दिनेश चंद्र वर्मा – विभूति फीचर्स

भगवान राम की कथा, उनके वनवास की कथा के बिना अधूरी है और उनकी वनवास की कथा उनके चित्रकूट के निवास के उल्लेख के बिना अधूरी कही जा सकती है। अपने बारह वर्ष के वनवास में कोई ग्यारह वर्ष राम ने चित्रकूट में ही बिताये थे। भगवान राम ने अपने वन गमन में चित्रकूट को ही क्यों पसन्द किया? इसका एकमात्र उत्तर है चित्रकूट का प्राकृतिक सौन्दर्य, जो आज भी बरकरार है। हरे-भरे वन, कल-कल बहती हुई मंदाकिनी नदी तथा पहाडिय़ों से गिरते हुए अनेक झरने आज भी मन मोह लेते हैं।

चित्रकूट एक स्थान विशेष का नाम नहीं है, अपितु लगभग पचास वर्ग किलोमीटर में फैले क्षेत्र का नाम है। यह क्षेत्र दो प्रदेशों (उत्तरप्रदेश एवं मध्यप्रदेश) के दो जिलों (बांदा और सतना) में फैला हुआ है। इस क्षेत्र में विंध्याचल पर्वत की शाखाओं के रूप में अनेक पहाडिय़ाँ हैं। किसी समय में यहां अशोक के वन रहे होंगे, क्योंकि चित्रकूट का अर्थ संस्कृत भाषा में अशोक का वन होता है। आज अशोक के वन तो नहीं है किन्तु हरी-भरी पहाडिय़ाँ अपने आकर्षक रूप में आज भी मौजूद हैं। इन पहाडिय़ों की शोभा उसी तरह है, जिस तरह महर्षि वाल्मीकि ने अपनी अमर कृति वाल्मीकीय रामायण में वर्णित की थी। वाल्मीकि ने चित्रकूट की मनोरमता का वर्णन राम के मुंह से इस तरह कराया है- ‘हे भद्रे (सीता) नाना प्रकार के पक्षियों से मुक्त तथा अनेक धातुओं से विभूषित ऊँचे शिखरों वाले पर्वतों को देखो। कोई चांदी की तरह नीलमणि के समान चमकता है, कोई पुष्प राग की तरह और और कोई स्फटिक मणि की तरह है। कोई केतकी के रंग का है, कोई तारे की तरह चमक रहा है तथा कोई पारे की तरह दमक रहा है। अतएव अनेक रंगों की धातुओं के सदृश्य दिखने के कारण इस पहाड़ी क्षेत्र का नाम चित्रकूट पड़ा है।

तीर्थ स्थान- चित्रकूट की गणना भारत के प्रमुख तीर्थस्थलों में होती है। रामभक्तों की यह मान्यता और धारणा है कि यहाँ राम आज भी निवास करते हैं। इस मान्यता में उस जनश्रुति का भी योगदान है, जिसके अनुसार कहा जाता है कि हनुमान जी की कृपा से चित्रकूट में मंदाकिनी नदी के घाट पर राम ने तुलसीदास को दर्शन दिये थे। चित्रकूट में मंदाकिनी नदी पर आज भी वह घाट है, जिसके बारे में मान्यता है कि इसी घाट पर राम को तुलसीदास ने तिलक लगाया था। इस संबंध में एक दोहा भी प्रचलित है-

