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गौ पूजन से मिलेगी मुक्ति..

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गौमाता की महिमा अपरंपार है। मनुष्य अगर जीवन में गौमाता को स्थान देने का संकल्प कर ले तो वह संकट से बच सकता है। मनुष्य को चाहिए कि वह गाय को मंदिरों और घरों में स्थान दे, क्योंकि गौमाता मोक्ष दिलाती है। पुराणों में भी इसका उल्लेख मिलता है कि गाय की पूंछ छूने मात्र से मुक्ति का मार्ग खुल जाता है।

 गाय की महिमा को शब्दों में नहीं बांधा जा सकता। मनुष्य अगर गौमाता को महत्व देना सीख ले तो गौमाता उनके दुख दूर कर देती है। गाय हमारे जीवन से जु़ड़ी है। उसके दूध से लेकर मूत्र तक का उपयोग किया जा रहा है। गौमूत्र से बनने वाली दवाएं बीमारियों को दूर करने के लिए रामबाण मानी जाती हैं।

 गोपाष्टमी के दिन गाय का पूजन करके उनका संरक्षण करने से मनुष्य को पुण्य फल की प्राप्ति होती है। जिस घर में गौपालन किया जाता है उस घर के लोग संस्कारी और सुखी होते हैं। इसके अलावा जीवन-मरण से मोक्ष भी गौमाता ही दिलाती है। मरने से पहले गाय की पूंछ छूते हैं ताकि जीवन में किए गए पापों से मुक्ति मिले।

लोग पूजा-पाठ करके धन पाने की इच्छा रखते हैं लेकिन भाग्य बदलने वाली तो गौ-माता है। उसके दूध से जीवन मिलता है। रोज पंचगव्य का सेवन करने वाले पर तो जहर का भी असर नहीं होता और वह सभी व्याधियों से मुक्त रहता है। गाय के दूध में वे सारे तत्व मौजूद हैं, जो जीवन के लिए जरूरी हैं। वैज्ञानिक भी मानते हैं कि गाय के दूध में सारे पौष्टिक तत्व मौजूद होते हैं। मीरा जहर पीकर जीवित बच गई, क्योंकि वे पंचगव्य का सेवन करती थीं। लेकिन कृष्ण को पाने के लिए आज लोगों में मीरा जैसी भावना ही नहीं बची।

रोज सुबह गौ-दर्शन हो जाए तो समझ लें कि दिन सुधर गया, क्योंकि गौ-दर्शन के बाद और किसी के दर्शन की आवश्यकता नहीं रह जाती। लोग अपने लिए आलीशान इमारतें बना रहे हैं यदि इतना धन कमाने वाले अपनी कमाई का एक हिस्सा भी गौ सेवा और उसकी रक्षा के लिए खर्च करें तो गौमाता उनकी रक्षा करेगी इसलिए गौ-दर्शन को सबसे सर्वोत्तम माना जाता है।

नेहरू ने वीर सावरकर की बात सुनी होती तो १९६२ का युद्ध नहीं होता

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नेहरू ने वीर सावरकर की बात सुनी होती तो १९६२ का युद्ध नहीं होता

– राजेश झा

    सावरकर वह अद्वितीय व्यक्ति हैं, जिन्होंने पाकिस्तान के जन्म से कई साल पहले भारत के विभाजन की भविष्यवाणी कर दी थी कि कॉन्ग्रेस की तुष्टिकरण की नीतियाँ मुस्लिम लीग का चारा बन जाएँगी और जिसका आख़िरी मुकाम होगा भारत का विभाजन।१९५४  में जब नेहरू पंचशील सिद्धांत लेकर आए तब भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा के महान दूरदर्शी वीर सावरकर ने चेतावनी दी थी कि उनको थोड़ा भी आश्चर्य नहीं होगा अगर चीन भविष्य में भारत की भूमि हड़पने का प्रयत्न करे। यह भविष्यवाणी ८  साल बाद १९६२ में सच सिद्ध हुई, जब चीन ने आक्रमण कर भारत की बहुत बड़ी भूमि पर कब्जा कर भारत को मध्य-एशिया से अलग-थलग कर दिया।

मूल लेख
कोई भी राष्ट्र अपनी पिछली गलतियों का सामना किए बिना आगे नहीं बढ़ सकता। जो राष्ट्र अपनी भूलों से सबक लेने में विफल होते हैं, वे इतिहास के कूड़ेदान में फेंक दिए जाते हैं।हर राष्ट्र के प्रारब्ध में एक समय ऐसा आता है जब उसे परम सत्य को स्वीकार करना चाहिए, चाहे वह कितना भी कड़वा क्यों न हो। संभव है यह स्वीकारोक्ति हमारे भविष्य को सुरक्षित करने में कारगर हो। ऐसे समय जब चीन के बार-बार पीठ पर वार करने, जम्मू-कश्मीर में पाकिस्तान के लगातार आतंकी हमले और एक आंतरिक सुरक्षा स्थिति, जिसमें पैन-इस्लामिक और कम्युनिस्टों की संयुक्त कार्रवाई भारत-राष्ट्र को अस्थिर कर रही है, तब क्या भारत के लिए अपनी राष्ट्रीय सुरक्षा दृष्टि में गियर बदलने का समय आ चुका है? शायद हाँ!
भारत १९६२  से भ्रामक ड्रैगन की प्रकृति से अवगत है। यह मानना पड़ेगा कि प्रधानमंत्री मोदी के आने के बाद भारत ने चीन को रोकने के काफी प्रयास किए, और एक हद तक भारत को चीन के समक्ष एक समान भागीदार के रूप में स्थापित भी किया। इसके साथ ही भारत ने गलवान घाटी में शालीनता के साथ अपना दृढ व्यवहार प्रस्तुत किया।मोदी ने जापान और वियतनाम जैसी चीन विरोधी शक्तियों से दोस्ती करने, म्यांमार जैसी चीन समर्थक शक्तियों को भारत समर्थक बनाने और दक्षिण चीन सागर में चीनी आक्रमण का विरोध करने के साथ ही कोविड महामारी से संबंधित मुद्दों पर चीन विरोधी रुख अपनाने का बड़ा काम भी किया है। कोई भी इस बात से इंकार नहीं कर सकता है कि ३४०० किलोमीटर लंबी भारत-चीन सीमा पर सैन्य और नागरिक बुनियादी ढाँचे के निर्माण की विशाल-योजना चीनी घुसपैठ के लिए उकसावे में से एक थी।

