अंजनी सक्सेना
 
भारत एक ऐसा विशिष्ट देश है जहां ऋषि समान व्यक्तित्व वाली विभूतियों ने राजनीति में भी अपना योगदान दिया
है। प्राचीन राजर्षियों से लेकर स्वामी विवेकानंद और स्वामी दयानंद भी इस परम्परा की कड़ी रहे हैं। इसी परंपरा की
एक कड़ी पं. दीनदयाल उपाध्याय को माना जाये तो कोई अतिश्योक्ति न होगी। पं. दीनदयाल उपाध्याय का 
व्यक्तित्व राजनीतिक होते हुये भी ऋषि व्यक्तित्व था। पं. दीनदयाल उपाध्याय मेधा सम्पन्न पुरुष तो थे ही साथ ही वे आजीवन ब्रह्मचारी, महान चिन्तक, कर्मयोगी, सिद्धांतवादी तथा एक तपस्वी के समान जीवन जीने वाले पुरुष
थे।

आमतौर पर अधिकांश महापुरुषों को अपने जीवन के आरंभिक दिनों में- कष्टों का सामना करना पड़ता है, तथा कष्टों
के इस दावानल पर चलकर ही महापुरूष कुंदन बनकर निखर उठते है। यही सब कुछ दीनदयाल जी के साथ भी हुआ।
25 सितम्बर 1916 को नाना के गांव नगला चन्द्रभान (मथुरा जिला) में दीनदयाल जी का जन्म हुआ, लेकिन वे ढाई
वर्ष की अवस्था में पितृविहीन तथा सात वर्ष की अवस्था में मातृविहीन हो गये। नौ वर्ष की अवस्था में ही पालक नाना
भी स्वर्गारोहण कर गये। अब दीनदयाल जी का पालन-पोषण मामा-मामी के आश्रय पर होने लगा। पन्द्रह वर्ष की
आयु तक पहुंचते-पहुँचने मामा-मामी की भी मृत्यु हो गयी। विधाता शायद दीनदयाल जी की अभी और भी परीक्षा
लेना चाहना था। तभी तो तीन वर्ष बाद ही पंडित जी के छोटे भाई शिवदयाल की भी मृत्यु हो गयी, उसके ही अगले वर्ष
नानी की भी मृत्यु हो गयी। दीनदयान उपाध्याय को विधाता की क्रूर परीक्षा के चलते अपने प्रियजनों की मृत्यु का
गहरा अनुभव हुआ, शायद यही उनके सन्यासी समान जीवन के पीछे का रहस्य था क्योंकि मृत्यु की इस अनवरता ने
उन्हें जीवन की क्षणभंगुरता का स्पष्ट अहसास करा दिया था।

बचपन के इन घोर पीड़ादायी अनुभवों के बाद भी उनकी पढ़ाई अनवरत चलती रही, यद्यपि नियमित रूप से पढऩा वे
नौ वर्ष की उम्र में आरंभ कर पाये थे। दसवीं और इंटरमीडियेट की बोर्ड की परीक्षा सर्वाधिक अंकों के साथ उत्तीर्ण करने
पर उन्हें सीकर के महाराजा तथा घनश्याम दास बिड़ला ने स्वर्ण पदक, मासिक छात्रवृत्ति तथा पुस्तकों की खरीदी के
लिये नगद पारितोषिक भी दिया था।

कानपुर में बी. ए. के अध्ययन के दौरान ही पंडित जी का सम्पर्क राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से हुआ। यहां से उनका
सामाजिक जीवन भी प्रारंभ हुआ। संघ द्वारा आयोजित बौद्धिक परीक्षा में पंडित जी ने प्रथम स्थान प्राप्त किया था।
बाद में वे प्रशासनिक परीक्षा में भी बैठे, प्रशासनिक सेवा हेतु उनका चयन भी कर लिया गया. लेकिन तपस्वी मना इस
व्यक्तित्व को भला अंग्रेजों की नौकरी कैसे पसन्द आती इसलिये वे बी. टी. करने प्रयाग (वर्तमान इलाहाबाद) चले
गये।

आगे चलकर यही व्यक्तित्व न केवल एक महान चिंतक, कर्मयोगी और एकात्म मानववाद के प्रणेता के रूप में उभरा
बल्कि यह भारतीय लोकतंत्र के पुरोधा महापुरूष के रूप में भी उभरकर सामने आया। पंडित उपाध्याय श्री केशवराम
बलिराम हेडगेवार के विचारों से प्रभावित होकर लोक सेवा और आत्मपरिष्कार के पथ पर बढ़े थे। डॉ. हेडगेवार ने
उनके त्याग और कर्तव्यनिष्ठा को देखकर ही उन्हें राजनीति के पथ पर अग्रेषित किया। आगे चलकर अपनी
अध्ययनशीलता और चिन्तन मनन के आधार पर उपाध्याय जी ने एकात्म मानववाद के विचार सूत्र का प्रादुर्भाव
किया उनके इसी एकात्म मानववाद ने उन्हें भारत के महान मनीषियों की श्रेणी में ला दिया है।

एकात्म मानववाद के सिद्धांत के प्रचार-प्रसार में उन्होंने गांवों की उन्नति पर सर्वाधिक कार्य किया, इसके लिये
उन्होंने अंत्योदय की योजना भी बनायी। इस योजना के द्वारा उन्होंने गांव के सबसे निर्धन व्यक्ति को समर्थ बनाने
के प्रयास किये। उनका यह विचार था कि राष्ट्र निर्माण के लिये जीवन मूल्यों की प्रतिष्ठा अनिवार्य है तथा राष्ट्र
निर्माण में राष्ट्र के प्रत्येक व्यक्ति का उपयोग होना चाहिये, इसके लिये प्रत्येक राष्ट्रवासी को काम मिलना ही
चाहिये।