चित्रकूट के घाट पर, भई संतन की भीर।

तुलसीदास चन्दन घिसे, तिलक करें रघुबीर।।

तुलसीदास से सम्बन्धित यह कथा जिस घाट से सम्बन्धित है, उसे रामघाट कहा जाता है। रात्रि के समय इस घाट की शोभा देखते ही बनती है। मंदाकिनी के जल में झिलमिलाती चांदनी बड़ी ही मनमोहक होती है। इसी घाट पर तोतामुखी हनुमान की प्रतिमा है। कहा जाता है कि जब तुलसीदास मंदाकिनी में स्नान करने वालों को तिलक लगा रहे थे तब छद्मवेश में राम भी उनके सामने आ गये। तुलसीदास उन्हें पहचान नहीं सके। तब हनुमानजी ने तोते का रूप धारण करके, तुलसीदास को भगवान राम की उपस्थिति की जानकारी दी थी। तोतामुखी हनुमान की प्रतिमा से थोड़ा ऊपर यज्ञबेदी के नाम से प्रसिद्ध एक स्थान है। कहा जाता है कि इस स्थान पर ब्रह्मा ने यज्ञ किया था। यज्ञवेदी के समीप ही पर्णकुटी नामक एक अन्य स्थान है। कहा जाता है कि यहाँ पर कुछ दिनों तक राम और लक्ष्मण पर्णकुटी बनाकर रहे थे।

तुलसीदास और चित्रकूट- रामचरित मानस के रचयिता गोस्वामी तुलसीदास ने चित्रकूट में काफी दिनों तक निवास किया था। उनके निवास के दो स्थान बताये जाते हैं। इनमें से एक निवास तो उसी रामघाट पर है, जहाँ उन्हें भगवान राम ने दर्शन दिये थे। दूसरा स्थान कामदगिरि नामक पहाड़ी पर चरणपादुका के पास स्थित है।

राघव प्रयाग- रामघाट के पास ही राघव प्रयाग नामक स्थान है। यह वह स्थान है, जहाँ मंदाकिनी नदी से पयोष्णी (पाण्यस्विनी) नामक एक छोटी सी नदी का संगम होता है। इस स्थान को प्रयाग (इलाहाबाद) के समान पवित्र और पुण्यदायी माना जाता है। अपने वनवास में जब राम को अपने पिता दशरथ के निधन की सूचना मिली थी, तब उन्होंने यहीं तर्पण किया था, इसीलिए इस स्थान को राघव प्रयाग कहा जाता है। इस घाट पर पन्ना के राजा श्री अमान सिंह द्वारा बनवाया हुआ एक सुन्दर मंदिर भी है। राघव प्रयाग के सामने भी एक घाट है, जिसे मंदाकिनी घाट कहा जाता है। राघव प्रयाग एवं उसके समीप ही मंदाकिनी नदी पर अनेक घाट स्थित हैं। इन घाटों पर अनेक मंदिर हैं, जो काफी ऊँचाई पर बने हुए हैं। ये मंदिर मध्यकालीन भारतीय शिल्पकला के अच्छे उदाहरण कहे जा सकते हैं।

मंदाकिनी नदी : इस स्थान पर मध्यप्रदेश एवं उत्तरप्रदेश की सीमा निर्धारित करती है। नदी का दक्षिणी भाग उत्तरप्रदेश में तथा उत्तरीतट मध्यप्रदेश में है।

जानकी कुंड – मंदाकिनी नदी के तट पर चलते हुए जब हम उत्तर की ओर बढ़ते हैं तो नदी के तट पर एक कुंड है, जिसे जानकारी कुंड कहा जाता है। इस स्थान की प्राकृतिक छटा देखते ही बनती है। नदी के दोनों किनारों पर हरियाले जंगल हैं तथा बीच में सफेद पत्थरों की चट्टानें हैं। इसी कुंड के पास एक सफेद पत्थर पर राम के चरण चिह्न उत्कीर्ण हैं।

स्फटिक शिला- मंदाकिनी नदी के तट पर हम और आगे बढ़ते हैं तो स्फटिक शिला नामक स्थान आता है। यह स्थान रामायण की उस कथा की स्मृति दिलाता है, जब इन्द्र के पुत्र जयन्त ने कौए का रूप धारण कर सीता के चरण पर चोंच मारी थी। स्फटिक शिला नामक स्थान पर दो चमकीली शिलाएं हैं, जिनमें राम, लक्ष्मण और सीता के चरण चिह्न उत्कीर्ण हैंं।

सीता के चरण चिह्न दो स्थानों पर बताये जाते हैं। एक तो कामदगिरि के पास चरणपादुका नामक स्थान पर तथा दूसरे हनुमान-धारा के रास्ते पर। इन सभी चिह्नों की विशेषता यह है कि ये मानव निर्मित नहीं हैं अपितु प्राकृतिक रूप से बने दिखाई पड़ते हैं।

