाषा के बोलने वालों के मन-मस्तिष्क और जीवन  दूसरी भाषा द्वारा इतने दबा दिए जाते हैं कि वे यह विश्वास करते हैं कि जब मामला जीवन के उच्चतर पहलुओं का हो तो वे उसी विदेशी भाषा का प्रयोग कर सकते हैं और उन्हें करना चाहिए जब मामला जीवन के उन्नत पक्षों से, जैसे शिक्षा, दर्शन, साहित्य, शासन, प्रशासन, न्याय व्यवस्था आदि, निपटने का हो। भाषायी साम्राज्यवाद में किसी समाज के श्रेष्ठ लोगों के भी मानस, दृष्टिकोणों और आकांक्षाओं को विकृत करने और उन्हें देशज भाषाणों के सही मूल्यांकन तथा उनकी संपूर्ण संभावनाओं का अहसास करने से रोकने की एक शक्ति है।“ भारत भी इस ऐतिहासिक विकार, भाषायी साम्राज्यवाद का शिकार है।

इस विषय का दूसरा पहलू बच्चों के व्यक्तित्व निर्माण में मातृभाषा या भाषा की भूमिका का है। इसे समझने से पहले यह जरूरी है कि भाषा के बारे में इस सबसे बड़ी लगभग वैश्विक और सार्वभौमिक भ्रम  को दूर किया जाए कि भाषा केवल संवाद का माध्यम है। जब तक इस भ्रम को दूर नहीं किया जाता और भाषा की ज्यादा बड़ी भूमिका को ठीक से नहीं समझा जाता तब तक बच्चों की प्रारंभिक देखभाल तथा शिक्षा में मातृभाषा के महत्व को नहीं समझा जा सकता। जिस तरह गर्भनाल के माध्यम से बच्चे को मां के गर्भ में सारा पोषण प्राप्त होता है, धीरे-धीरे उसके विभिन्न अंगों और पूरे शरीर का निर्माण होता है, वैसे ही बच्चे की माँ/परिवार/परिवेश की भाषा उसके अंतःशरीर या अंतःकरण के गठन में निभाती है। दृष्टि, स्पर्श, ध्वनियां और स्वाद- मुख्यतः जन्म के समय से सक्रिय इन चार इंद्रियों के माध्यम से भीतर जाने वाले अनुभवों, अनुभूतियों, प्रभावों से बच्चे की आंतरिक दुनिया बनती है। बच्चा जो देखता है, जिन्हें देखता है, जिन ध्वनियों को सुनता है, जिन स्पर्शों को महसूस करता है उनके दैनिक अनुभव से धीरे-धीरे उस की चेतना को कोरे पन्ने पर अनुभवों का कोश बढ़ता जाता है और बाहरी संसार के इन अनुभवों से, परिचित-सुखद अनुभूतियाँ देने वाले चेहरों-आवाज़ों-स्पर्शों से उसके रिश्तों और ज्ञान का आंतरिक संसार बनता जाता है। यही आंतरिक संसार धीरे-धीरे बच्चे के आत्मबोध में परिवर्तित हो जाता है।

जैसे-जैसे बच्चा बड़ा होता जाता है वैसे -वैसे उसका परिचय अपने परिवार से शुरू होकर अपने परिवेश से होने लगता है।  शैशव के इस बीजरूपी आत्मबोध से वयस्क होने पर संसार-बोध तक की इस यात्रा में उसकी इन्द्रियां ही सबसे अधिक सहायक होती है। इन ऐन्द्रिक अनुभवों के माध्यम से वह जानता और पहचानता है माँ को, पिता को, निकट परिजनों को, घर को, विविध रूपों और वस्तुओं को, विभिन्न ध्वनियों और उनके स्रोतों-आशयों-अर्थों को। और यूं रूपाकारों, पारिवारिक तथा पारिवेशिक व्यक्तियों, संबंधों और वस्तुओं, नामों, उनके अर्थों