– अशोक भाटिया 
राज्य की कार्यपालिका के प्रमुख राज्यपाल  होते हैं। यह पद हमें अंग्रेजों से विरासत में मिला है जिसकी शुरूआत 1858 में ही हो गई थी। संविधान के अनुच्छेद 155 के अनुसार राज्यपाल की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा प्रत्यक्ष रूप से की जाएगी परंतु वास्तव में उनकी नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा केंद्रीय मंत्रिमंडल की सिफारिश पर की जाती है। राज्यपाल, जो मंत्री परिषद की सलाह के अनुसार कार्य करते हैं, उनकी स्थिति राज्य में वही होती है जो केंद्र में राष्ट्रपति की है। संविधान निर्माता डा. बी.आर. अम्बेडकर ने 31 मई, 1949 को कहा था कि राज्यपाल का पद सजावटी है तथा उनकी शक्तियां सीमित और नाममात्र हैं।
फायनैंस बिल  के अलावा कोई अन्य बिल राज्यपाल के सामने उनकी स्वीकृति के लिए पेश करने पर वह या तो उसे अपनी स्वीकृति देते हैं या उसे पुनर्विचार के लिए वापस भेज सकते हैं। ऐसे में सरकार द्वारा दोबारा बिल राज्यपाल के पास भेजने पर उन्हें उसे पारित करना होता है। कुछ समय से गैर भाजपा शासित राज्यों में वहां के सत्तारूढ़ दलों तथा राज्यपालों के बीच टकराव काफी बढ़ रहा है। जिन राज्यों में  ज्यादा टकराव बढ़ा है उनमें प्रमुख है  तमिलनाडु, केरल, तेलंगाना, दिल्ली और पश्चिम बंगाल  ।
इन सभी राज्यों में गैर-भाजपा सरकार है और एक बात कॉमन है। वो बात है राज्य सरकार का राज्यपाल के साथ विवाद। बीते कुछ समय से पांचों राज्यों में राज्यपाल बनाव राज्य सरकार देखने को मिल रहा है। सभी राज्यों में सरकारों और राज्यपालों के बीच बयानबाजी चलती रहती है और एक दूसरे के कामकाज में रोड़े अटकाए जाने का आरोप लगाया जाता है। हाल ही में गैर-भाजपा शासित तीन दक्षिणी राज्यों में राज्यपालों और सत्तारूढ़ सरकार के बीच टकराव काफी बढ़ गया। तमिलनाडु ने आरएन रवि को वापस बुलाने की मांग की, केरल ने राज्य के विश्वविद्यालयों के कुलाधिपति पद पर राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान की जगह शिक्षाविदों को नियुक्त करने के लिए अध्यादेश मार्ग प्रस्तावित किया और तमिलिसाई सुंदरराजन ने संदेह जताया कि तेलंगाना में उनका फोन टैप किया जा रहा है।
केरल में सत्तारूढ़ एलडीएफ का पूर्व में राज्यपाल खान के साथ कई बार टकराव हो चुका है। एलडीएफ ने कहा कि उसने राज्य के विश्वविद्यालयों में राज्यपाल की जगह प्रतिष्ठित शिक्षाविदों को कुलाधिपति बनाने के लिए बुधवार को अध्यादेश लाने का फैसला किया। कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी  दोनों ने इस फैसले का विरोध किया है। मुख्यमंत्री कार्यालय के बयान के अनुसार मंत्रिमंडल की बैठक में फैसला किया गया कि खान से अध्यादेश को मंजूरी देने की सिफारिश की जाएगी जो विश्वविद्यालय कानूनों में कुलापधिपति की नियुक्ति से संबंधित धारा को हटा देगा। इस धारा में कहा गया है कि राज्यपाल राज्य के 14 विश्वविद्यालयों के कुलाधिपति भी होंगे।तेलंगाना की राज्यपाल ने तेलंगाना राष्ट्र समिति शासित तेलंगाना में ‘अलोकतांत्रिक’ स्थिति का दावा किया। तमिलिसाई सुंदरराजन ने संदेह जताया कि तेलंगाना में उनका फोन टैप किया जा रहा है। उनके इस बयान पर इस पर अब विवाद गहराता जा रहा है।
