सार्थक चिन्तन
अंकु श्री –

कुछ-न-कुछ सोचते रहना मनुष्य की आदत होती है। एकान्त में बैठने पर चिन्तन की धाराएं और तेजी से फूटती हैं।
चंचल मन चिंतन की धाराओं को क्षण-क्षण बदलता रहता है। एक विषय के बारे में मन पूरी तरह कुछ सोच नहीं पाता
कि दूसरा विषय उससे आ टकराता है। मन के अंदर विषयों या विचारों का गुम्फन-सा हो जाता है। विषयों या विचारों
के गुम्फन में काफी देर तक उलझे रहने के बाद भी कोई एक विषय या विचार उभर कर सामने नहीं आ पाता। इसका
एक मात्र कारण है सार्थक चिन्तन का अभाव।

कोई व्यक्ति अपनी कलम से कागज पर सार्थक रेखाएं खींच कर एक चित्र बना लेता है। लेकिन एक कुशल चित्रकार
भी कागज पर रेखाएं खींच-खींच कर परेशान हो जाता है और वह कोई चित्र नहीं उकेर पाता। ऐसा तब होता है, जब
उसके द्वारा खींची गयी रेखाएं सार्थक नहीं हो पातीं।

शब्दों और ध्वनियों की स्थिति भी रेखाओं की तरह है। उनके सार्थक उपयोग से ही कोई कथ्य या संगीत बन पाता है।
बड़े-बड़े साहित्यकारों की मोटी-मोटी पुस्तकों में क्या है ? सिर्फ शब्दों का तारतम्य ही तो है, जो उनकी सोच को
उजागर करता है।

खिलाडिय़ों के साथ भी यही बात है। खेल में उनकी सार्थकता तभी तक बनी रहती है, जब तक वे खेलते समय सिर्फ
खेल के बारे में सोचते हैं और समग्र रूप से खेल में लगे रहते हैं. अच्छे-अच्छे खिलाडिय़ों को भी खेल से ध्यान हटते
मैदान से हटना पड़ जाता है। वैज्ञानिकों के साथ भी यही बात है। उनकी सोच की सार्थकता ही उनकी उपलब्धि है।
पूजा हो या ध्यान – सार्थक चिन्तन के बिना सफलता संभव नहीं है। पूजा-ध्यान में मन जितना भटकता है, उतना
दूसरे किसी काम में नहीं। चंचल मन जिस गति से भागने-दौडऩे लगता है, उस गति को हवा, ध्वनि या रोशनी भी नहीं
छू पाती। जबकि पूजा-ध्यान का उद्देश्य ही है मन को भटकने से रोकने का अभ्यास करना। पूजा के समय ध्यान
केन्द्रित रहे – यही उसकी सार्थकता है।

कार्यालय के कार्यों का निष्पादन हो या विद्यालय-महाविद्यालय में शिक्षण का काम हो – सभी अपने काम में सफल
नहीं रहतें। या सबों को बराबर-बराबर सफलता नहीं मिल पाती।

सफलता की भिन्नता या असफलता व्यक्ति की कार्य-क्षमता पर निर्भर करती है. यह कार्य-क्षमता ही उस व्यक्ति के
सार्थक चिन्तन पर निर्भर है। स्थापना संबंधी काम को निपटाते समय कर्मचारी (या पदाधिकारी) के दिमाग में यदि
लेखा संबंधी बातें घूमने लग जाये  तो वह अपने कामों को उस ढंग़ से नहीं निपटा पाता है, जिस ढंग़ से निपटाने की
उसकी क्षमता होती है।

यही स्थिति शिक्षकों द्वारा पढ़ाये जा रहे विषय के संबंध में भी है। कक्षा में गणित पढ़ाते समय घर की आर्थिक
व्यवस्था दिमाग में घूमने लग जाये तो शिक्षक अपनी वास्तविक क्षमता का उपयोग पढ़ाने में नहीं कर पायेगा।
संपादित किये जा रहे विषय के संबंध में सार्थक चिन्तन नहीं किये जाने के कारण ऐसा होता है।

सार्थक चिन्तन के अभाव में मात्र बाहरी कार्य प्रभावित नहीं होते हैं, अपितु घर-गृहस्थी के कामों में भी इससे बाधा
आती है। बाल-बच्चों का लालन-पालन हो या उनकी पढ़ाई-लिखाई अथवा उनका स्वास्थ्य – माता-पिता में सार्थक
सोच के अभाव से उनका जीवन का विकास पूरी तरह प्रभावित होता है।

वस्तुत: सार्थक चिन्तन एक आदत-सी बन जाती है. इसके अभाव में निरर्थक चिन्तन में मन भटकता रहता है और
इससे कार्य की सफलता बाधित होती है। यों तो उम्र विशेष के बाद आदत में पूर्णत: बदलाव लाना आसान काम नहीं है,
किन्तु अभ्यास द्वारा उसमें आंशिक सुधार अवश्य हो सकता है। आध्यात्म का सहारा और गुरु का मार्ग-दर्शन इसमें
विशेष उपयोगी हो सकता है, क्योंकि आध्यात्म के द्वारा मानसिक भटकाव पर नियंत्रण की संभावना विकसित
बुद्धि वालों के लिये अब नया विषय नहीं रह गया है। (विभूति फीचर्स)

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