तथा प्रयोजनों से उसका ज्ञान संसार भरता जाता है। जैसे-जैसे यह संसार बड़ा होता जाता है, बच्चा इसके अनुभवों को ह्रदयंगम करता जाता है। वह सहज मानवीय प्रतिक्रिया में अपने इस अंतरंग संसार से संवाद करना शुरू कर देता है, हाथ-पैर चला कर, मुखमुद्राओं से, किलकारियों या रुदन से, फिर अपनी तोतली अनगढ़ बातों से अपने को व्यक्त करना शुरू कर देता है। तब तक प्रमुखतः माँ और दूसरे परिजनों को सुनते-सुनते ध्वनियों, शब्दों, अर्थों, आशयों का उसका कोश भी बढ़ते हुए तुतुलाने से शुरू होकर एक दिन माँ/मम्मा शब्द से भाषा में बदल जाता है। यहाँ से बच्चे का भाषा भंडार आश्चर्चजनक तेजी से भरने लगता है।
 डेढ़-दो साल से आठ साल बच्चों के भाषिक, संवेगात्मक विकास के सबसे उत्कट साल होते हैं। ये अपने घर से आरंभ करके बाहर के वृहत्तर संसार से रोज़ सघन और विविधतापूर्ण परिचय के वे वर्ष हैं जब बच्चा सोख्ते की तरह हर चीज़ ग्रहण करता है। ये ही वे वर्ष हैं जब उसकी शाला-पूर्व शिक्षा आरंभ होती है और कक्षा आठ तक चलती है। इस भाषा से ही बच्चा अपने रोज बढ़ते, विस्तृत होते संसार के बारे में ज्ञान प्राप्त करता है, उससे संबंध स्थापित करता है। ये संबंध केवल बौद्धिक जानकारी के ही नहीं स्थानीय, सामाजिक, सांस्कृतिक, भावनात्मक तथा संवेगात्मक भी होते हैं। अपने भौतिक तथा मनोवैज्ञानिक ज्ञान तथा सहज जिज्ञासा से बच्चा अवचेतन स्तर पर ही संसार की खोज करता जाता है और इस तरह अपने आपको उसमें स्थापित भी करता जाता है।

इस प्रारंभिक भूमिका के बाद जब हम भारतीय शैक्षिक परिदृश्य को देखते हैं तो पाते हैं कि ७२ साल की स्वाधीनता के बाद हमारी शिक्षा व्यवस्था की ध्वस्त अवस्था, हमारी भाषाओं की बढ़ती अप्रासंगिकता, हमारे करोड़ों शिक्षित युवाओं की रोजगार-अयोग्यता, देश में नवाचार और मौलिक वैज्ञानिक आविष्कारों की लज्जास्पद  कमी, आधुनिक ज्ञान के विविध क्षेत्रों में विश्वस्तरीय मौलिक चिंतन- पुस्तकों- खोजों का अभाव, आर्थिक-सामाजिक पिछड़ापन जैसी बातें सामने खड़ी दिखती हैं। इन स्थितियों के लिए जिम्मेदार कारणों, वर्गों में प्रमुख हमारी शिक्षा व्यवस्था के लिए जिम्मेदार नेतृत्व है जिसने स्वाधीनता के बाद भी भारत की बौ्द्धक आजादी की नींव यानी शैक्षिक आजादी के महत्व को नहीं समझा और शिक्षा व्यवस्था में बुनियादी, आमूल-चूल परिवर्तन नहीं किए। अंग्रेजों द्वारा अपने औपनिवेशिक हितों के लिए बनाया गया शिक्षा तंत्र ही मामूली बदलावों के साथ जारी रहा।