हमें यह भी स्वीकारना होगा, खासकर गलवान घाटी की घटना के बाद दलाईलामा को चीन के बारे में बोलने से रोकने की नीति हमारी रणनीतिक कमजोरी साबित हुई है। जब संयुक्त राष्ट्र द्वारा मौलाना मसूद अजहर को आतंकवादी निरुपित करने का चीन विरोध कर रहा था, तब हमें शिनजियांग में उइगरों और तिब्बत के साथ-साथ चीनी अत्याचारों को अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर उठाना चाहिए था। लेकिन ऐसा नहीं करके भारत ने बड़ी गलती की।
राष्ट्रीय सुरक्षा भूलों की श्रृंखला

राष्ट्रीय सुरक्षा के संदर्भ में इतिहास पर नजर डालने पर पाते हैं कि  राष्ट्रीय सुरक्षा के मोर्चे पर जवाहरलाल नेहरू की गलतियाँ १८६२  के भारत-चीन युद्ध में भारी पड़ीं। नेहरू के पंचशील सिद्धांत के कारण देश  को भारी कीमत चुकानी पड़ी। वह गाँधी की अहिंसा और नेहरू की कम्युनिस्ट विचारधारा के प्रति प्रेम का मिश्रण था। १९५४  में जब नेहरू पंचशील सिद्धांत लेकर आए तब भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा के महान दूरदर्शी वीर सावरकर ने चेतावनी दी थी।सावरकर ने कहा था कि चीन द्वारा तिब्बत को हड़पने के बाद अगर नेहरू पंचशील जैसी लुभावनी बातें चीन के साथ करते हैं तो जमीन हड़पने की चीनी भूख को बढ़ावा मिलेगा और उनको थोड़ा भी अचम्भा नहीं होगा अगर चीन भविष्य में भारत की भूमि हड़पने का प्रयत्न करे। यह भविष्यवाणीभविष्वाणी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वितीय सरसंघचालक गुरु गोलवरकर ने भी की थी। दोनों की भविष्यवाणी ८ साल बाद १९६२ में सच सिद्ध हुई, जब चीन ने आक्रमण कर भारत की बहुत बड़ी भूमि पर कब्जा कर भारत को मध्य-एशिया से अलग-थलग कर दिया।


इसके अतिरिक्त भी भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा पर गाँधीवाद की काली छाया के कई उदाहरण हैं। १९७८ के आसपास गाँधीवादी विचारधारा के प्रभाव में प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई जैसे ईमानदार नेता ने तत्कालीन पाकिस्तान के तानाशाह जनरल जियाउल हक के समक्ष यह आत्मघाती खुलासा किया कि भारत का पाकिस्तान में जासूसी नेटवर्क था और भारत को पाकिस्तान के कहुटा परमाणु रिएक्टर की जानकारी थी।इसके बाद जनरल जियाउल हक ने पाकिस्तान में भारत की गुप्चार व्यवस्थाओं को नष्ट कर दिया, जिसे भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी ने अपने कार्यकाल के दौरान स्थापित किया था। जियाउल हक ने भारत के जासूसों को मरवा दिया, जबकि कुछ अन्य भागने में सफल रहे।

चिंता की बात यह है कि श्रीमती इंदिरा गाँधी के मजबूत राष्ट्रीय सुरक्षा दृष्टिकोण और एक सशक्त प्रधानमंत्री के रूप में मोदी के आगमन के बावजूद, भारतीय सुरक्षा नीति गाँधीवादी छाया से मुक्त नहीं हो सकी है।१९७१ के युद्ध में पाकिस्तान को दो टुकड़ों में तोड़ने के बाद भी हम पीओके के मुद्दे को सुलझाने में नाकाम रहे, जब भारत के पास पाकिस्तान के ९३००० जवान बंदी थे और तो और भारत ने १९७१ के युद्ध में जीते हुए सिंध प्रांत को भी शिमला करार में वापस कर दिया। इससे पहले लाल बहादुर शास्त्री ने भी ताशकंद समझौते के तहत १९६५  के युद्ध में जीते हुए पाक क्षेत्रों को वापस दे दिया था।

आंतरिक सुरक्षा के मोर्चे पर भी भारत ने गाँधी-नीति के प्रभाव में कई गलतियाँ की हैं, विशेषकर इस्लामिक कट्टरपंथी अति वहाबी तत्वों से निपटने में। उदाहरण के तौर पर २०१४ में मोदी सरकार आने के बाद भारत ने तबलीगी जमात के १०  हजार विदेशी प्रचारकों को भारत में आने और वहाबी प्रचार करने की अनुमति दी। यह सब इसके बावजूद हुआ, जबकि भारत के राष्ट्रीय सुरक्षा तंत्र को इस बात की पूरी जानकारी थी कि तबलीगी जमात विश्व का सबसे बड़ा वहाबी आन्दोलन है, जो दुनिया के १५०  से अधिक देशों में फैला हुआ है और इस्लामिक उम्मा (विश्व इस्लामिक भाईचारे) का प्रचार करता है, जो राष्ट्रवाद के विचार के विरुद्ध है। यह स्थिति एक राष्ट्रवादी सरकार के राष्ट्रीय सुरक्षा दृष्टिकोण में कमी का प्रमाण है।
याद रहे कि मोदी और शाह ने इस्लामिक कट्टरपंथियों की योजनाओं पर एक के बाद एक अनेक प्रहार किए। पहले आसाम और उत्तर प्रदेश के चुनाव जीते, जहाँ इस्लामिक कट्टरपंथियों द्वारा यह माना जाता था कि भाजपा ये दोनों प्रदेश कभी भी जीत नहीं पाएगी। फिर इन दोनों ने जम्मू-कश्मीर को धारा-३७० से मुक्त किया। कट्टरपंथियों को तीसरा बड़ा झटका तब लगा जब मोदी सरकार ने राम-मंदिर मुद्दे को न्यायायिक समाधान देने में अहम् भूमिका निभाई। इसके बाद ही शाहीन बाग का षड्यंत्र, जो मोदी और शाह को घेरने की एक चाल थी, इस्लामिक कट्टरपंथियों द्वारा रचा गया।
राम मंदिर की ५०० साल पुरानी समस्या का समाधान और धारा ३७० को हटाना राष्ट्रीय सुरक्षा को प्रभावित करने वाले मुद्दों पर मोदी सरकार की प्रतिबद्धता का प्रमाण था। यह आज की राजनीतिक परिस्थितियों की दृष्टि से अकल्पनीय था। इन निर्णयों ने मोदी और शाह को भारतीय इतिहास के स्वर्णाक्षरों में दर्ज कर दिया है। सावरकर-बोस दृष्टि के अभाव के कारण भाजपा सरकार ने शाहीन बाग़ मुद्दे को बहुत हल्के तरीके से लिया।
जहाँ नरमपंथियों को साथ रखते हुए कट्टरपंथी और अतिवादी मजहबी लोगों को शाहीन बाग मुद्दे पर घेरा जा सकता था, वहाँ भाजपा ने दिल्ली चुनाव को दो मजहबों का मुद्दा बना कर जीतने का प्रयास किया। इसके कारण नरमपंथी और कट्टरपंथी दोनों एकजुट हो गए। यह सावरकर-बोस के राष्ट्रीय सुरक्षा-सिद्धांत के पूर्णत: विरुद्ध था।