अनुसूया आश्रम- अपने पतिव्रत धर्म के लिए पुराण प्रसिद्ध अनुसूया का आश्रम चित्रकूट में है। इस आश्रम के सामने से ही मंदाकिनी नदी का उद्गम होता है। कहा जाता है कि अनुसूया ने अपने तप के प्रभाव से मंदाकिनी नदी को वहां पर प्रकट किया था।

रामायण में इस बात का भी उल्लेख है कि अनुसूया ने  सीता को पतिव्रत धर्म का उपदेश दिया था। इस आश्रम तथा समीपवर्ती परमहंस आश्रम में सती अनुसूया एवं उनके जीवन से संबंधित अनेक कथाओं की सुन्दर प्रतिमाएं प्रतिष्ठित हैं।

गुप्त गोदावरी- मंदाकिनी नदी के रामघाट से कोई बारह किलोमीटर की दूरी पर स्थित गुप्त गोदावरी नामक स्थान, प्रकृति की शिल्पकला का एक अद्भुत एवं अनुपम नमूना है। गुप्त गोदावरी में दो प्राकृतिक गुफाएं हैं। ये दोनों ही गुफाएं पहाड़ में काफी भीतर तक चली गयी हैं। इनमें से एक गुफा पहाड़ की चोटी पर है तथा दूसरी तलहटी में है।

चोटी पर स्थित गुफा में ही एक झरना है। कहा जाता है कि इसी झरने से गुप्त गोदावरी निकली थी। इस झरने के पास गुफा के भीतर एक स्थान ऐसा है, जो मंदिर के किसी शिखर के भीतरी भाग की तरह लगता है। इसकी विशेषता यह है कि इसे मानव ने नहीं बनाया है, बल्कि प्राकृतिक रूप से ही यह निर्मित हुआ है। पहाड़ी की तलहटी में स्थित गुफा में राम कुंड एवं लक्ष्मण कुंड नामक दो झरने हैं। इस गुफा की दीवारों पर प्रकृति ने अनुपम शिल्पकला दिखाई है। एक स्थान पर ऐसा लगता है कि सहस्रों नागफन उठाये खड़े हैं। इस स्थान को शेषावतार कहा जाता है। दोनों गुफाओं में पानी में से होकर जाना होता है।  गुफाओं में दिन में भी भारी अंधकार रहता है, किन्तु दर्शकों की सुविधा के लिए आजकल बिजली का प्रबन्ध है।

कामदगिरि- कामदगिरि या कामतानाथ के नाम से प्रसिद्ध पहाड़ी के बारे में कहा जाता है कि इस पहाड़ी की स्वयं भगवान राम ने पूजा की थी तथा यहाँ निवास किया था। धार्मिक मान्यता है कि इस पहाड़ी के दर्शन और परिक्रमा से सारे पाप नष्ट हो जाते हैं। इन पहाड़ों की परिक्रमा के लिए पक्का रास्ता बना हुआ है, जो पांच किलोमीटर लम्बा है। इस रास्ते का निर्माण सन् 1725 में बुंदेलखण्ड के प्रसिद्ध राजा छत्रसाल की पत्नी महारानी चांदकुंवरी ने किया था। परिक्रमा के रास्ते पर अनेक मंदिर स्थित हैं, जिनमें विभिन्न देवी-देवताओं की प्रतिमाएं प्रतिष्ठित हैं। कहा जाता है कि इस परिक्रमा में सारे तीर्थ निवास करते हैं। कामदगिरि या कामतानाथ की पूजा एक देवता के रूप में की जाती है। इस पर्वत का एक प्राकृतिक मुख भी है, जिसको कामतानाथ का मुखारबिन्द कहा जाता है। सैकड़ों श्रद्धालु प्रतिदिन इस पहाड़ी की परिक्रमा करते हैं। इस पर्वत को श्रद्धालुओं द्वारा राम की तरह ही आराध्य एवं वंदनीय माना जाता है।