 स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद की अस्थिर स्थितियों और चुनौतियों से जूझते राजनीतिक-शैक्षिक नेतृत्व ने कुछ इस दबाव में और कुछ बौद्धिक आलस्य में शिक्षा की वह सुविचारित नई प्रणाली विकसित नहीं की जो भारत की प्रकृति, परंपरा और प्रतिभा के अनुरूप इस नए भारत के स्वप्न को मूर्त रूप दे पाती। इस बौद्धिक आलस्य में राजभाषा हिंदी के साथ साथ अंग्रेजी को भी जारी रख कर उसके प्रभुत्व, प्रभाव को बनाए रखना भी था और शिक्षा की माध्यम भाषा के रूप में बनाए रखना भी, विशेषतः उच्चतर शिक्षा में। प्रशासन, उद्योग, ज्ञान-विज्ञान में अंग्रेजी का प्रभाव, शक्ति और प्रतिष्ठा घटे नहीं, बढ़ते रहे। इनका स्वाभाविक असर प्राथमिक शिक्षा पर पड़ा और धीरे-धीरे उसमें भी स्थानीय भाषाओं की जगह अंग्रेजी ही माध्यम भाषा के रुप में बढ़ती रही। इस विदेशी भाषा से मिलने वाले प्रगति और रोजगार के अवसरों, सामाजिक प्रतिष्ठा के आकर्षण में अभिभावको की कई पीढ़ियों ने अपने बच्चों को भाषाई माध्यम की जगह अंग्रेजी माध्यम विद्यालयों में भर्ती कराया। इस तरह इन बच्चों के साथ ऐसी अनेक पीढ़ियाँ तैयार हो गईं जो बचपन से ही अपनी-अपनी भाषाओं से शिक्षा, ज्ञान ग्रहण तथा गंभीर अभिव्यक्ति के माध्यम के रूप में दूर हो चुकी थीं। वे अपनी भाषाओं का बातचीत, जीवन के सामान्य व्यापार में तो इस्तेमाल करती थीं लेकिन जीवन के ज्यादा महत्वपूर्ण आयामों में अंग्रेजी पर ही निर्भर थी, उसकी अभ्यस्त बना दी गई थीं।

इसका परिणाम आज इस रूप में हमारे सामने है कि एक ओर तो गरीब -से -गरीब अभिभावक भी अपने बच्चों को अच्छे भाषा-माध्यम सरकारी विद्यालयों से हटाकर तथाकथित अंग्रेजी माध्यम विद्यालयों में डाल रहे हैं भले ही वे कितने भी घटिया और मँहगे हों। दूसरी ओर, अंग्रेजी माध्यम में पढ़ कर निकले हमारे दोहरा नुकसान उठा रहे हैं। एक तो उन्हें इस थोपे हुए अंग्रेजी माध्यम के कारण सच्चा विषय-ज्ञान नहीं मिलता, उनका ज्ञान  उथला और अनुपयोगी रहता है। इससे वे शिक्षित डिग्रीधारी तो बन जाते हैं लेकिन ये डिग्रियाँ उनमें रोजगार, अच्छी नौकरियों के लिए सुयोग्य नहीं बनातीं। दूसरा इससे भी बड़ा नुकसान यह होता है कि वे अपनी भाषाओं की समृद्धि, क्षमताओं, शक्ति और सौन्दर्य से क्रमशः दूर, कटे हुए और अपरिचित होते जाते हैं। चूँकि हमारी सांस्कृतिक पहचान, आत्म-संस्कृति बोध अविच्छिन्न रूप से हमारी विविध भाषाओं से जुड़ा हुआ है, उनके सघन परिचय-प्रयोग से ही विकसित होता है इसलिए ये शिक्षित युवा आत्म विकास के रोजगारपरक रास्तों से तो दूर रहते ही हैं अपनी सांस्कृतिक पहचान, अपना अस्मिता बोध भी खो देते हैं।

