5000 साधुओं का बलिदान और 10 लाख भारतीयों का प्रयास तब सफल होगा, जब भारत में पूर्ण गौवंश रक्षा होगी, अर्थात कत्ल खाने, तस्करी और मांस निर्यात बंद हो जाए।

आज भी याद है वो मंजर जब गौरक्षा के लिए सुबह से ही संसद के बाहर लोग जुटने लगे थे। 7 नवम्बर 1966 को सुबह आठ बजे से ही लोग जुटना शुरू हो गए थे। गोरक्षा महाभियान समिति के संचालक व सनातनी करपात्री जी महाराज ने चांदनी चौक स्थित आर्य समाज मंदिर से अपना सत्याग्रह आरंभ किया।  एकमंत्री और पूरी घटना के गवाह आचार्य सोहनलाल रामरंग के अनुसार, यह हिंदू समाज के लिए सबसे बड़ा ऐतिहासिक दिन था।

नई दिल्ली का पूरा इलाका लोगों की भीड़ से भरा था। संसद गेट से लेकर चांदनी चैक तक सिर ही सिर दिखाई दे रहे थे। कम से कम 10 लाख लोगों की भीड़ जुटी थी, जिसमें 10 से 20 हजार तो केवल महिलाएं ही शामिल थीं। जम्मू-कश्मीर से लेकर केरल तक के लोग गोहत्याबंद कराने के लिए कानून बनाने की मांग लेकर संसद के समक्ष जुटे थे। गौहत्या रोकने के लिए इंदिरा सरकार केवल आश्वासन ही दे रही थी, ठोस कदम कुछ भी नहीं उठा रही थी। सरकार के झूठे वादे से तंग आकर संत समाज ने संसद के बाहर प्रदर्शन करने का निर्णय लिया था।”

रामरंगजी के अनुसार, ”दोपहर एक बजे जुलूससंसद भवन पर पहुंच गया और संत समाज के संबोधन का सिलसिला शुरू हुआ। करीब तीन बजेका समय होगा, जब आर्य समाज के स्वामी रामेश्वरानंद भाषण देने के लिए खड़े हुए। स्वामी रामेश्वरानंद ने कहा, ‘यह सरकार बहरी है। यह गो हत्या को रोकने के लिए कोई भी ठोस कदम नहीं उठाएगी।

इसे झकझोरना होगा। मैं यहां उपस्थित सभी लोगों से आह्वान करता हूं कि सभी संसद के अंदर घुस जाओ और सारे सांसदों को खींच-खींच कर बाहर ले आओ, तभी गो हत्या बंदी कानून बन सकेगा।’  ”इतना सुनना था कि नौजवान संसद भवन की दीवार फांद-फांद कर अंदर घुसने लगे। लोगों ने संसद भवन को घेर लिया और दरवाजा तोड़ने के लिए आगे बढ़े। पुलिसकर्मी पहले से ही लाठी-बंदूक के साथ तैनात थे। पुलिस ने लाठी और अश्रुगैस चलाना शुरू कर दिया। भीड़ और आक्रामक हो गई। इतने में अंदर से गोली चलाने का आदेश हुआ और पुलिस ने भीड़ पर अंधाधुंध फायरिंग शुरू कर दी। संसद के सामने की पूरी सड़क खून से लाल हो गई। लोग मर रहे थे, एक-दूसरे के शरीर पर गिर रहे थे और पुलिस की गोलीबारी जारी थी।

नहीं भी तो कम से कम, पांच हजार लोग उस गोलीबारी में मारे गए थे।”  ”बड़ी त्रासदी हो गई थी और सरकार केलिए इसे दबाना जरूरी था। ट्रक बुलाकर मृत, घायल, जिंदा-सभी को उसमें ठूंसा जाने लगा। जिन घायलों के बचने की संभावना थी, उनकी भी ट्रक में लाशों के नीचे दबकर मौत हो गई।

हमें आखिरी समय तक पता ही नहीं चला कि सरकार ने उन लाशों को कहां ले जाकर फूंक डाला या जमीन में दबा डाला। पूरे शहर में कफ्र्यू लागू कर दिया गया और संतों को तिहाड़ जेल में ठूंस दिया गया। केवल शंकराचार्य को छोड़ कर अन्य सभी संतों को तिहाड़ जेल में डाल दिया गया। करपात्री जी महाराज ने जेल से ही सत्याग्रह शुरू कर दिया। जेल उनके ओजस्वी भाषणों से गूंजने लगा।

उस समय जेल में करीब 50 हजार लोगों को ठूंसा गया था।” रामरंग जी के अनुसार, ”शहर की टेलिफोन लाइन काट दी गई। 8 नवंबर की रात मुझे भी घर से उठा कर तिहाड़ जेल पहुंचा दिया गया। नागा साधु छत के नीचे नहीं रहते, इसलिए उन्होंने तिहाड़ जेल के अदंर रहने की जगह आंगन में ही रहने की जिद की, लेकिन ठंड बहुत थी।

नागा साधुओं ने जेल का गेट, फर्निचर आदि को तोड़ कर जलाना शुरू किया। उधर प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने गुलजारीलाल नंदा पर इस पूरे गोलीकांड की जिम्मेवारी डालते हुए उनका इस्तीफा ले लिया। गुलजारीलाल नंदा उस वक्त गृहमंत्री के पद पर आसीन थे। गुलजारीलाल नंदा गौहत्या क़ानून हटाने के पक्ष में थे जिसके बाद उन्हें उनके पद से निष्कासित कर दिया और मंत्रिमंडल में कहीं भी जगह नहीं दी गयी, तत्कालीन महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री व चीन से हार के बाद देश के रक्षा मंत्री बने यशवंत राव बलवतंराव चैहान को गृहमंत्री बना दिया गया।

तिहाड़ जेल में नागा साधुओं के उत्पाद की खबर सुनकर गृहमंत्री यशवंतराव बलवतंराव चैहान खुद जेल आए और उन्होंने नागा साधुओं को आश्वासन दिया कि उनके अलाव के लिए लकड़ी का इंतजाम किया जा रहा है। लकड़ी से भरे ट्रक जेल के अंदर पहुंचने और अलाव की व्यवस्था होने पर ही नागा साधु शांत हुए।” बाद में सरकार ने इस पूरे घटनाक्रम को एक तरह से दबा दिया।

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