कामदगिरि विन्ध्याचल की एक शाखा है तथा इसका वर्णन महाकवि कालिदास ने मेघदूत में ‘भ्रकुच’ के रूप में किया है। तुलसीदास ने भी इस पहाड़ी के संबंध में लिखा है-

कामदगिरि भये राम प्रसादा।

अवलोकत अपहरत विषादा।।

हनुमान धारा के नाम से एक पहाड़ी झरना भी काफी प्रसिद्ध है। एक पहाड़ी के ऊपर से यह झरना, हनुमान जी की प्रतिमा के सामने गिरता है। हनुमान धारा के समीप पंचमुखी हनुमान-धारा नामक एक अन्य झरना है। इन दोनों धाराओं के बीच में नरसिंहधारा नामक एक तीसरा झरना है।

हनुमान धारा जिस पहाड़ी पर स्थित है, उसकी चोटी पर सीताजी की रसोई नामक स्थान है। कहा जाता है कि इस स्थान पर सीताजी भोजन बनाती थीं। यहाँ सीताजी का मंदिर तथा पत्थर के चकोटे बेलन दर्शनीय हैं।

भरत कूप- कामदगिरि से कोई 10 किलोमीटर दूरी पर भरत कूप नामक एक कुआँ है। इस कुएं के बारे में कहा जाता है कि जब भरत रामचन्द्र जी को अयोध्या वापस लाने के लिए गये थे तो उन्हें राजतिलक करने के लिए वे अपने साथ सारे तीर्थों का जल ले गये थे। रामचन्द्रजी ने जब राज्याभिषेक कराने से इंकार कर दिया तो भरत ने तीर्थों का जल जिस कुएं में डाल दिया था, वह भरत कूप के नाम से विख्यात है। मान्यता है कि इसके जल के स्नान से सारे तीर्थों के स्नान का पुण्य मिलता है।

रामशैया- यह चट्टान भी प्राकृतिक है और इसमें दो चिह्न ऐसे बने हुए हैं, जैसे किसी के सोने से गद्दे पर बन जाते हैं। कहते हैं कि इस चट्टान पर एक चिह्न रामचन्द्रजी के सोते समय बना था और दूसरा चिह्न सीताजी के सोते समय। इन दोनों चिह्नों के बीच धनुष का भी चिह्न है।

तीन महाकवियों द्वारा वर्णित स्थल- चित्रकूट की विशेषता यह है कि इसकी प्राकृतिक सुषमा का वर्णन भारत के तीन महाकवियों-वाल्मीकि, कालिदास एवं तुलसीदास ने किया है। वाल्मीकि और तुलसीदास के वर्णन तो आप पढ़ ही चुके हैं। कालिदास ने भी चित्रकूट का वर्णन ‘वन्द्य:पुंसां रघुपतिं पंदंरकितं मेखलासु’ के रूप में किया है। अर्थात् चित्रकूट की पर्वतमेखला पर रामचन्द्र के चरण चिह्न अंकित है ।

रामचन्द्रजी अपना वनवास चित्रकूट में ही बितायें यह सुझाव महर्षि वाल्मीकि ने दिया था। इसका उल्लेख वाल्मीकि रामायण और तुलसीदास कृत रामचरित मानस में मिलता है। वाल्मीकि का आश्रम कामदगिरि से कोई 25 मील दूर लालापुर पहाड़ी पर स्थित है।

महर्षि वाल्मीकि का यह सुझाव कितना उपयुक्त था, इसका अनुमान चित्रकूट पहुंचकर ही लगाया जा सकता है, क्योंकि चित्रकूट के कणकण में जो प्राकृतिक छटा व्याप्त है उसे देखकर मानव का क्या, देवताओं का मन भी नाच उठता है। तभी तो भगवान राम ने अपने वनवास का अधिकांश समय यहीं बिताया था। भगवान राम के वनवास की तो स्मृति ही अब शेष है, किन्तु चित्रकूट की मनमोहक प्राकृतिक सुषमा आज भी दर्शकों का मन मोह लेती है। (विभूति फीचर्स)

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