‘नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति’ के संशोधित मसौदे में भी मातृभाषा और भारतीय भाषाओं के संदर्भ में अनेक अहम सिफारिशें हैं, लेकिन मातृभाषा के संदर्भ में एक महत्वपूर्ण बिंदु को लेकर शिक्षा नीति तैयार वाली कस्तूरीरंगन समिति ने शायद इस पर बहुत गंभीरता से विचार नहीं किया। यह बिंदु है प्राथमिक शिक्षा में मातृभाषा का। हालांकि मातृभाषा किसे कहें, इसे लेकर एक विवाद भी है। क्या है मातृभाषा की भारतीय संकल्पना? मातृभाषा में शिक्षा क्यों जरूरी है? इस संदर्भ में शिक्षाशास्त्र के शोधों के क्या निष्कर्ष हैं? यह भी कि राष्ट्रहित में क्या किया जाना चाहिए? पिछले कुछ दशकों से भारत में सरकारी स्कूली शिक्षा में काफी गिरावट आई है। दूसरी तरफ निजी स्कूल कुकुरमुत्ते की तरह महानगरों को तो छोड़िए, छोटे शहरों और कस्बों तक में चौतरफा उग आए हैं। सरकारी स्कूलों में शिक्षण का माध्यम जहां अपने-अपने राज्यों की भाषाएं या कहें कि स्थानीय अथवा मातृभाषा हुआ करता था, वहीं अब लगभग सभी निजी स्कूलों में शिक्षण का माध्यम अंग्रेजी हो गया है। हालांकि मातृभाषा की अवधारणा को ही लेकर कुछ विद्वान विवाद खड़ा करते हैं।

भाषाई अधिकारों पर विश्व सम्मेलन (बारसेलोना) में  बेनिन के प्रतिनिधि ने  जून 1996 में जो कहा था वह अपनी सांस्कृतिक विरासत, जड़ों, ज्ञान-परंपराओं, अस्मिता के सभ्यतामूलक सूत्रों से यह कटाव प्राथमिक शिक्षा अंग्रेजी माध्यम से पाने वाले बच्चों में भी देखा जा सकता है। इनके साथ ही इन बच्चों के मन में अंग्रेजी-जनित एक अहंकार, भाषा-माध्यम समवयस्क  व्यक्तियों के बरक्स एक श्रेष्ठता ग्रंथि भी विकसित हो जाती है। इसी के चलते  भारत और इंडिया एक देश के दो नाम ही नहीं दो अलग-अलग मनोवैज्ञानिक तथा आर्थिक-सामाजिक-सांस्कृतिक संसार भी बन गए हैं।  “अपनी भाषा बोलने के लिए एक बच्चे को सज़ा देना उस भाषा के विनाश का आरंभ है।“ भारत के हजारों अंग्रेज़ी माध्यम विद्यालयों में यह शर्मनाक व्यवहार आज भी आम है। इस तरह भारत के विद्यालयों में ही भारत की भाषाओं के विनाश की नींव तैयार की जा रही है। भारतीय मानस पर अंग्रेजी और अंग्रेजियत के इस प्रभाव ने आम शिक्षित भारतीय को पश्चिमपरस्त, पश्चिमी सभ्यता, ज्ञान-विज्ञान, तकनीक तथा चिंतन का मुखापेक्षी बना कर देश को एक नकलची राष्ट्र बना दिया है। पराई भाषा में मौलिक चिंतन नहीं हो सकता। वह अपनी भाषा में ही संभव है। लेकिन अंग्रेजी के वर्चस्व ने सारी भारतीय भाषाओं को बोलने वालों, उनके परिवेश, परंपराओं, जीवनशैलियों को इस आधुनिक अंग्रेजी-परस्त युवा के लिए पिछड़ा हुआ, अनाधुनिक और शर्म का कारण बना दिया है। इसी कारण भारत में ज्ञान-विज्ञान के उच्चतर क्षेत्रों में नवाचार, मौलिक चितन, शोध, आविष्कार इतने कम हैं।