तेलंगाना सीपीआई के वरिष्ठ नेता के नारायण ने तो यहां तक कह दिया कि हमारे देश के लिए गवर्नर सिस्टम उपयोगी ही नहीं और सभी पीएम मोदी से आह्वान किया कि सभी राज्यपालों को तुरंत हटा देना चाहिए।तमिलनाडु के संबंध में सत्तारूढ़ द्रमुक के नेतृत्व वाले धर्मनिरपेक्ष प्रगतिशील गठबंधन  ने राज्यपाल रवि को बर्खास्त करने की मांग करते हुए राष्ट्रपति भवन का दरवाजा खटखटाया और आरोप लगाया गया कि उन्होंने ‘सांप्रदायिक घृणा को भड़काया है।‘गठबंधन के संसद सदस्यों ने राष्ट्रपति कार्यालय को प्रस्तुत अर्जी में राजभवन के पास लंबित विधेयकों को भी सूचीबद्ध किया गया है और स्वीकृति के लिए देरी पर सवाल उठाया गया। इन विधेयकों में राज्य को नीट मेडिकल परीक्षा के दायरे से छूट देने के प्रावधान वाला विधेयक भी शामिल है।
पश्चिम बंगाल के तत्कालीन राज्यपाल जगदीप धनखड़ और मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के बीच संबंध कुछ अच्छे नहीं थे। दोनों ही एक दूसरे की सार्वजनिक रूप से आलोचना कर चुके हैं। ये विवाद शुरू हुआ कोरोना के कारण लॉकडाउन के बाद, जब राज्यपाल ने नियमित रूप से राज्य प्रशासन और पुलिस को लॉकडाउन को प्रभावी ढंग से लागू करने में उनकी “विफलताओं” के लिए खींच लिया। 15 अप्रैल, 2020 को उन्होंने ट्वीट किया, “#कोरोनावायरस को दूर करने के लिए लॉकडाउन प्रोटोकॉल को पूरी तरह से लागू करना होगा। पुलिस और प्रशासन या धार्मिक सभाओं पर अंकुश लगाने में विफल  है ममता ।”इसके बाद, सितंबर 2020 में विवाद ने एक नया मोड़ ले लिया, क्योंकि मुख्यमंत्री  ने राज्यपाल को नौ पन्नों का एक पत्र लिखा, जिसमें तत्कालीन पुलिस महानिदेशक  वीरेंद्र द्वारा बंगाल में कानून और व्यवस्था को संभालने पर सवाल उठाने के लिए उनकी आलोचना की गई थी। धनखड़ ने राज्य के पुलिस प्रमुख पर कानून-व्यवस्था की स्थिति के बारे में उनके सवालों का “दो-पंक्ति” जवाब भेजने के लिए फटकार लगाई और उन्हें तलब किया।
दिल्ली में भी गैर-भाजपा सरकार है। यहां उप-राज्यपाल तो बदल रहे हैं, लेकिन सरकार के साथ विवाद थमने का नाम नहीं ले रहा है। नजीब जंग के बाद अब केजरीवाल का विवाद वीके सक्सेना के साथ है। अरविंद केजरीवाल का आरोप है कि एलजी उनकी सरकार की महत्वपूर्ण योजनाओं की स्वीकृति में रोड़ा अटका रहे हैं तो वहीं एलजी का कहना है कि सरकार जनता के हित में काम नहीं कर रही है। एलजी इसको लेकर कई लेटर भी लिख चुके हैं। एलजी ये भी कह चुके हैं कि मुख्यमंत्री  की तरह ही बाकी मंत्री भी उनकी बात नहीं सुनते हैं। अब हालात यह हैं कि एलजी ने दिल्ली सरकार की कई योजनाओं के लिए जांच समितियों का गठन कर दिया है।
गौरतलब है कि जो टकराव है राज्यपाल और मुख्य मंत्रियों के बीच में या राज्य सरकार के बीच में, वो किसी के लिए भी अच्छा नहीं है। न राज्यपाल  के लिए अच्छा है, न राज्य सरकार के लिए अच्छा है, न केंद्र सरकार  के लिए अच्छा है और न ही जनता के लिए अच्छा है। क्योंकि राज्यपाल का रोल बहुत पैसिव होता है, एक्टिव रोल नहीं होता है लेकिन तीन-चार चीजें हैं जहां राज्यपाल की भूमिका स्पष्ट है। देखा जाए तो राज्यपाल और राष्ट्रपति  वो एक संविधान के रक्षक  माने जाते हैं और एक नैतिक भूमिका होती है उनकी। दोनों को एक पॉलिटिकल हेड माना जाता है, चाहे देश के हों, चाहे स्टेट के हों। अगर कोई बिल जाता है सरकार की तरफ से तो राष्ट्रपति  उस पर हामी न भरे, उस पर महीनों तक बैठ सकते हैं, अगर कुछ न करें। ऐसा होता भी है।
