ललित गर्ग – विभूति फीचर्स
शताब्दियों से हम नवरात्र महोत्सव मनाते हुए कन्याओं को पूजते हैं। पूरे नौ दिन शक्ति की उपासना होती है। दुर्गा के अलग-अलग रूपों की पूजा-अर्चना करके लोग उनसे कृपा का अनुरोध करते हैं। लेकिन विडम्बना देखिये कि सदियों की पूजा के बाद भी हम कन्याओं को उनका उचित स्थान और सम्मान नहीं दे पाये हैं। हाल ही कि घटनाओं पर नजर डाले, किस तरह देश में कन्याओं एवं महिलाओं के साथ गलत हथकंडों में दुरुपयोग किया जाता है, शोषण किया जाता है, इज्जत लूटी जाती है और हत्या कर देना- मानो आम बात है। इन त्रासद, अमानवीय एवं विडम्बनापूर्ण नारी अत्याचार की बढ़ती घटनाओं के होते हुए मां दुर्गा को पूजने का क्या अर्थ है? सुनने में अजीब लगता है कि देश में अधिकांश लोग पढ़े-लिखे और संपन्न होने के बावजूद घर में कन्या के जन्म लेने पर शोक मनाते हैं। जन्म से पहले ही पता चल जाए कि बच्ची पैदा होगी तो ये उसकी जान लेने से भी नहीं कतराते। ऐसी  मानसिकता के लोग किस तरह मां दुर्गा की पूजा के पात्र हो सकते हैं? पिछली सदी में समाज के एक बड़े वर्ग में यह एक विभीषिका ही थी कि परिवार की धुरी होते हुए भी नारी को वह स्थान प्राप्त नहीं था जिसकी वह अधिकारिणी थी।
उसका मुख्य कारण था सदियों से चली आ रही कुरीतियाँ, अंधविश्वास व बालिका शिक्षा के प्रति संकीर्णता। कितनी विडम्बना है कि जिस देश में हम ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ का नारा बुलन्द करते हुए एक जोरदार मुहिम चला रहे हैं उस देश में हम एक प्रतिभा सम्पन्न बेटी की जिन्दगी को इसलिये नहीं बचा सके क्योंकि सरकार की नीति उसकी पढ़ाई में बाधक बन गयी। युवा सपनों का टूटना-बिखरना तो आम बात है लेकिन एक दलित बालिका के पढाई का सपना उसकी मौत का कारण बनना सरकार ही नहीं सम्पूर्ण राष्ट्रीयता पर एक बदनुमा दाग है। यह दाग ‘एक भारत, श्रेष्ठ भारत’ के संकल्प पर भी लगा है और यह दाग हमारे द्वारा मां दुर्गा को पूजने की परम्परा पर भी लगा है। नारी अस्मिता एवं अस्तित्व को नोचने वाली घटनाएं हमें बार-बार शर्मसार करती है।
देवभूमि भी धुंधली हुई है क्योंकि पवित्र माटी की गुडिय़ा को जब दरिन्दों ने हवस का शिकार बनाया , यह वीभत्स घटना भी महाभारतकालीन उस घटना का नया संस्करण है जिसमें राजसभा में द्रौपदी को बाल पकड़कर  खींचते हुए अंधे सम्राट धृतराष्ट्र के समक्ष, उसकी विद्वत मंडली के सामने निर्वस्त्र करने का प्रयास हुआ था। इस वीभत्स घटना में मनुष्यता का ऐसा भद्दा एवं घिनौना स्वरूप सामने आया है जिसने पूरे राष्ट्र को एक बार फिर झकझोर दिया है। एक बार फिर अनेक सवाल खड़े हुए है कि आखिर कितनी बालिकाएं, कब तक ऐसे जुल्मों का शिकार होती रहेंगी। कब तक अपनी मजबूरी का फायदा उठाने देती रहेंगी। दिन-प्रतिदिन देश के चेहरे पर लगती इस कालिख को कौन पोछेगा? कौन रोकेगा ऐसे लोगों को जो इस तरह के जघन्य अपराध करते हैं, नारी को अपमानित करते हैं। इन सवालों के उत्तर हमने निर्भया के समय भी तलाशने की कोशिश की थी। लेकिन इस तलाश के बावजूद इन घटनाओं का बार-बार होना दु:खद है और एक गंभीर चुनौती भी है। यह समाज की विकृत मानसिकता को भी दर्शाता है।
सोचनीय प्रश्न है कि मां दुर्गा की पूजा-अर्चना करते हुए भी हर घर में क्या कन्याओं एवं महिलाओं को जीने का सम्मानपूर्वक स्थान प्राप्त है? जिस तरह कन्या भू्रण हत्या की घटनाएं बढ़ी है, उससे तो ऐसा प्रतीत नहीं होता। जहां पांव में पायल, हाथ में कंगन, हो माथे पे बिंदिया… इट हैपन्स ओनली इन इंडिया- जब भी कानों में इस गीत के बोल पड़ते है, गर्व से सीना चौड़ा होता है। जब नवरात्र के दिनों में कन्याओं को पूजित होने के स्वर सुनते हैं तब भी सुकून मिलता है लेकिन जब उन्हीं कानों में यह पड़ता है कि इन पायल, कंगन और बिंदिया पहनने वाली कन्याओं के साथ इंडिया क्या करता है, तब सिर शर्म से झुकता