भारत को यदि इस ज्ञान युग में आधुनिक, प्रगतिशील, समृद्ध और ज्ञान-विज्ञान में अग्रणी बनना है तो उसे अंग्रेजी का यह  मोह छोड़ कर अपनी ९०% प्रतिभाओं को उनकी अपनी भाषाओं में शाला-पूर्व स्तर से ही उत्कृष्टतम शिक्षा देकर उनकी मौलिकता तथा रचनाशीलता को उच्चतम प्रस्फुटन के अवसर देने होंगे। सशक्त भारत-निर्माण एवं प्रभावी शिक्षा के लिए मातृभाषा में शिक्षा की सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका है। शिक्षा को अपने समाज एवं राष्ट्र के अनुरूप संचालित करने और अपनी भाषाओं में शिक्षण करने से ज्ञान के नए क्षितिज खुलेंगे, नवाचार के नए-नए आयाम उभरेंगे।अपनी-अपनी मातृ/परिवेश/प्रादेशिक भाषाओं में शिक्षा-संस्कार तथा स्वस्थ आत्म-बोध प्राप्त करके ही ये नई पीढियाँ भारतीय नवोन्मेष का नया युग निर्मित कर सकेंगी। सौभाग्य से नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति ने दशकों बाद भारतीय राष्ट्र के नवनिर्माण में भारतीय भाषाओं की इस अनिवार्य भूमिका को पहचाना है और प्राथमिक से लेकर उच्चतम स्तर की शिक्षा में उनको केन्द्रीय स्थान दिया है। अगले १५-२० वर्षों में इस नई शिक्षा व्यवस्था से आधुनिक ज्ञान-विज्ञान, तकनीक तथा एक पुनर्प्राप्त सांस्कृतिक गौरव  और सभ्यता-बोध से संपन्न होकर जब  भावी भारतीय संसार में पदार्पण करेंगे तब भारत की वास्तविक प्रतिभा का चमत्कार संसार देखेगा। इसका प्राथमिक माध्यम बनेंगी भारतीय भाषाएं।

         मातृ भाषा की यह विशेषता होती है कि यह हमारे लिए सभी भाषाओं में सबसे आसान भाषा होती है।इसे बोलना आसान होता है तथा यह हमारी मूल भाषा तथा प्रांत को दर्शाता है। हम सभी के जीवन में मातृभाषा का एक अलग ही महत्व है। हम चाहे जितनी भी अलग अलग भाषा का ज्ञान प्राप्त कर लें किन्तु को जगह मातृभाषा की है वो जगह कोई और दूसरी भाषा नहीं ले सकती है। बचपन से बोलने के कारण यह सदा हमारे साथ होती है। हम बाद में सीखी हुई  भाषा को भले ही भूल जाएं लेकिन हम मातृभाषा को कभी नहीं भूलते है।भाषा की उन्नति के साथ विचार की स्पष्टता आती है और  विचार ही सारी क्रियाओं का मूल स्रोत है। यदि विचार में शक्ति और स्पष्टता है तो हमारी क्रियाओं का प्रवाह निर्बाध बहता रहेगा और हम उत्तरोत्तर उन्नति करते जाएंगे।मातृभाषा, किसी भी व्यक्ति की सामाजिक एवं भाषायी  पहचान होती है।

विश्वभर में यह स्वीकार किया गया है कि बच्चों के गुणों व क्षमताओं का अधिकतम विकास मातृभाषा में शिक्षा प्रदान करने से ही संभव हो सकता है। शैक्षणिक मनोविज्ञान के अनुसार मातृभाषा में संप्रेषण एवं संज्ञान सहज तथा शीघ्र हो जाता है। इससे बच्चे कठिन चीजें भी आसानी से समझ लेते हैं, जबकि इतर भाषाओं में बच्चों को रटना पड़ता है, जो उनके पूर्ण मानसिक विकास के लिए ठीक नहीं है। यूनेस्को ने भी इसके महत्व पर मुहर लगाते हुये प्रतिवर्ष 21 फरवरी को मातृभाषा शिक्षण दिवस के रूप में मनाने का आग्रह किया हुआ है। नायर अस्पताल मुंबई में मनोविज्ञान की शिक्षक डॉक्टर जाह्नवी केदारे कहती हैं कि  मातृभाषा से बच्चों का परिचय घर और परिवेश से ही शुरू हो जाता है। इस भाषा में बातचीत करने और चीज़ों को समझने-समझाने की क्षमता के साथ बच्चे विद्यालय में प्रवेश करते हैं। यदि  उनकी इस क्षमता का उपयोग  पढ़ाई के माध्यम के रूप में मातृभाषा का चुनाव करके किया जाये तो इसके सकारात्मक परिणाम देखने को मिलते हैं।
