माधवदास ममतानी – विभूति फीचर्स
श्री गुरू नानक देवजी के नवें स्वरूप ‘श्री गुरू तेग बहादरजीÓ का जन्म पंजाब के प्रसिद्ध शहर अमृतसर में वैशाख वदी 5 संवत 1678 अर्थात 12 अप्रैल 1621 को हुआ। इनके पिता का नाम श्री हरगोबिंद है, जो सिख धर्म के छठवें गुरू हैं। इनकी माता का नाम नानकी है।

श्री गुरू तेग बहादुर को प्रारंभिक शिक्षा विद्वान बाबा बुढ्ढा से प्राप्त हुई। बालक तेग बहादुर को पंजाबी के साथ-साथ ब्रज (हिंदी) भाषा की शिक्षा भी दी गयी। सिख धर्मदर्शन के अधिकारी विद्वान भाई गुरदास ने बालक को दर्शन-साहित्य आदि विषयों में प्रवीण किया। बालक ने इसी दौरान हिंदू, इस्लाम आदि धर्मो का गहन अध्ययन किया।

महान परोपकारी व समाज कल्याणकारी:- श्री गुरु तेग बहादुर जी ने कीरतपुर शहर से 6 मील की दूरी पर स्थित रियासत कलिलूर दून में राजा भीमचंद के पिता दिलीपचंद से 5 मील ‘मुरबा माखोवलÓ गांव की जमीन 1 लाख 57 हजार रुपए में खरीदकर अनंदपुर नगर बसाया जो कि गुरूओं के बसाये गए पांच प्रमुख तख्तों में से एक है। समाज कल्याणकारी व परोपकारी गुरुजी ने साधसंगत व गरीबों-अनाथों के रहने के लिए यह नगर बसाया, जहां वे सुख व आराम को प्राप्त कर सकें। सन् 1721 विक्रमी को अनंदपुर साहिब का निर्माण कार्य संपूर्ण करने के पश्चात परिवार सहित कुछ संगत लेकर अंतर्यामी गुरुजी पूरब दिशा की ओर चल दिए। रास्ते में अनेक तीर्थ स्थानों पर संतों एवं नाम जपने वालों को सही राह बताई और श्रद्धालुओं-प्रेमियों को दर्शन देकर निहाल किया। गुरूजी ने अनेक अहंकारियों का अहंकार तोड़ उन्हें प्रभु सिमरन व सत व्यवहार का उपदेश देकर जगह-जगह गरीबों व जरुरतमंदों को अन्न-वस्त्र दान दिया। वे रोपड़ होकर मूलोवाल गांव पहुंचे। वहां के रहवासी भाई मैया और गोंदा गुरुजी का दर्शन करने आए और माथा टेककर गुरुजी के पास श्रद्धा से बैठ गए। गुरुजी ने कहा कि पीने का ठंडा जल लेकर आओ। भाई गोंदे ने कहा महाराज यहां जो कुंआ है उसका जल खारा है और उसमें बहुत कचरा पड़ा रहता है। गांव वाले इस कुंए का पानी नहीं पीते यदि आप हुकुम करें तो यहां से कुछ दूर एक कुंआ है उसका पानी लाएं।

परोपकारी गुरुजी ने कहा कि इस कुंए में से कचरा निकलवाकर मरम्मत कराओ व इस कुंए में से ‘वाहिगुरुÓ उच्चारण कर हमारे पीने के लिए पानी ले आओ। भाई गोंदा कुंआ साफ कर कुंए से पानी लेकर आया व पानी को मीठा, ठंडा व स्वच्छ देखकर हैरान हो गया। गुरुजी ने उस जल को पीकर प्रसन्न होकर वचन फरमाया कि यह जल स्वच्छ और बहुत मीठा है, आज से यह कुंआ ‘गुरु का कुंआÓ कहलाएगा। अब इसका पानी खारा नहीं रहेगा और गांव वालों को दूर-दूर से पानी लाने का कष्ट नहीं करना पड़ेगा। इस गांव में और नौ कुएं बनेेंगे परंतु यदि कोई ग्यारवां कुंआ बनवाएगा तो वह ढह जाएगा। गुरुजी के वचनानुसार आज तक उस गांव में दस ही कुंए हैं कोई ग्यारहवां कुंआ नहीं बना है।

जब लोगों को ज्ञात हुआ कि गुरु के वचन से कुंए का खारा जल मीठा हो गया है तो बड़ी श्रद्धा व भावना से भेंट लेकर गुरुजी के दर्शन के लिए आए और गुरुजी ने वहां सभी को सतिनाम और सतव्यवहार का उपदेश देकर परमात्मा के नाम से जोड़ा।