हालाँकि, राष्ट्रीय सुरक्षा के मोर्चे पर भारत पिछले कई दशकों की तुलना में कहीं बेहतर स्थिति में है, लेकिन यह तथ्य पिछली सरकारों की तरह बना हुआ है कि मोदी सरकार भी पाकिस्तान या चीन पर भारत के विरुद्ध अपराधों के लिए पर्याप्त नुकसान निर्धारित करने में विफल रही है। शत्रु देशों से हुई नुकसान की भरपाई कराने के मामले में इजरायल का उदाहरण सटीक है।
भले ही भारत ने पुलवामा हादसे का पाकिस्तान से बदला लिया हो, लेकिन सब प्रयासों के बावजूद पाकिस्तान आतंकी देश घोषित नहीं हो सका है। जम्मू-कश्मीर में पाक प्रायोजित आतंकी हमले जारी हैं। स्पष्ट रूप से, भारत की सुरक्षा दृष्टि में कुछ गड़बड़ है और आंतरिक और बाहरी दोनों तरह से इसे ठीक करने की तत्काल आवश्यकता है।
गाँधीजी की विचारधारा: राष्ट्रीय सुरक्षा में अवरोध
प्रश्न उठता है ,भारत के ‘कमजोर सुरक्षा नीति’ से बाहर निकलने का रास्ता क्या है? यह स्पष्ट है कि गाँधीजी के योगदान ने अंतर्राष्ट्रीय मंच पर भारत को बहुत अधिक श्रेय दिलाया है। राष्ट्रीय मंच पर उनके समाज सेवा के मॉडल और स्वदेशी, ग्राम स्वराज की उनकी दृष्टि जो गाँवों को आत्मनिर्भर बनाने की बात करती है, दलितोद्धार और स्वच्छता का उनका प्रयास आज भी अनुकरणीय है, लेकिन यह भी उतना ही सच है कि सम्पूर्ण अहिंसा और हिंदुओं की कीमत पर मजहबी एकता की उनकी विचारधारा ने जिन्नावादियों को विभाजन के लिए प्रेरित किया।
इतना ही नहीं, बल्कि गाँधीवाद के इर्द-गिर्द बुने गए विभिन्न नारों के नाम पर स्वतंत्र भारत में पैन-इस्लामिक तत्वों ने अपने स्वयं के एजेंडे को आगे बढ़ाया। यही कारण है कि शाहीन बाग सहित पूरे भारत में और यहाँ तक कि विदेशों में शाहीनबाग़ के नाम पर हुए हर प्रदर्शन में पहली तस्वीर महात्मा गाँधी की होती थी। इसलिए यह स्पष्ट है कि मजहबी एकता का गाँधी मॉडल बहुसंख्यक समुदाय को ब्लैकमेल करने का एक औजार ही है।
गाँधीजी की संपूर्ण अहिंसा की विचारधारा पर ईमानदार बहस की जरूरत
बहुत से लोग यह नहीं जानते कि गाँधीजी ने भी एक बार सुझाव दिया था कि स्वतंत्रता प्राप्त करने के बाद भारत को सेना को खत्म कर देना चाहिए और केवल पुलिस पर भरोसा रखना चाहिए। १९२५ में यह कह कर उन्होंने कई लोगों को चौंका दिया कि गुरु गोविंद सिंह, महाराणा प्रताप और छत्रपति शिवाजी दिग्भ्रमित देशभक्त थे।जब द्वितीय विश्वयुद्ध में जर्मनी लन्दन के ऊपर बमबारी कर रहा था, तब गाँधी ने कहा था कि उन्हें खून-खराबा देखकर आत्महत्या करने का मन हो रहा है और बाद में उन्होंने इंग्लैंड को अपने बचाव के लिए नैतिक बल पर भरोसा करने की सलाह दी, बजाए सैन्य शक्ति के। उनके इन अकल्पनीय सुझावों से ब्रिटिश प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल बहुत बुरी तरह चिढ़ गए थे।

स्पष्टत: गाँधी का शांतिवाद हमें चीन जैसे दुश्मन देशों की दुष्टता को देखने से रोकता है। उरी हमले के बाद सर्जिकल स्ट्राइक और बालाकोट जैसे दुर्लभ मामलों को छोड़कर, हमने शायद ही कभी जैसे को तैसा कार्रवाई की विचारधारा का पालन किया है। यह गाँधीवादी विरासत का प्रत्यक्ष परिणाम है।यदि चीन हमारे क्षेत्र पर कब्जा कर सकता है तो उसके सीमावर्ती कुछ अन्य स्थानों पर हम क्यों नहीं कर सकते हैं! यह उल्लेखनीय है कि कूटनीति और सुरक्षा-व्यवस्था में नए प्रतिमान स्थापित करने वाले मोदी जैसे दूरदर्शी व्यक्ति की दृष्टि को भी गाँधीवाद भ्रमित करता है।जब हमें चुनौती दी जाती है तो हम उपदेशों के साथ शुरू करते हैं, जैसे-भारत कभी भी आक्रमण नहीं करता, लेकिन जब कोई आक्रमण के लिए बाध्य करता है तब भारत इसे बर्दाश्त भी नहीं करता। यह स्थिति आत्म-संशय का प्रमाण है।
एक तरफ जहाँ अमेरिका ने कुख्यात आतंकी ओसामा बिन लादेन से ११००० किलोमीटर दूर जाकर ट्विन टावर त्रासदी में मारे गए ३००० लोगों का बदला लिया, वहीं इसके ठीक विपरीत हाफिज सईद और मौलाना मसूद अजहर, जिन्होंने १९९५  के बाद से हजारों भारतीयों को मौत के घाट उतार दिया, भारतीय सीमा से मात्र १५० किलोमीटर दूर बैठे होने के बावजूद हम उन्हें मिटा देने में असमर्थ हैं। क्या यह ओसामा के खिलाफ अमेरिका की प्रतिक्रिया के ठीक विपरीत नहीं है?

अत: सबसे पहले गाँधीजी की विचारधारा पर एक ईमानदार बहस होनी चाहिए, जो राष्ट्र के लिए उनके योगदान की सराहना करते हुए यह प्रमाणित करे कि उनकी विचारधारा ने भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा को कितनी क्षति पहुँचाई है। इसके बाद भारतीय स्वतंत्रता अभियान के महानायक और हमारी राष्ट्रीय सुरक्षा-दृष्टि के पुरोधा वीर सावरकर और आजाद हिन्द फ़ौज के प्रणेता सुभाषचंद्र बोस को भारत के सुरक्षा प्रतीक के रूप में प्रस्थापित करना चाहिए।
सावरकर और बोस राष्ट्रीय सुरक्षा के प्रतीक पुरुष क्यों?