मातृभाषा में शिक्षा देने के प्रमुख उद्देश्यों पर प्रकाश डालते हुए बाल -प्रशिक्षक श्रीमती अर्चना पोहनेर कहती हैं कि (1) विद्यार्थी एवं अध्यापकों  में भाषा ज्ञान द्वारा विचारशीलता उत्पन्न करने, (2) उनमें अपने विचारों के परावर्तन, अभिव्यक्ति व संप्रेषण कुशलता उत्पन्न करने, (3) शिक्षण की भाषा को सरल, बोधगम्य, विषयकेन्द्रित बनाने  तथा  (4) पाठ्य आधारित भाषायी गतिविधियों (श्रवण, पठन, भाषण, लेखन, समझ) के आयोजन में सक्षम बनाने में मातृभाषा अधिक उपयोगी और प्रभावी सिद्ध हुई है । विभिन्न शोध बताते हैं कि बच्चों के पूर्ण मनो-बौद्धिक विकास के लिए आरंभिक शिक्षण मातृभाषा में ही होना चाहिए। आरंभिक शिक्षण मातृभाषा में होने से बोध एवं संज्ञान क्षमता बढ़ती है। छोटे बच्चों के संदर्भ में  प्रत्यक्ष अनुभव है कि गणित या सामान्य चीजें भी अंग्रेजी में उन्हें नहीं समझ आतीं, जबकि वही चीज  उनकी मातृभाषा में बतायी  जाए तो उनके लिए ज्यादा कठिनायी  नहीं आती।
नई शिक्षा नीति मसौदे में भी मातृभाषा की शक्ति को रेखांकित करते हुए पैरा 4.8 में कहा गया है कि जहां तक हो सके आठवीं कक्षा तक की पढ़ाई मातृभाषा में ही होनी चाहिए। पैरा 22.8 में तो उच्चतर शिक्षा में भी शिक्षण माध्यम के रूप में भारतीय भाषाओं के उपयोग को बढ़ाने की बात की गई  है, लेकिन इन अनुशंसाओ  को लागू करने लेकर कोई अनिवार्यता नहीं है।मातृभाषा हमें राष्ट्रीयता से जोड़ती है और देश प्रेम की भावना उत्प्रेरित भी करती है। मातृभाषा ही किसी भी व्यक्ति के शब्द और संप्रेषण कौशल की उद्गम होती है। एक कुशल संप्रेषक अपनी मातृभाषा के प्रति उतना ही संवेदनशील होगा जितना विषय-वस्तु के प्रति। मातृभाषा व्यक्ति के संस्कारों की परिचायक है।इतना ही नहीं, दूसरी भाषाएं सीखने में भी मातृभाषा/परिवेश भाषा में पढ़ने वाले बच्चे आगे पाए गए हैं उन दूसरी श्रेणी के बच्चों की तुलना में जो अन्य भाषा से अपनी शिक्षा प्रारम्भ करते हैं।

आज विश्व की दस प्रमुख बहुराष्ट्रीय कंपनियों का नेतृत्व भारतीय कर रहे हैं तो इसका कारण क्या यह है ? अगर हाँ तो हमारे देश के ग्रामीण और अर्ध शहरी क्षेत्रो में अधिकांश बच्चे आज भी मातृभाषा में ही प्रशिक्षित होते हैं तो उनमें इतनी तीव्रता क्यों नहीं होती ? क्यों हमारे पास सुन्दर पिचाइयों की भरमार नहीं है ? श्रीमती अर्चना पोहनेर कहती हैं कि उनके शिक्षा के माध्यम लेकर शोध है क्या ?