गुरुजी ने अपने जीवन काल में कई शहरों का भ्रमण किया व अपनी आध्यात्मिक वाणी से शिष्यों को उपदेश दिये। पूर्व के तीर्थों के उद्धार व सुधार के लिए चक माता नानकी (आनंदपुर) से यात्रा आरंभ की। चक माता नानकी के निर्माण के बाद पहले कीतरपुर से 3 मील दूर एक गांव में पड़ाव लगाया। उस समय वर्षा से उस क्षेत्र के गरीब किसानों व कामगारों की फसलें, कच्चे मकान इत्यादि तबाह होकर गिर गए थे। गुरुजी ने अपने कोषपति को हुकुम दिया कि वे उस भेंट में मिले धन को जिन-जिन गावों में मकान गिर गए हैं जिनकी फसलें तबाह हो गई हैं उन्हें सहायता देने में लगाएं। उस गांव में शुद्ध पानी की गंभीर समस्या थी। गुरुजी ने नए कुंए बनाने के लिए पर्याप्त धन की सहायता की। गुरुजी उस गांव के लोगों के भोलेपन व भक्तिभाव पर इतने प्रसन्न हुए कि उन्होंने उस गांव वालों को वर दिया कि ”जो आपको दुख देगा वह कभी सुखी नहीं रहेगा।

कीरतपुर के पश्चात गुरुजी सेफाबाद पहुंए। वहां के नवाब सैफुद्दीन की हार्दिक तमन्ना थी कि गुरुजी उसे परिवार सहित घर में दर्शन दें। गुरुजी सैफुद्दीन के यहां दो सप्ताह रहे व जाते समय गुरुजी ने उसे उपदेश दिया ”हर क्षण परमात्मा को याद रखना, आए हुए फकीरों व दरवेशों की सेवा करना, गरीबों अनाथों की सहायता करना तथा शुभ कर्मों से कभी भी संकोच न करना।ÓÓ इस तरह गुरुजी हमेशा दीन दुखियों की सहायता करने के लिए सभी को प्रेरित करते थे।
तद्नंतर गुरुजी केथल, पहोवा, बरना, करणखेड़ा होते हुए कुरुक्षेत्र पहुंचे। कुरुक्षेत्र में गुरुजी उस पवित्र स्थान के निकट ठहरे जहां गुरु नानक, गुरु हरिगोबिंद और गुरु हरिराय साहब ने चरण डाले थे। कुरुक्षेत्र से गुरुजी बानपुर पहुंचे, जहां एक किसान ने गुरुजी को गांव में पानी की विकट समस्या व गांव की गरीबी से अवगत कराया। तब दयालु गुरुजी ने मोहरों से भरा हुआ बदरा (थैली) दिया और आदेश दिया कि यहां एक कुंआ बनवाओ व जमीन खरीदकर सुंदर धर्मशाला बनवाओ जहां हरी सिमरन/कीर्तन हो। तब से इस गांव का नाम ‘बानी बदरपुरÓ के नाम से प्रसिद्ध हुआ।

इस तरह गुरुजी ने अपनी यात्रा के दौरान दीन दुखियों व जरुरत मंदों की सामयिक सहायता की। उन स्थानों पर स्थित गुरुद्वारों में अभी भी संतों-फकीरों, यात्रियों को गुरु का लंगर व अन्य सहायता प्रदान होती हैं। परोपकारी गुरुजी परमात्मा के नाम से जोड़ने के साथ-साथ समाज कल्याण के कार्यों में भी रुचि रखते थे जिसके ज्वलंत उदाहरण उपरोक्त वर्णित है। अन्तत: हमें भी गुरुजी द्वारा बताए मार्ग पर चलकर प्रभु सिमरन के साथ-साथ समाज कल्याण के कार्यों एवं सतव्यवहार में रुचि लेनी चाहिए।

कालांतर में गुरुजी ने हिंदू धर्म के तिलक जनेऊ की रक्षा के लिए 19 दिसंबर 1675 ईसवी (साका मघर सुदी 5 संवत् 1732) को शहीदी दी। जिसकी समकक्ष अंग्रेजी तिथि इस वर्ष रविवार 17 दिसंबर 2023 को है। ऐसे महान परोपकारी व समाज कल्याणकारी श्री गुरू तेग बहादर को उनके शहीदी दिवस पर कोटि कोटि नमन। (विभूति फीचर्स)

Previous articleपंजाब के आई.ए.एस और आईपीएस अफसरों की पहली पसंद बना मोहाली
Next articleआदर अभिनन्दन “आभार मिशन सिलक्यारा’’ कार्यक्रम में श्रमिक संगठनों ने मुख्यमंत्री धामी का किया आभार व्यक्त

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here