नेहरू ने वीर सावरकर की बात सुनी होती तो १९६२ का युद्ध नहीं होता

पहले सावरकर के विचारों और दृष्टि का विश्लेषण करें। सावरकर वह अद्वितीय व्यक्ति हैं, जिन्होंने पाकिस्तान के जन्म से कई साल पहले भारत के विभाजन की भविष्यवाणी कर दी थी कि कॉन्ग्रेस की तुष्टिकरण की नीतियाँ मुस्लिम लीग का चारा बन जाएँगी और जिसका आख़िरी मुकाम होगा भारत का विभाजन।सन १९३७  से सावरकर ने कई बार कॉन्ग्रेस को अल्पसंख्यक तुष्टिकरण के खिलाफ चेतावनी दी थी, लेकिन उनके विचारों को एक सांप्रदायिकतावादी के रूप में करार दिया गया। हालाँकि उन्होंने कभी भी खास मजहब के अधिकारों की कीमत पर हिंदुओं के लिए विशेष व्यवहार की माँग नहीं की। दस साल बाद उनकी बात सच साबित हुई जब पाकिस्तान का जन्म हुआ और कॉन्ग्रेसी नेता जो कह रहे थे कि पाकिस्तान का निर्माण हमारी लाशों पर होगा, गलत साबित हुए।

सावरकर भारत की सुरक्षा के एक महान दूरदर्शी थे। उन्होंने १९४० में असम की समस्या (असम की मुस्लिम आबादी तब सिर्फ १० % थी, आज यह ३५ % है) की भविष्यवाणी और १९६२ के भारत-चीन युद्ध की भविष्यवाणी आठ साल पहले कर दी थी। १९५४  में उन्होंने नेहरू को चेतावनी दी थी कि पंचशील का उनका सिद्धांत चीन के कुत्सित मंसूबों को बढ़ावा देगा और अगर निकट भविष्य में वह हमला कर भारत की भूमि को हड़प लेता है तो उन्हें आश्चर्य नहीं होगा।
पाकिस्तान पर भी उनकी चेतावनी सटीक थी। उन्होंने कहा कि जब तक धार्मिक कट्टरता पर आधारित एक राष्ट्र भारत का पड़ोसी रहेगा, तब तक भारत शांति से नहीं रह पाएगा। यह आज तक सही प्रतीत होता रहा है। दिलचस्प बात यह है कि सावरकर ने पहली बार द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान भारत की स्वतंत्रता के लिए सशस्त्र रणनीति की वकालत की थी।
उन्होंने स्वतंत्रता से पहले और बाद में भारतीयों के सैन्यीकरण की बात की थी। उन्होंने भारत को महाशक्ति बनाने के लिए परमाणु बम की भी बात की थी, लेकिन किसी ने सावरकर के विचारों को पैन-इस्लामिक और कम्युनिस्ट विचारों के सामने प्राथमिकता नहीं दी।भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा दृष्टि में सावरकर का योगदान अंतहीन है और इस लेख के दायरे से परे भी। उदाहरण के तौर पर उन्होंने आजादी के तुरंत बाद जवाहरलाल नेहरू सरकार को सलाह दी थी कि अरब सागर को ‘सिंधु सागर’ कहना चाहिए, लेकिन नेहरू सहमत नहीं हुए।
सावरकर जीवनी के लेखक धनंजय कीर के अनुसार, १९४० में सावरकर ने सुभाषचन्द्र बोस को यह सलाह दी थी कि विश्व मंच पर दुश्मन के दुश्मन देश को हमारे मित्र के रूप में देखा जाना चाहिए।इसी से प्रेरित होकर सुभाषचंद्र बोस ने इटली, जापान और जर्मनी जैसे इंग्लैण्ड विरोधी शक्तियों के साथ एक समझौता करते हुए आज़ाद हिंद फौज का गठन किया। इस फ़ौज में उन भारतीय सैनिकों को शामिल किया गया था जो द्वितीय विश्वयुद्ध में ब्रिटिश शासन की ओर से लड़ते हुए इटली और कुछ अन्य मित्र देशों द्वारा पकड़ लिए गए थे।

आजाद हिन्द फ़ौज ने ब्रिटिश शासन से हिंदुस्तान को मुक्त कराने के उद्देश्य से अंग्रेजी हुकूमत पर हमला किया था। हालाँकि आजाद हिन्द फ़ौज नाकाम रही, लेकिन उसने भारत को स्वतंत्र करने के लिए ब्रिटेन पर भारी दबाव पैदा किया। एक अर्थ में बोस ने सावरकर की दृष्टि को लागू किया। १९४७ में ब्रिटिश प्रधानमंत्री के रूप में भारत को स्वतंत्रता देने वाले क्लेमेंट एटली ने १९५६  में अपनी भारत यात्रा के दौरान (जब वह ब्रिटिश पीएम नहीं थे) कुछ चौंकाने वाले खुलासे किए।
पश्चिम बंगाल के तत्कालीन राज्यपाल पीवी चक्रवर्ती के साथ उनकी बातचीत और उनकी टिप्पणियाँ भारत के स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास को देखने के तरीके में पूरी तरह से बदलाव के लिए मजबूर करती हैं। एटली ने चक्रवर्ती से कहा, “आजाद हिन्द फ़ौज द्वारा बनाया गया दबाव, द्वितीय विश्वयुद्ध से लौटने वाले भारतीय सैनिकों की ओर से ब्रिटिश शासन को स्वीकार करने की अनिच्छा और अंततः १९४६ में मुंबई डॉक पर नौसेना के सैनिक विद्रोह ने ब्रिटेन पर दबाव बनाने में एक बड़ी भूमिका निभाई।” चक्रवर्ती द्वारा पूछे गए एक विशेष सवाल पर एटली ने कहा कि भारत की आजादी के लिए ब्रिटेन पर दबाव बनाने में कॉन्ग्रेस और महात्मा गाँधी की भूमिका ’न्यूनतम’ थी। इस पूरी बात का उल्लेख महान इतिहासकार आरसी मजूमदार ने अपनी पुस्तक ”बंगाल का इतिहास” में विस्तार से किया है।
इसलिए, भारत के लिए वह समय आ गया है कि वह सावरकर और बोस को अपना राष्ट्रीय सुरक्षा प्रतीक-पुरुष के रूप में घोषित करे। सामाजिक-आर्थिक विकास और आत्मनिर्भरता के गाँधी विचारों पर भले ही अमल किया जाए, लेकिन सुरक्षा-सिद्धांत के मामले में गाँधी-विचारों को भारत अस्वीकृत करता यह घोषणा भी होनी चाहिए। इस विषय पर सावरकर-बोस सिद्धांत ही उपयुक्त और मान्य हो।गौरतलब है कि समुदाय विशेष के प्रति रवैए को लेकर सावरकर और बोस के बीच कुछ मतभेद थे, लेकिन ज्यादातर राष्ट्रीय सुरक्षा विषयों पर दोनों एकमत थे। पर हमें इस बात को भी स्वीकार करना होगा कि हिन्दू-मुस्लिम विषयों पर सावरकर ने जो भी भविष्यवाणियाँ आज से ८० -९० वर्ष पहले की थी वे सभी सच साबित हुई हैं।