चुनाव  के बाद जब सरकार इलेक्ट होती है तो किसको मुख्यमंत्री  या  प्रधानमंत्री  बनाना है, वो भी राज्यपाल या राष्ट्रपति  तय  करेगा कि किसको बुलाया जाए और मैजोरिटी अप्रूव किया जाए।असेंबली को कन्वीन करना या पार्लियामेंट को कन्वीन करना, इसमें भी रोल होता है राष्ट्रपति  और राज्यपाल का। इससे ज्यादा अगर राज्यपाल प्रो-एक्टिव हो जाता है या स्टेट गवर्नमेंट अनकॉन्स्टिट्यूशनल चीजें करने लगती है, तो ये सब बहुत ग्रे एरियाज हैं, जिनमें अब हम घुसते जा रहे हैं और एक राज्य  में नहीं हो रहा है। पहले भी जब धनकड़ और ममता बनर्जी में घमासान महाभारत की तरह हुआ, अब जब धनकड़ उप राष्ट्रपति  बन गए हैं, पश्चिम बंगाल में कुछ शांति है। लेकिन जैसा कि आपने कहा सदर्न स्टेट्स में चाहे तमिलनाडु है, केरल में तो ऑर्डिनेंस ही कर दिया है कि राज्यपाल चांसलर नहीं रहेगा यूनिवर्सिटीज का। यहां तक कि वो वाइस चांसलर यानी कुलपतियों को अपॉइंट नहीं कर सकते हैं। और आरिफ मोहम्मद खान जो राज्यपाल हैं केरल के, उन्होंने कहा है कि अगर ऑर्डिनेंस उनके पास आया तो वह उस पर कोई टिप्पणी नहीं करेंगे, सीधे प्रेसिडेंट को रेफर करेंगे। अब प्रेसिडेंट डिसाइड करता है, राज्यपाल को फॉर्मली अपॉइंट करता है प्रेसिडेंट और विदड्रॉ भी कर सकता है अपना प्लेजर कि इनको हटाया जाए। प्रेसिडेंट का मतलब केंद्र सरकार, मतलब कि प्रेसिडेंट केंद्र सरकार के कहने पर ही कह रहे हैं, जो भी कदम लेते हैं। तो अब क्या होगा, ये जो ऑर्डिनेंस है, आगे चीजें बढ़ ही नहीं पाएंगी जब तक कि प्रेसिडेंट अपना डिसिजन नहीं देते हैं। अगर आर।एफ। मोहम्मद खान रेफर कर देते हैं, तो कोई बिल पास ही नहीं हो पाएगी, ये जो ऑर्डिनेंस है। तमिलनाडु में तो आर.एन. रवि को विदड्रॉ करने की बात की है वहां की सरकार ने। तो यह बहुत ही अनहैपी, बहुत ही अजीबोगरीब स्थिति है। शायद देश के लिए अच्छा न ही, राज्य  के लिए अच्छा और न ही संविधान  के लिए अच्छा।
यह जरुर है कि  भाजपा जहां पावर में है वहां ये टकराव नहीं दिख रहे हैं, राज्यपाल  के साथ। जहां राज्यपाल भाजपा सरकार के नियुक्त  किए गए हैं। वो हर बार ये होता है, जो सरकार पावर में होती है वही राज्यपाल को नियुक्त  करती है। तो या तो राज्यपाल जैसे उस गद्दी पर बैठे, एकदम गैर राजनितिक  हो जाए, जैसे कि लोक सभा का स्पीकर सरकार नियुक्त  करती है, लेकिन हमलोग उसको मानते हैं , चाहते हैं कि वो बिलकुल अराजनितिक हो जाए। जैसे मुख्य चुनाव अधिकारी । कई पद  ऐसे हैं जहां आपको एक राजनितिक  पार्टी की सरकारनियुक्त  करती है, लेकिन आपका रोल गैर राजनीतिक   होना चाहिए। ऐसा हमारे संविधान में माना गया है। ऐसी हालत  में माना गया है लेकिन ऐसा सही  में नहीं हुआ है। आज की बात नहीं है, पहले भी हुआ है। मामले कोर्ट तक भी गए हैं। दरअसल केंद्र सरकार व राज्य सरकार को मिल कर ऐसे तकरार रोकना चाहिए और संविधान के दायरे में काम करना चाहिए  नहीं तो यह कड़वाहट बढ़ती  जाएगी व संवैधानिक  व्यवस्था में  रूकावट आ जाएगी जो राज्य व केंद्र सरकार के लिए ठीक नहीं है ।(युवराज)
अशोक भाटिया
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