डॉ. मधु धवन

शक्ति या ऊर्जा के बिना प्राणी निर्जीव है। संपूर्ण ब्रह्माïण्ड देवी का प्रतिबिम्ब है अथवा छायामात्र है। भौतिक पदार्थों एवं जीवों में शक्ति अर्थात्ï देवी द्वारा चेतना व प्राण का संचार होता है। अत: यही मुख्य कारण है कि शक्ति की साधना कर मानव अपना-अपना जीवन सफल बना सकता है।
भगवती मां के अनेक नाम और रूप हैं। वे जगत्जननी माहेश्वरी, अम्बा, जगदंबा हैं। मनुष्य क्या, देवता तक अपने कल्याण के लिए मां की वंदना करते हैं। वे पापों का विनाश करती हैं और अपने भक्तों की मनोकामना पूरी करती हैं।

देवी भागवतपुराण में ऐसा उल्लेख मिलता है कि एक बार नारदजी के मन में यह जानने की इच्छा बलवती हुई कि आखिर त्रिदेव ब्रह्मा, विष्णु, महेश किसकी उपासना-आराधना करते हैं। अपने मन को शांत करने के लिए नारद भगवान शिवशंकर के समक्ष जाकर नतमस्तक हुए। भगवान शंकर को प्रणाम कर थोड़ी देर उलझन में खड़े रहे कि कैसे अपने संशय का समाधान करें?

भगवान शंकर ने स्वयं ही पूछ लिया- क्या बात है नारद! तुम कुछ चिंतित एवं परेशान हो? नारद ने अपना सिर झुकाया, जय हो भोलेनाथ की जय हो। एक क्षण वे चुप रहकर बोले, प्रभु! भला मैं आपसे अपना मनोभाव प्रकट नहीं करूंगा तो किससे करूंगा। सच तो यही है  भगवान कि मैं यहां कैलाश धाम में, आपके समक्ष उपस्थित हुआ हूं।

कहो, नारद क्या जानना चाहते हो? भगवान शिव मुस्कराए प्रभु, मेरे मन में क्या जानने की इच्छा है यह आपसे छिपी नहीं है। आप त्रिकालदर्शी हैं और आपको सब पता है फिर भी आपकी आज्ञा है तो मैं निवेदन करता हूं।

नारद ने नारायण…नारायण….का उद्ïघोष किया, फिर अत्यन्त विनम्र भाव से कहा- भगवान! मैं यह जानना चाहता हूं कि आप, परमपिता ब्रह्मा तथा श्रीहरि विष्णु तीनों देव किसकी उपासना करते हैं? मुझे तो आप तीनों से बढ़कर कोई और देवता नहीं लगा, जिसकी आप सब उपासना-आराधना करते हैं?

भगवान शिव नारद की चतुराई पर एक क्षण तक मुस्कराते रहे, फिर सहज होकर बताने लगे- नारद! सूक्ष्म एवं स्थूल शरीर से परे जो महाप्राण आदिशक्ति है, वह स्वयं परब्रह्मï स्वरूप हैं। वह केवल अपनी इच्छामात्र से ही सृष्टिï की रचना, पालन एवं संहार करने में समर्थ हैं। वास्तव में वह निर्गुण स्वरूपा हैं परंतु धर्म की रक्षा तथा दुष्टो के विनाश हेतु समय-समय पर दुर्गा, काली, चण्डी, वैष्णो, सरस्वती, पार्वती के रूप धारण करती हैं। प्राय: यह भ्रम होता है कि यह देवी कौन है? और क्या यह परब्रह्म से भी बढ़कर है? स्वयं भगवती ने देवी भागवत पुराण में ब्रह्माजी के इन प्रश्नों का उत्तर दिया है

एक ही वास्तविकता है और वह है सत्य। मैं ही सत्य हूं। मैं न तो नर हूं, न नारी और न ही कोई ऐसा प्राणी हूं जो नर या मादा हो अथवा नर-मादा भी नहीं हूं। ऐसा भी कुछ नहीं हूं, परन्तु कोई वस्तु ऐसी नहीं है, जिसमें मैं विद्यमान नहीं हूं। मैं प्रत्येक भौतिक वस्तु और शरीर में शक्ति रूप में रहता हूं।

मैं संतुष्ट हुआ प्रभु! नारद ने प्रेमभाव से कहा और नारायण… नारायण… कहकर चल पड़े।
इसी महाशक्ति ने कहा है, सृष्टि से पहले मेरा, सिर्फ मेरा अस्तित्व था और कुछ नहीं था। मुझे ही चिंता मेघा, परब्रह्म जैसे अनेक नामों से जाना जाता है। मैं बुद्धि, विचार या किसी भी नाम या संकेत से परे हूं। मेरे समान कुछ नहीं है। मैं जन्म-मृत्यु या किसी अन्य परिवर्तन या रूपांतरण से परे हूं। माया मेरी अन्तर्भूत शक्ति है। जो न विद्यमान है और न ही अनुपस्थित। इसे इन दोनों अवस्थाओं में भी नहीं समझा जा सकता है।