इन प्रयासों का क्या असर होगा?
इन प्रयासों से गाँधीजी के नाम का दुरुपयोग बंद हो जाएगा। पैन-इस्लामिक तत्वों द्वारा गाँधी का नाम राष्ट्र  को भयादोहित  करने के लिए लिया जाता रहा है। यह प्रयास भारत के मुस्लिम समुदाय के उस हिस्से को ठीक से परिभाषित करने में सक्षम करेगा जो नरमपंथी है और पैन-इस्लामिक अभियान का हिस्सा नहीं है तथा भारत की मुख्यधारा में बने रहना चाहता है।समुदाय विशेष के समावेशी लोगों की संख्या भारत में काफी है, लेकिन सावरकर-बोस आधारित राष्ट्रीय सुरक्षा नीति के अभाव में भारत उन्हें अंगीकृत करने में असमर्थ है।
हमारे राष्ट्रीय सुरक्षा के मैदान से गाँधी के अति मानवतावाद वाली विचारधारा को हटाकर भारत दुनिया के ताकतवर देशों को उपयुक्त सन्देश देने में समर्थ होगा, विशेषकर चीन और पाकिस्तान जैसे दुष्ट प्रतिद्वन्दी देशों को। पूरी दुनिया को पता चलेगा कि चुनौती देने पर भारत से क्या उम्मीद रखनी चाहिए।
भारत की भ्रमित राष्ट्रीय सुरक्षा दृष्टि को स्पष्ट करना और सही दिशा देना बहुत बड़ी राष्ट्रीय सेवा होगी। कुछ नेता मानते है कि गाँधी की विचारधारा को राष्ट्रीय सुरक्षा से जोड़ने की कोई आवश्यकता नहीं है, क्योंकि वर्तमान शासक (मोदी सरकार) पहले से ही राष्ट्रीय सुरक्षा के मामलों में सावरकर-बोस सिद्धांतों का अनुकरण कर रही है और उसके प्रमाण हैं- बालाकोट हमला, सर्जिकल स्ट्राइक और अनुच्छेद ३७० ,लेकिन इस तर्क में दोष है।
वर्तमान परिस्थितियों और समय की माँग है कि सुरक्षा के मोर्चे पर सिर्फ सरकार का ही नहीं, बल्कि देशवासियों का नजरिया स्पष्ट हो। जाहिर है, राष्ट्रीय सुरक्षा के मोर्चे पर दृष्टि और सिद्धांत बदलने का समय आ गया है और आज के शासक भी अगर ये कहते हैं कि उनकी राष्ट्रीय सुरक्षा की दृष्टि गाँधी के विचारों से पूरी तरह मुक्त है तो वे गलत कह रहे हैं।इसका सबसे बड़ा प्रमाण है कि हमारी सरकार ने बीते ६ वर्षों में १० हजार तबलीगी जमात के विदेशी वहाबी प्रचारकों को भारत में आने और प्रचार करने की अनुमति दी। हालाँकि ३० मार्च, २०२०  के बाद हुए तबलीगी जमात के कोरोना कांड के बाद सरकार ने इन विदेशी प्रचारकों को प्रतिबंधित कर दिया है। यह स्पष्ट है कि आज के भारतीय जहाज के तल में एक बड़ा छेद है जिसे हमें दुरुस्त करने की आवश्यकता है। अगर हम ऐसा नहीं करते हैं तो यह जहाज सागर में डूब सकता है।

मवेशियों से भरा कंटेनर जब्त, आधा दर्जन मवेशियों के मरने की भी आशंका

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जांजगीर-चांपा। शुक्रवार को पुलिस को मुखबिर से सूचना मिली थी कि एक कंटेनर क्रमांक एचआर ६७ ए ०४१ जिसमें मवेशियां ठूंस ठूंसकर भरी है। उसे हरियाणा की ओर ले जाया जा रहा है। पुलिस ने तत्काल उक्त कंटेनर को घेराबंदी कर डायल 112 की टीम ने फोरलेन के अर्जुनी करुमहु की पास पकड़ा। टोल प्लाजा के पहले ड्राइवर खलासी मुलमुला थाना अंतर्गत ड्राइवर व कंडक्टर मौके से फरार हो गए। पुलिस की टीम ने सभी मवेशियों को अपने कब्जे में लिया। कंटेनर का चालक भागना चाह रहा था। लेकिन डायल 112 की टीम के आरक्षक अजय भानु व चालक विंदा संडे कंटेनर को रोकना चाहा लेकिन नहीं रुका तब उसे पत्थर मारने की कोशिश की तो कंटेनर जाके रुका और कंटेनर ट्रक ड्राइवर व हेल्पर फरार हो गए। कंटेनर को खोलकर देखे तो उसमें 70-80 मवेशी भरे हुए थे। कुछ पहले सी ही बेहोशी की हालत में नीचे बैठे हुए थे। थानेदार मुलमला के अनुसार रिपोर्ट दर्ज कर कार्रवाई की जा रही है। अवैध खरीद की धारा लगी है। गाड़ी को राज सात कर कानूनी कार्रवाई की जा रही है। पामगढ़ डोंगाकोहारौद के सभी मवेशी को गौ रक्षा केंद्र में भेजा गया। मुलमुला पुलिस कंटेनर गाड़ी को अपने कब्जे में ले लिया गया है। कंटेनर में छह दर्जन मवेशियों को भरकर बाहर ले जा रहे वाहन को मुलमुला पुलिस ने पकड़ा है। बताया जा रहा है कि इनमें पांच-छह मवेशियों की मौत भी हो गई। गौ सेवा आयोग के अध्यक्ष रामसुंदर दास के निर्देशन में मुलमुला पुलिस वाहन चालक के खिलाफ कड़ी कार्रवाई कर रही है।