पं. दीनदयाल उपाध्याय जहां एकात्म मानववाद के प्रणेता थे, वहीं ये भारतीय लोकतंत्र के पुरोधा भी थे। लोकतंत्र की
खिल्ली उड़ाने वाले आज के तथाकथित नेताओं में पंडित जी के समान कोई नेता मिलना असंभव ही है। हमारा देश
यद्यपि विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र माना जाता है। लेकिन यहां चुनाव जीतने के लिये किस प्रकार के हथकंडों का

प्रयोग किया जाता है। हम सभी उनसे भलीभांति परिचित हैं। इन्हीं परिस्थितियों में पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने
लोकतंत्र की प्रतिष्ठा को अक्षुण्ण रखने के अनेक प्रयास किये। कश्मीर के मुद्दे पर उनका आंदोलन और सत्याग्रह,
गोवा की मुक्ति के लिये संघर्ष तथा कच्छ सत्याग्रह के लिये दिल्ली में प्रदर्शन उनकी कुशल नेतृत्व क्षमता के कारण
ही सफल हो सके थे। बाद में यही मुद्दे भारतीय जनसंघ की पहचान बन गये थे।

पं. दीनदयाल राजनीति में होते हुये भी संत पुरुष थे, इसीलिये उन्होंने पहले तो कोई चुनाव ही नहीं लड़ा लेकिन चीनी
आक्रमण में भारत की दुखद पराजय के बाद सम्पूर्ण विपक्ष के जोर देने पर वे उसके संयुक्त क्षेत्र से चुनाव मैदान में
उतरे। यहां भी उनके आदर्श और सिद्धांत ही सर्वोपरि रहे। जाति के आधार पर चुनावी सभा को संबोधित करने के
प्रस्ताव को कठोरतापूर्वक ठुकराकर वे चुनावी मैदान में तो पराजित हो गये लेकिन नैतिक धरातल पर वे एक अद्भुत
मिसाल कायम कर गये। चुनाव हारने के बाद जीतने वाले व्यक्ति को माला पहनाने वाले वे पहले व्यक्ति थे। ऐसा
करना तो पंडित दीनदयाल उपाध्याय जैसे विनम्र एवं कोमल व्यक्तित्व के लिये ही संभव था।

पं. दीनदयाल उपाध्याय राजनीति के अलावा भारतीय संस्कृति और अर्थशास्त्र के भी प्रकांड विद्वान थे। साहित्य के
क्षेत्र में भी पंडित जी लगातार सक्रिय रहे। राष्ट्रधर्म (मासिक पत्रिका) तथा पांचजन्य (समाचार पत्र) में पंडित जी ने
साहित्य एवं पत्रकारिता दोनों का ही सामंजस्य किया। बाद में भले ही ये दोनों पत्र एवं पत्रिका जनसंघ के मुखपत्र बन
गये, लेकिन भारतीय संस्कृति के प्रचार-प्रसार में राष्ट्रधर्म के योगदान को नकारा नहीं जा सकता है।
आज जबकि भारतीय संस्कृति पर चारों ओर से हमले हो रहे है तब राष्ट्रीय संस्कृति पर वर्षों पूर्व कहे गये पंडित जी के
कुछ वाक्य हमें आज भी प्रासंगिक लगते है।

पंडित जी का कथन था कि आज स्वतंत्र होने पर आवश्यक है कि हमारे प्रवाह की संपूर्ण बाधायें दूर हों तथा हम अपनी
प्रतिभा के अनुरूप राष्ट्र के सम्पूर्ण क्षेत्रों में विकास कर सकें। राष्ट्र भक्ति की भावना का निर्माण करने और उसको
साकार स्वरूप देने का श्रेय भी राष्ट्र की संस्कृति को ही है तथा वही राष्ट्र की संकुचित सीमाओं को तोड़कर मानव की
एकात्मता का अनुभव कराती है अत: संस्कृति की स्वतंत्रता परम आवश्यक है। बिना उसके राष्ट्र की स्वतंत्रता
निरर्थक ही नहीं टिकाऊ भी नहीं रह सकेगी।

पंडित दीनदयाल उपाध्याय अपने जीवनकाल में ही जिस स्तर पर पहुंच गये थे वहां वर्ण, जाति, धर्म या संप्रदाय सभी
की सीमायें टूट चुकी थी। वे ऐसे विराट पुरुष थे जो चुपचाप ज्ञात भाव से स्वयं ही मौत की गोद में समा गए। उनकी
मृत्यु का कारण आज भी अज्ञात है। कहा जाता है कि ग्यारह फरवरी 1968 को रेलयात्रा के दौरान ही उनकी हत्या कर
दी गयी थी। जीवन भर वे मानव मात्र के बीच स्नेह का, सौहाद्र्र का और सर्वधर्म समभाव का संदेश प्रसारित करते
रहे।

एकात्म मानववाद का उनका संदेश आज भी प्रासंगिक है। आज भी उनके संदेश को और अधिक प्रसारित तथा
कार्यान्वित करने की आवश्यकता है और यही उन्हें सच्ची श्रद्धांजलि होगी। (विभूति फीचर्स)

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