श्री देवी भागवत पुराण में भगवान विष्णु ने यह स्वीकार किया है कि त्रिदेवों में से कोई भी स्वतंत्र नहीं है। वे सब जो कुछ भी कहते या करते हैं, वे सब महादेवी की इच्छा से करते तथा कहते हैं। तात्पर्य यह है कि यदि ब्रह्माïजी सृष्टिï की रचना करते हैं, विष्णु पालन करते हैं और भगवान भोलेनाथ संहार करते है, तो वे केवल यंत्र की भांति कार्यरत हैं, ठीक उसी प्रकार जैसे कोई मशीन अपना कार्य कर रही होती है। उस मशीन की संचालिका उस आदि पराशक्ति देवी मां के हाथ में है।

देवी माहात्म्य में दुर्गा महिषासुर मर्दिनी की उत्पत्ति का उल्लेख इस प्रकार आया है- देवताओं के राजा इन्द्र और असुरों के राजा महिषासुर के बीच महायुद्ध हुआ, जो सौ वर्षों तक चला। इस महायुद्ध में असुरों ने देवताओं की सेना को परास्त कर दिया और असुर महिष सभी देवताओं को जीतने के बाद स्वयं इंद्र बन बैठा।

तब पराजित देवगण परमपिता ब्रह्मा के नेतृत्व में श्रीहरि के पास गए और युद्ध एवं पराजय का रूप बताया। दैत्यराज को वरदान प्राप्त था कि उसकी मृत्यु किसी कुंवारी कन्या के हाथ से होगी। अत: देवताओं के सम्मिलित तेज से देवी को प्रकट करने का निश्चय किया गया।

सर्वप्रथम श्रीहरि विष्णु के मुख से महान ऊर्जा प्रस्फुटित हुई, जो पूर्ण रूप से तीव्र रोष का ही रूप थी। ऐसी ही ऊर्जा भगवान शिव और ब्रह्माï के मुख से तथा इन्द्र के शरीर से भी प्रस्फुटित हुई और अन्य देवों ने भी महान ऊर्जा का अंशदान दिया।

कहते हैं- शिव के तेज से देवी का मुख प्रकट हुआ, यमराज के तेज से देवी का वेश श्रीहरि के तेज से देवी की भुजाएं, चंद्रमा के तेज से स्तन, इन्द्र के तेज से कमर, वरुण के तेज से जंघा, पृथ्वी के तेज से नितम्ब, ब्रह्मïा के तेज से चरण, सूर्य के तेज से पैरों की उंगलियां, प्रजापति के तेज से समस्त दांत, अग्नि के तेज से दोनों नेत्र, संध्या के तेज से भौहें, वायु के तेज कान और इसी तरह अन्य देवताओं की शक्ति से भगवती के अन्य अंग बने।

भगवान शिव ने भगवती को आयु के रूप में अपना त्रिशूल दिया, लक्ष्मीजी ने कमल-पुष्प, श्रीहरि ने चक्र, अग्नि ने शक्ति तथा बाणों से भरा तरकस दिया। प्रजापति ने स्फुटिक मणियों की माला, वरुण ने दिव्य शंख, हनुमानजी ने गदा, शेषनाग ने मणियों से सुशोभित नाग, इन्द्र ने वज्र, वरुण देव ने पाश व तीर, ब्रह्मïजी ने चारों वेद तथा हिमालय ने सवारी के लिए सिंह प्रदान किया। समुद्र ने उज्ज्वल हार और कभी न फटनेवाला दिव्य वस्त्र, चूड़ामणि, कुण्डल, कंगन, नूपुर तथा अंगूठियां भेंट कीं। इन समस्त वस्तुओं को देवी ने अपनी अठारह भुजाओं में धारण किया।

स्वयं देवताओं के पूछने पर देवी ने अपना परिचय मैं ब्रह्म हूं कहकर दिया। मुझसे ही प्रकृति, पुरुष और शून्य-अशून्य जगत् है। मैं ही जानने योग्य आनंद और अनानंद हूं। मैं ही ब्रह्म और अब्रह्म हूं।

देवताओं की प्रार्थना पर दुर्गा मां ने दैत्यराज महिषासुर तथा उसके पराक्रमी असुरों का मर्दन नौ दिनों में कर देवताओं को अभय प्रदान किया। मां ने इस नौ दिन के युद्ध में नौ रूप धारण किए। नवरात्र का देवी उत्सव इन्हीं दिनों की स्मृति का, कल्याण का प्रतीक है। (विभूति फीचर्स)

Previous articleवनप्लस ने वनप्‍लस ओपन का ग्‍लोबल लॉन्‍च किया
Next articleDashara special – भगवान राम का वनवास स्थल : चित्रकूट

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here