मुख्यमंत्री से मिला गौ-सेवा समिति का प्रतिनिधिमंडल

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भोपाल, 28 May – मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान से शुक्रवार को सीएम हाउस पर श्री कृष्ण गौ-सेवा विकास कल्याण समिति, रेहटी जिला सीहोर के पदाधिकारियों ने भेंट की। समिति के पदाधिकारियों ने मुख्यमंत्री चौहान को गौ-सेवा के क्षेत्र में संचालित गतिविधियों की जानकारी दी।
मुख्यमंत्री चौहान ने कहा कि आने वाले समय में प्राकृतिक कृषि का प्रचलन बढ़ेगा, जिसमें गौ-पालन का विशेष महत्व है। समिति के सदस्यों में शैलेन्द्र मालवीय, प्रदीप जाट, गजराब बानिया और प्रदीप पटैरिया शामिल थे।

28 मई 2022 जन्‍म जयंती विशेष -वीर सावरकर से उऋण होना असंभव 

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By – RAJESH JHA

४५ वर्षीय मोहनदास करमचंद गाँधी १९१५  में भारत आते हैं, 2 दशक से भी ज्यादा दक्षिण अफ्रीका में बिता कर। इससे ४ साल पहले २८ वर्ष का एक युवक अंडमान में एक कालकोठरी में बन्द होता है। अंग्रेज उससे दिन भर कोल्हू में बैल की जगह हाँकते हुए तेल पेरवाते हैं, रस्सी बटवाते हैं और छिलके कूटवाते हैं। वो तमाम कैदियों को शिक्षित कर रहा होता है, उनमें राष्ट्रभक्ति की भावनाएँ प्रगाढ़ कर रहा होता है और साथ ही दीवालों कर कील, काँटों और नाखून से साहित्य की रचना कर रहा होता है। उसका नाम था- विनायक दामोदर सावरकर उपाख्य वीर सावरकर।

अंडमान की जेल में उन्हें आत्महत्या के ख्याल आते। उस खिड़की की ओर एकटक देखते रहते थे, जहाँ से अन्य कैदियों ने पहले आत्महत्या की थी। पीड़ा असह्य हो रही थी। यातनाओं की सीमा पार हो रही थी। अंधेरा उन कोठरियों में ही नहीं, दिलोदिमाग पर भी छाया हुआ था। दिन भर बैल की जगह खटो, रात को करवट बदलते रहो। ११ साल ऐसे ही बीते। कैदी उनकी इतनी इज्जत करते थे कि मना करने पर भी उनके बर्तन, कपड़े वगैरह धो देते थे, उनके काम में मदद करते थे। सावरकर से अँग्रेज बाकी कैदियों को दूर रखने की कोशिश करते थे। अंत में बुद्धि की  विजय हुई तो उन्होंने अन्य कैदियों को भी आत्महत्या से विमुख किया।

नानासाहब पेशवा, महारानी लक्ष्मीबाई और वीर कुँवर सिंह जैसे कितने ही वीर इतिहास में दबे हुए थे। १८५७  को सिपाही विद्रोह बताया गया था। तब इसके पर्दाफाश के लिए  २० -२२  साल का एक युवक लंदन की एक लाइब्रेरी का किसी तरह एक्सेस लेकर और दिन-रात लग कर अँग्रेजों के एक के बाद एक दस्तावेज पढ़ कर सच्चाई की तह तक जा रहा था, जो भारतवासियों से छिपाया गया था। उसने साबित कर दिया कि वो सैनिक विद्रोह नहीं, प्रथम स्वतंत्रता संग्राम था। उसके सभी अमर बलिदानियों की गाथा उसने जन-जन तक पहुँचाई। भगत सिंह सरीखे क्रांतिकारियों ने मिल कर उसे पढ़ा, अनुवाद किया।

दुनिया में कौन सी ऐसी किताब है जिसे प्रकाशन से पहले ही प्रतिबंधित कर दिया गया था? अँग्रेज कितने डरे हुए थे उससे कि हर वो इंतजाम किया गया, जिससे वो पुस्तक भारत न पहुँचे। जब किसी तरह पहुँची तो क्रांति की ज्वाला में घी की आहुति पड़ गई। कलम और दिमाग, दोनों से अँग्रेजों से लड़ने वाले सावरकर थे। दलितों के उत्थान के लिए काम करने वाले सावरकर थे। ११ साल कालकोठरी में बंद रहने वाले सावरकर थे। हिंदुत्व को पुनर्जीवित कर के राष्ट्रवाद की अलख जगाने वाले सावरकर थे। साहित्य की विधा में पारंगत योद्धा सावरकर थे।

आज़ादी के बाद क्या मिला उन्हें? अपमान। वीर सावरकर को गाँधी हत्या के केस में फँसाकर गिरफ़्तार किया गया। उनको स्वतंत्रता सेनानी  पेंशन तक नहीं दिया। प्रताड़ित किया। ६० के दशक में उन्हें फिर गिरफ्तार किया, प्रतिबंध लगा दिया। उन्हें सार्वजनिक सभाओं में जाने से मना कर दिया गया। ये सब उसी भारत में हुआ, जिसकी स्वतंत्रता के लिए उन्होंने अपना जीवन खपा दिया। आज़ादी के मतवाले से उसकी आज़ादी उसी देश में छीन ली गई, जिसे उसने आज़ाद करवाने में योगदान दिया था। शास्त्री जी प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने पेंशन का जुगाड़ किया।

    वो कालापानी में कैदियों को समझाते थे कि धीरज रखो, एक दिन आएगा जब ये जगह तीर्थस्थल बन जाएगी। आज भले ही हमारा पूरे विश्व में मजाक बन रहा हो, एक समय ऐसा होगा जब लोग कहेंगे कि देखो, इन्हीं कालकोठरियों में हिंदुस्तानी कैदी बन्द थे। सावरकर कहते थे कि तब उन्हीं कैदियों की यहाँ प्रतिमाएँ होंगी। आज आप अंडमान जाते हैं तो सीधा ‘वीर सावरकर इंटरनेशनल एयरपोर्ट’ पर उतरते हैं। सेल्युलर जेल में उनकी प्रतिमा लगी है। उस कमरे में प्रधानमंत्री भी जाकर ध्यान धरता है, जिसमें सावरकर को रखा गया था। वीर सावरकर ने व्यक्ति – समाज और राष्ट्र को इतना कुछ दिया कि उनके ऋणों को चूका पाना न तो किसी व्यक्ति के लिए संभव है , न समाज के लिए और न ही राष्ट्र के लिए।

MP – मोहिनी,पूनम की शादी के पूर्व संध्या पर अभिभावक के रूप में आशीर्वाद देने पहुंचे झांसी के वरिष्ठ समाजसेवी डॉ संदीप सरावगी

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MP - मोहिनी,पूनम की शादी के पूर्व संध्या पर अभिभावक के रूप में आशीर्वाद देने पहुंचे झांसी के वरिष्ठ समाजसेवी डॉ संदीप सरावगी।

