हम भारतीय गाय को ‘माता’ मानते रहे हैं और उसकी पूजा भी करते हैं। उसमें देवत्व की छाया देखते हैं। उसके मूत्र और गोबर तक का ‘औषधि’ की तरह इस्तेमाल करते हैं, लेकिन भयावह सच यह है कि देश के 16 राज्यों में लंपी वायरस से न केवल 75,000 से अधिक गायें मर चुकी हैं, बल्कि 15 लाख से ज्यादा संक्रमित हैं। यह कोई सामान्य आंकड़ा नहीं है। राजस्थान का एक वीडियो सार्वजनिक हुआ था, जिसमें लंबे-चौड़े मैदान में सैंकड़ों गायों के शव लावारिस और बिखरे हुए पड़े थे। चील, कौए, गिद्ध उन शवों को नोंच-नोंच कर खा रहे थे।
इन पक्षी-जानवरों का यही प्राकृतिक भोजन है, लेकिन गाय हमारी माता है। हमारी मांएं मर रही हैं। क्या उनके स्वास्थ्य, पालन-पोषण के प्रति हम इतना बेपरवाह और संवेदनहीन हो सकते हैं? राजस्थान में ही 50,000 से ज्यादा गायें मर चुकी हैं, जो सर्वाधिक आंकड़ा है।
हमें तो ‘गौ माता’ वाले कथन आडंबर और स्वार्थी लगते हैं। लंपी वायरस धीरे-धीरे देश भर में फैल सकता है, लिहाजा पशुधन विशेषज्ञों ने इसे कोरोना वायरस की तर्ज पर ‘महामारी’ घोषित करने के आग्रह सरकार से किए हैं। गौ माता मर रही है अथवा संक्रमण की पीड़ा झेल रही है या उसके प्रजनन की प्राकृतिक प्रक्रिया प्रभावित हो रही है, यह सब कुछ अचानक नहीं हुआ है। 2015 में तुर्की और यूनान में लंपी वायरस के मामले सामने आए थे, तो वे आपदा और त्रासदी साबित होते गए।
भारत में ओडिशा और पश्चिम बंगाल में इस संक्रमण ने गौवंश को चपेट में लेकर बीमार करना शुरू किया, तो 2019 में ही लंपी वायरस की जानकारी मिल चुकी थी। इन तीन सालों में सरकारों ने क्या किया? अब यह प्रकरण त्रासदी में तबदील हो चुका है, तो प्रधानमंत्री मोदी ने 2025 तक सभी पशुओं के टीकाकरण की बात कही है।
क्या अजीब संयोग है कि एक तरफ हमारी गौ माता मर रही है, तो दूसरी ओर ग्रेटर नोएडा में आयोजित विश्व डेयरी शिखर सम्मेलन के मंच से प्रधानमंत्री हुलहुलाते रहे कि दुग्ध उत्पादन में भारत विश्व में ‘नंबर वन’ देश है। यह उद्योग 8.5 लाख करोड़ रुपए का है, जो गेहूं और धान से भी बेहतर है। करीब 8 करोड़ छोटे किसानों, ग्रामीण महिलाओं और अन्य लोगों को रोजग़ार प्राप्त है। प्रधानमंत्री ने भारतीय मवेशियों की तगड़ी नस्लों का भी जिक़्र किया, जो मौसम और माहौल के अनुकूल खुद को ढालने में सक्षम हैं, लेकिन लंपी वायरस पर नींद अब खुली है कि टीकाकरण के बयान की शुरुआत हुई है।
दरअसल जो हाहाकार कोरोना वैश्विक महामारी को लेकर मचा था, वह चीत्कार गौवंश नहीं मचा सकता, क्योंकि कुदरत ने मनुष्य की तरह शब्द, भाषा और बोलने की क्षमता पशुओं को नहीं दी है। लंपी से संक्रमित गाय को 105 डिग्री तक बुखार हो जाता है, शरीर पर चकत्ते फूट पड़ते हैं, आंख-नाक बहने लगती हैं, दुबली हो जाती है, लार टपकने लगती है, बदबू आने लगती है, दूध देना बंद कर देती है और अंतत: वह मर जाती है।
कितनी पीड़ा और तकलीफ उसे झेलनी पड़ती है, उसके पालक ही कुछ समझ पाते होंगे! इतना कुछ होने और महामारी के आसार बनने के बावजूद केंद्रीय मंत्री पुरुषोत्तम रुपाला यही कह सकते हैं कि समन्वय बनाया जा रहा है। क्या उनके पास कोई ब्लूप्रिंट नहीं है कि ऐसी बीमारी से कैसे निपटा जाए? गाय गांवों की तो अर्थव्यवस्था का प्रतीक है। औसतन गाय 50,000 रुपए से 1,00,000 रुपए तक में खरीदी जा सकती है।
यदि गाय दूध दे रही है और वह लंपी से संक्रमित होकर मर जाए, तो ग्रामीण अर्थव्यवस्था ध्वस्त हो जाती है। औसत ग्रामीण इस नुकसान को नहीं झेल सकता। यदि गौवंश इसी तरह समाप्त होता गया, तो दूध-उत्पादन के उद्योग का क्या होगा? हमने गाय माता को आवारा घूमते हुए और प्लास्टिक पन्नी खाते हुए भी देखा है।
क्या माता की देखभाल इस तरह की जाती है? कमोबेश स्वास्थ्य के संदर्भ में भारत सरकार और राज्य सरकारों को बहुत सचेत रहना पड़ेगा, क्योंकि बीते दिनों कोरोना संक्रमण के आंकड़े एक बार फिर बढऩे लगे थे, तो प्रधानमंत्री को सभी मुख्यमंत्रियों की बैठक बुलानी पड़ी। सरकारों के पसीने छूटने लगे थे। हम कोरोना वायरस से नई लड़ाई लडऩे की मन:स्थिति में नहीं हैं, लिहाजा गौ माता की भी चिंता करनी चाहिए।

इस महामारी के कारण तेज गति से पशुओं की मौतें हो रही हैं। पशुओं को मरने से बचाना होगा। अगर पशु इसी तरह मरते रहे, तो पशुपालन का व्यवसाय ठप पड़ जाएगा और करोड़ों लोगों के सामने रोजी-रोटी का प्रश्न खड़ा हो जाएगा। सरकार को ठोस कार्ययोजना बनानी होगी।

 

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