है। निर्भया कांड, नितीश कटारा हत्याकांड, प्रियदर्शनी मट्टू बलात्कार व हत्याकांड, जेसिका लाल हत्याकांड, रुचिका मेहरोत्रा आत्महत्या कांड, आरुषि मर्डर मिस्ट्री की घटनाओं में पिछले कुछ सालों में इंडिया ने कुछ और ऐसे मौके दिए जब अहसास हुआ कि किसी तरह नारी अस्तित्व बच भी जाए तो दुनिया के पास उसके साथ और भी बहुत कुछ है बुरा करने के लिए। बहशी एवं दरिन्दे लोग ही नारी को नहीं नोचते, समाज के तथाकथित ठेकेदार कहे जाने वाले लोग और पंचायतें भी नारी की स्वतंत्रता एवं अस्मिता को कुचलने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ रहे है स्वतंत्र भारत में यह कैसा समाज बन रहा है, जिसमें महिलाओं की आजादी छीनने की कोशिशें और उससे जुड़ी हिंसक एवं त्रासदीपूर्ण घटनाओं ने बार-बार हम सबको शर्मसार किया है।
नारी के साथ नाइंसाफी चाहे कोटखाई में हो या गुवाहाटी में हुई हो या बागपत में या तमिलनाडू में- नवरात्र का अवसर इन स्थितियों पर आत्म-मंथन करने का है, उस अहं के शोधन करने का है जिसमें श्रेष्ठताओं को गुमनामी में धकेलकर अपना अस्तित्व स्थापित करना चाहता है। देश में हुई जनगणना के आंकड़े चौंकाते ही नहीं बल्कि दुखी भी करते हैं। जिस तरह से लड़के-लड़कियों का अनुपात असंतुलित हो रहा है, उससे ऐसी चिन्ता भी जतायी जाने लगी है कि यही स्थिति बनी रही तो लड़कियां कहां से लाएंगे? केन्द्र सरकार एवं राज्य सरकारों ने स्थिति की गंभीरता को देखते कड़े कदम उठाये, लेकिन समस्या कम होने की बजाय आज भी खड़ी है। देश में शिक्षा के क्षेत्र में कुछ पॉजिटिव बदलाव आए हैं। पुरुषों में साक्षरता पिछले दस सालों में 31 फीसदी बढ़ी है तो महिलाओं में 49 फीसदी। लेकिन लड़कियों के लिए समाज के साक्षर होने का कोई सकारात्मक अर्थ नहीं है क्योंकि अधिकतर साक्षर राज्यों और जिलों में बच्चियों का जीवन ज्यादा खतरे में है। आदिवासी इलाकों और पिछड़ा कहे जाने वाले क्षेत्रों में बालिका अनुपात अच्छा ही नहीं, काबिले तारीफ है।
जिस देश में हर साल पांच लाख से अधिक कन्या भू्रण मार दिए जाते हों वहां लड़कियों की सामाजिक हैसियत  सुधरने की उम्मीद कैसे की जा सकती है? सरकार की तमाम कोशिशों एवं सख्त कानूनों के बावजूद भू्रण परीक्षण का प्रचलन बढ़ रहा है। क्या कारण है भ्रूण परीक्षण के बढ़ते प्रचलन का? क्या ऐसा इसलिए किया गया कि भू्रण को कोई असामान्य परेशानी थी, मां का शारीरिक या मानसिक स्वास्थ्य ठीक नहीं था या गर्भ निरोधक नाकाम रहा था। नहीं। एक्सपर्ट कहते हैं 80 फीसदी मेडिकल अबॉर्शन कन्याभ्रूण के ही होते हैं। किस मेडिकल ग्राउंड पर इसकी इजाजत दी जाती है, कोई नहीं जानता। इस मामले में डॉक्टर एवं भ्रूण परीक्षण कराने वाला परिवार दोनों ही दोषी होते हैं। जिन परिवारों में देवी की पूजा अर्चना की जाती है, उन परिवारों में जन्म से पहले ही कन्याओं को मार देने की स्थितियां हमारी धार्मिक आस्था पर भी प्रश्नचिन्ह खड़े करती है।
गुजरात, महाराष्ट्र और बंगाल में लोग छोटा परिवार चाहते हैं और बेटी को बुरी नहीं मानते। लेकिन कम से कम एक  बेटा होना उन्हें भी जरूरी लगता है। पंजाब, हरियाणा और उत्तरप्रदेश में ऐसे लोगों की कमी नहीं जो किसी की पहली संतान बेटी होने पर अगली बार बेटा होने का आशीर्वाद देते हैं और अगली बार भी बेटी हुई तो दिलासा देने आते हैं। अस्पताल में बेटी होने पर बधाई नहीं मांगी जाती, लेकिन बेटा होने की खबर आते ही पूरे परिवार एवं समाज में जश्न की तैयारियां होने लगती हैं। अगर कोई बेटी के जन्म पर खुश होना चाहे तो समाज उसे ऐसा नहीं करने देता। क्या जन्म के बाद बेटे और बेटी के बीच भेदभाव कम करने की किसी कोशिश को सराहा जाता है? ऐसा होने लगे तभी देवी- पूजा की सार्थकता है और तभी हमारा नवरात्र महोत्सव मनाना उपयोगी है। (विभूति फीचर्स)

 

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