MP- झांसी महानगर के बहुचर्चित क्षेत्र लकारा निवासी स्वर्गीय श्री श्याम लाल दोहरे की 5 पुत्रियां थी जिसमें एक पुत्री की शादी कर आकस्मिक श्यामलाल का स्वर्गवास हो गया। बाकी पुत्रियों के सिर से पिता का साया उठ गया। लेकिन कहावत है “जिसका कोई नहीं, उसका खुदा होता है”यही वाक्या मोहिनी और पूनम के साथ हुआ पिताजी के स्वर्गवास होने पर उनका लालन-पालन मां और परिवार के सदस्यों ने किया। लेकिन जब बेटी की डोली उठती है तो उस समय मां-बाप का होना एक सुखद होता है। लेकिन जब सिर से बाप का साया उठ जाए तो उस संतान से पूछो उसके दिल पर क्या गुजरती है।लेकिन सनातन धर्म में कहावत है।”बेटियां अपना भाग्य खुद लिख कर आती हैं”जब यह जानकारी झांसी के वरिष्ठ समाजसेवी डॉ. संदीप सरावगी को लगी तो बिना भेदभाव ऊंच-नीच से परे समाज हित में अपना जीवन समर्पित कर चुके वरिष्ठ समाजसेवी डॉ.संदीप सरावगी बेटियों की शादी की पूर्व संध्या पर उनके निज निवास लकारा पहुंचे। यह देखकर परिवार के सदस्य व रिश्तेदार देखते रह गए की आखिर कोई तो है।
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इस जहां में जो नेक कार्य कर रहा है। वरिष्ठ समाजसेवी ने बेटियों के सिर पर हाथ रखकर अभिभावक के रूप में आशीर्वाद दिया और आर्थिक मदद की और कहा कि जब भी कोई जरूरत पड़े तो बेहिचक बताना पिता के रूप में मैं आपके साथ हमेशा खड़ा रहूंगा। इस मौके पर लकारा ग्राम के पूर्व प्रधान हरचरण दोहरे ने कहा की एक साक्षात भगवान का स्वरूप है जो इस कलयुग में उन असहाय परिवारों की मदद करते हैं। और हर सुख दुख में अपने क्षेत्र की जनता के साथ खड़े हैं।ऐसे युगपुरुष को प्रणाम करता हूं और धन्यवाद देता हूं। वही मोहिनी और पूनम के चाचा सियाराम दोहरे ने कहा कि मेरा भाई तो इस दुनिया में नहीं रहा।लेकिन एक भाई रूप में बड़ा भाई हमें मिला। मैं जिंदगी भर ऐसे भाई का आभारी रहूंगा। इस मौके पर संघर्ष सेवा समिति की सदस्य धर्मेंद्र खटीक,राजू सेन,बसंत गुप्ता,सुशांत गुप्ता,विकास पिपरिया,विशाल पिपरिया,अतुल वर्मा, राकेश अहिरवार,मो. शहजाद,अजय आरंभ,संदीप नामदेव आदि उपस्थित रहे।

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नेहरू सेंटर में इंडियन आर्ट फेस्टिवल का आयोजन

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– काली दास पाण्डेय

Mumbai – 2 साल कोरोना महामारी के बाद इंडियन आर्ट फेस्टिवल का आयोजन 26 मई से 29 मई तक नेहरू सेंटर (मुम्बई) में किया गया है। जहाँ पर 45 आर्ट गैलरीज लगाई गई हैं, जिसमे 550 आर्टिस्ट अपनी कला का प्रदर्शन कर रहे हैं जो 4 ग्लोबल शहरों से आये हैं। इसके पहले दिल्ली और बैंगलोर में इंडियन आर्ट फेस्टिवल का 10वां सीजन काफी सफल रहा और अब इसे मुंबई में लोगों का ढेर प्यार मिल रहा हैं। इंडियन आर्ट फेस्टीवल में अपनी बेटी एरियाना के साथ पहुंची एक्ट्रेस महिमा चौधरी साथ ही पायल रोहतगी और संग्राम सिंह ने भी दीप प्रज्वलित कर कहा “कला का आनंद लो और फिट रहो”।
इसके अलावा इंडियन आर्ट फेस्टिवल में पद्मश्री शोमा घोष, विख्यात सिंगर मनहर उधास, तबला मास्टर और म्यूजिक प्रोड्यूसर जीतू शंकर ने अपनी उपस्थिति दर्ज कराकर इस फेस्टिवल की शोभा बढ़ाई। साथ ही डॉ. सरयू दोषी, विलास शिंदे,चरन शर्मा, निमिषा शर्मा, पृथ्वी सोनी और गौतम पटोलें जैसे वेटेरन आर्टिस्ट और डॉ अनुषा श्रीनिवासन अय्यर ने अपनी अद्भुत कला का प्रदर्शन कर इस फेस्टिवल में एक जान डाल दी।

भारतराष्ट्र की अर्थव्यवस्था का आधार हें गोमाता;

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गाय हमारी अर्थव्यवस्था का आधार है। गाय को पालने से दूध, दही, छाछ, घी जैसे पोषक पदार्थ प्राप्त होते हैं। गाय से ही बैल मिलते हैं जो कि हल चलाने, सामान ढोने और खेती के काम में सहायक होते हैं। गोधन का गोबर ईंधन बचाने व ऊर्जा उत्पादन में काम आता है। इससे पर्यावरण प्रदूषण कम होता है। गोबर की खाद भी होती है। गोधन को पालने से ग्वालों की दिनचर्या अनुशासित रहती है। इससे जीवन पूरी तरह स्वस्थ रहता है। गोमूत्र से अनेक रोगों का उपचार होता है। एक अनुसन्धान के अनुसार हमारे देश को कृषि के लिए नब्बे प्रतिशत ऊर्जा गोवंश से ही मिलती है। इस तरह गाय को ग्राम विकास का आधार मानना पूर्णतया उचित है।

गाय के घी से होने वाले हवन का धुआँ कीटाणु अथवा बैक्टीरिया को नष्ट करता है। गाय का गोबर खेतों में खाद के काम तथा ईंधन के काम आता है। इसका मूत्र अनेक असाध्य रोगों के इलाज में उपयोगी रहता है। इस प्रकार गाय का हमारे जीवन में अत्यधिक महत्त्व है। यह गरीबों के परिवारों का पालन-पोषण करने में उपयोगी रहती है। इससे खेती और कृषि के कामों में सहायता मिलती है। गाय के बछड़े बैल बनते हैं, जो हल चलाने एवं भार ढोने के काम आते हैं। गोधन के मरने पर भी इसका चमड़ा अनेक चीजों को बनाने के काम आता है। गाय की उपयोगिता एवं महत्त्व को देखकर ही इसे ‘गोमाता’ कहते हैं।