वहा कौन- कौनसी भाषा मे बोलते थे, घर पर कौन सी भाषा में  बोलते थे, किस उम्र मे उन्हेने इंग्लिश सिखा, कौन सी कक्षा तक वो अपनी मातृभाषा में पढ़े ? परिसर भाषा मे सीखे ऐसी अनेक बाते हो सकती है इसलिए पहले  विन्दुओं को देखा जाना चाहिए।किन्तु  श्री दिलीप केलकर  कहते हैं कि पहली बात यह है कि अपवादों को विशेष विषय के रूप में लेना चाहिए उनको जनरलाइज नहीं  चाहिए। इसका दूसरा पक्ष यह है कि मातृभाषा में सीखी हमारे देश की सुन्दर पिचाई जैसी प्रतिभाओं ने विश्व स्तर पर अपने ज्ञान का डंका बजवाया है। इसका श्रेय हमारी वैदिक शिक्षा पद्धति को है। अंग्रेजी हमारे देश की उपरोक्त प्रतिभाओं की द्वितीयक भाषा है और उन्होने अंगेजों और अमेरिकियों को उनके घर में हराया है तो उसके मूल में वैदिक शिक्षण है। अगर हम इस अपवादों को छोड़ दें तो भी यह पाया गया है कि प्रारम्भ में मातृभाषा में प्रशिक्षित बच्चों में अन्य भाषाएँ सीखने की क्षमता भी अधिक होती है ,जिन बच्चों को बहुभाषी बनाया जाता है उनकी प्रतिभा का विकास बहुत तीव्र गति से संभव होता है।

 प्रसिद्ध भाषा वैज्ञानिक रवींद्रनाथ श्रीवास्तव लिखते हैं कि प्रयोजन की दृष्टि से मातृभाषा के दो आयाम हैं। पहले रूप में मातृभाषा का अर्थ है मां की भाषा अर्थात झूले-पालने की भाषा, जिसके द्वारा शिशु अपने भाषाई बोध एवं जीवन बोध का निर्माण करता है, लेकिन पश्चिम से अलग भारत जैसे बहुभाषी देश में मातृभाषा का एक और भी आयाम है। वह भाषा भी मातृभाषा है जो सड़क, बाजार और व्यापक सामाजिक जीवन की भाषा है, जिसके माध्यम से व्यक्ति विचार, संस्कार और जातीय इतिहास एवं परंपरा से जुड़ता है।  जब हम अपनी मातृभाषा में बातचीत करने लग जाते हैं तो अपनापन  होने लगता है , लोगों के साथ हमारा सहकारिता का भाव बढ़ जाता है. आजकल जो विचार और क्रिया में अंतर  है वह  मातृभाषा का समुचित आदर ना होने के कारण ही हो रहा है।’ विचार’ पढ़े- लिखे लोगों के हाथ में है जो प्राय मातृभाषा से विमुख रहते हैं और ‘ क्रिया ‘मातृभाषा भाषी अनपढ़ों के हाथ में हैं जिससे  बहुत सी सामाजिक सुधार संबंधी योजनाएं निष्फल हो जाती हैं। भारतवर्ष में जो मौलिकता का अभाव है उसका बहुत कुछ कारण यह भी है कि हमारी शिक्षा का माध्यम हमारी मातृभाषा नहीं है। हम विचार किसी और भाषा में करते हैं और शिक्षा दूसरी भाषा में इसलिए हमारी शिक्षा हमारे मानसिक संस्थान का अंग नहीं बन पाती ,इसलिए वर्तमान शिक्षा द्वारा प्राप्त ज्ञान फलता -फूलता नहीं है। मातृभाषा माता के दूध के समान पवित्र और स्वास्थ्यवर्धक है, माता के सामान्य हमारी गुरु है और उसी के सामान स्नेहमयी  है। तभी तो भारतेन्दु हरिश्चंद्र ने कहा था -‘ निज भाषा की उन्नति है सब उन्नति का मूल’।

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