भारतीय जन-जीवन में परिवार के पालन तथा कृषि कार्य की दृष्टि से गाय का विशेष महत्त्व है। इससे दूध जैसा पौष्टिक पदार्थ मिलता है। इसके गोबर एवं गोमूत्र का अनेक तरह से उपयोग किया जाता है। वेदों एवं पुराणों में गाय को पूज्य और रक्षणीय बताया गया है। यहाँ पर गोपालन की सनातन परम्परा रही है।

आयुर्वेद में अनेक रोगों के उपचार आदि में गाय के घी को उपयोगी माना गया है। गाय के घी से हवन करने पर जो धुआँ फैलता है, वह हानिकारक कीटाणुओं को नष्ट करता है। वह ओजोन परत के छेद को पाटने का काम करने में व पर्यावरण शुद्धि में भी उपयोगी रहता है।

भारतीय जन जीवन में गाय का अपना विशेष महत्त्व है। गाय चौपाया प्राणी है और उसे माँ के बराबर आदर दिया गया है। यह हमारी पारिवारिक व कृषि संस्कृति की आधार रही हैं। गाय को गोधन कहा है। पौराणिक काल में जिसके पास जितनी अधिक गायें, वह उतना ही धनी माना जाता था। अतएव गायों की सुरक्षा को एक मानवीय कर्तव्य के रूप में परिभाषित किया गया है। गाय को वेदों में रक्षणीय, सुरक्षा के योग्य, इसी अर्थ में स्वीकारा गया है कि वे सर्वोपरि धन हैं। गायों के जाये बैलों ने कृषि कार्य में इतना सहयोग किया कि वे गायों के साथ ही पूजा के योग्य भी माने गये।

जफर कुरेशी बना चैतन्य सिंह – महामंडलेश्वर स्वामी चितम्बरानंद बोले- घर वापसी

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मंदसौर. मध्यप्रदेश के मंदसौर जिले में एक मुस्लिम शख्स ने सनातन धर्म स्वीकार कर लिया है. अब शेख जफर कुरेशी अपने नए नाम चैतन्य सिंह राजपूत से जाना जाएगा. शुक्रवार को मंदसौर के पशुपतिनाथ मंदिर प्रांगण में जफर ने सनातन धर्म गृहण कर लिया है. इस मौके पर महामंडलेश्वर स्वामी चितम्बरानंद महाराज, सांसद सुधीर गुप्ता और विधायक यशपाल सिंह सिसोदिया भी मौजूद रहे. शेख जफर ने पूरे हिंदू रीति रिवाजों के अनुसार हवन कर मुस्लिम धर्म छोड़कर सनातन धर्म अपना लिया है. धर्म परिवर्तन करवाने वाले महामंडलेश्वर स्वामी चितम्बरानंद महाराज ने कहा कि ये घर वापसी है, सबके पूर्वज हिन्दू हैं. चितम्बरानंद ने शुक्रवार को कहा कि मंदसौर के भगवान पशुपतिनाथ महादेव मंदिर पर घर वापसी का कार्यक्रम चल रहा है.

महामंडलेश्वर स्वामी चितम्बरानंद महाराज ने मंदसौर के रहने वाले मुस्लिम युवक शेख जफर कुरेशी की घर वापसी करवाई है. सनातन धर्म के रीति रिवाज के अनुसार शेख जफर को सनातन धर्म की दीक्षा दी है. अब जफर का नाम चैतन्य सिंह राजपूत हो गया है. वहीं चेतन्य सनातन धर्म गृहण करने के बाद कहा कि मैं अपने मूल में लौटा हूं. अगर कोई इसका विरोध करता है तो गलत है. वहीं इस मौके पर चितम्बरानंद महाराज ने कहा कि सभी के पूर्वज हिंदू थे. जफर ने चैतन्य बनकर अपने सनातन धर्म में घर वापसी की है. इस पावन क्षण के साक्षी सैकड़ों लोग बने हैं. पूरे रीति रिवाज के अनुसार चैतन्य को दीक्षा दी गई है. बता दें कि जफर ने करीब 10 साल पहले एक हिंदू युवती से ही शादी की थी. अब जफर ने भी हिंदू धर्म अपना लिया है. जफर से चैतन्य बने शख्स की पहले से ही हिंदू धर्म में आस्था थी. हिंदू धर्म के त्योहारों में वह पहले से ही शामिल हुआ करता था. साथ ही हिंदू धर्म के त्योहारों को भी धूमधाम से मनाया करता था. इतना ही नहीं चैतन्य ने पहले से ही अपने घर में मंदिर बनाया हुआ था. साथ ही इसके पहले भी हिंदु देवी देवताओं में भी काफी आस्था रखा करता था. दीक्षा समारोह के मौके पर मंदर प्रांगण में काफी लोग मौजूद रहे. यहां सांसद सुधीर गुप्ता और विधायक यशपाल सिंह सिसोदिया भी मौके पर मौजूद रहे. महामंडलेश्वर स्वामी चितम्बरानंद महाराज ने चेतन्य को सनातन धर्म की दीक्षा दी है.

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महाराष्ट्र के अस्पताल में बड़ी लापरवाही, खून चढ़ाने के बाद चार बच्चे एचआईवी संक्रमित, एक की मौत

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महाराष्ट्र के नागपुर स्थित एक अस्पताल में बड़ी लापरवाही सामने आई है, जहां खून चढ़ाने के बाद चार बच्चे एचआईवी संक्रमित हो गए हैं। इनमें से एक बच्चे की मौत हो गई है। थैलेसीमिया के इलाज के लिए इन बच्चों को खून चढ़ाया गया था। फिलहाल इस मामले में राज्य के स्वास्थ विभाग ने उच्च स्तरीय जांच कराने की बात कही है। सहायक उप निदेशक डॉ. आर के धाकाटे ने कहा है कि जांच के बाद दोषियों के खिलाफ सख्त कार्रवाई की जाएगी। खाद्य एवं औषधि विभाग ने मामले में प्रारंभिक जांच शुरू कर दी है।

अस्पताल में उपचार कर रहे डॉक्टर का कहना है कि इलाज के लिए जब बच्चों का टेस्ट किया गया तो वे एचआईवी संक्रमित मिले। डॉक्टर का मानना है कि ब्लड बैंक से दूषित खून दिया गया था। उसी ब्लड को बच्चों के चढ़ा दिया गया, जिससे वे संक्रमित हो गए हैं। डॉक्टर ने बताया कि खून की जांच के लिए एनएटी परीक्षण करना जरूरी होता है, लेकिन ब्लड बैंक में यह जांच सुविधा नहीं है। इसी वजह से बच्चों को बिना जांच किए बिना ही खून चढ़ा दिया गया। एक पीड़ित बच्ची के परिजन ने बताया कि उनकी बेटी पांच साल की है। अगर जांच करके ब्लड चढ़ाया गया होता तो बच्ची संक्रमित नहीं होती।