– दिनेश चंद्र वर्मा
भारत में शक्ति अथवा दुर्गा की पूजा, आराधना एवं उपासना की अत्यधिक प्राचीन परंपरा रही है। शक्ति अथवा दुर्गा  के उपासक शाक्य कहलाते हैं और जिस प्रकार वैष्णव विष्णु के अनेक रूपों की उपासना करते हैं या शैव, शिव, रूद्र या महेश के विविध स्वरूपों की आराधना करते हैं, उसी प्रकार शाक्य संप्रदाय के लोग शक्ति एवं दुर्गा के अनेक रूपों की उपासना करते रहे हैं। दुर्गा के सैकड़ों नाम एवं स्वरूप दुर्लभ हैं। उनमें प्रकृति के प्रजनन, पालन और संहार तीनों गुण देखे जाते हैं। इस प्रकार दुर्गा की उपासना भी विविध स्वरूपों में की गई है।
मध्यप्रदेश के पुरातत्व विभाग के पास दुर्गा की कुछ ऐसी ही दुर्लभ प्रतिमाएं हैं। इनमें से एक प्रतिमा तो शायद संसार में और कहीं देखने को नहीं मिलती है। यह प्रतिमा है अलक्ष्मी की। दुर्गा के जिन स्वरूपों की वंदना होती है, उनमें उनके महालक्ष्मी एवं सरस्वती के स्वरूप भी शामिल हैं, पर क्या दुर्गा के रूप में अलक्ष्मी की भी उपासना होती थी? अलक्ष्मी की यह प्रतिमा मध्यप्रदेश के रीवा जिले के गुर्गी नामक स्थान से प्राप्त हुई है।
रीवा, उस छतरपुर जिले का समीपवर्ती जिला है, जहां खजुराहों के विश्वविख्यात मंदिर हैं। अलक्ष्मी की यह प्रतिमा दसवीं शताब्दी की है। उस समय न केवल खजुराहों में बल्कि आसपास के क्षेत्रों में भी अनेक प्रतिमाओं एवं मंदिरों का निर्माण हुआ था। अलक्ष्मी की यह प्रतिमा कृशकाय स्वरूप में है। प्रतिमा को इतनी सफाई से उत्कीर्ण किया गया है कि न केवल पसलियां, बल्कि अन्य हड्डियां तक स्पष्ट दिखाई देती हैं।
पूरी प्रतिमा में 6 नरमुंड तथा दो नरकंकाल हैं। इन नरकंकालों को रक्तपान करते हुए दिखाया गया है। एक नरकंकाल खड़ा हुआ है, जबकि दूसरा आड़ा पड़ा हुआ है।
अलक्ष्मी की पूजा उपासना का कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता है, पर मान्यता यह है कि जब अकाल पड़ता था, तब इस देवी की आराधना एवं उपासना की जाती थी। इस प्रतिमा में प्रदर्शित कंकाल संभवत: इसी अकाल के प्रतीक है। संभवत: भारत में अलक्ष्मी की यह एकमात्र प्रतिमा है।
अपराजिता दुर्गा का ही एक नाम है, पर अपराजिता बौद्धों के वज्रयान मत की भी एक प्रसिद्ध देवी है। सातवीं शताब्दी में बौद्ध मत में वज्रयान (तंत्रयान) का प्रादुर्भाव हुआ और बौद्ध धर्मावलंबी गौतमबुद्ध के नाम को भूलकर कई अन्य देवी-देवताओं के माध्यम से तंत्र की साधना में जुट गए। इस प्रकार की उपासना का उल्लेख चीनी यात्री  व्हेनसांग ने भी किया है। अपराजिता की कुछ अन्य प्रतिमाएं नालंदा एवं पटना संग्रहालयों में है, पर भोपाल संग्रहालय की यह प्रतिमा उन प्रतिमाओं से कुछ भिन्न है।
कुछ पुरातत्व शास्त्री इस प्रतिमा को बौद्ध प्रतिमा नहीं मानते हैं। इसके दो कारण हैं एक तो यह प्रतिमा दसवीं और ग्यारहवीं शताब्दी की हैं, जब हिंदुओं और बौद्धों की कटुता समाप्त हो गई थी तथा हिंदुओं ने भगवान बुद्ध को भगवान विष्णु का नवम अवतार स्वीकार कर लिया था। दूसरा कारण इस प्रतिमा के प्राप्त होने वाले स्थान से संबंधित है। यह प्रतिमा मंदसौर जिले के हिंगलाजगढ़ नामक स्थान से प्राप्त हुई है।
हिंगलाजगढ़ एक समय में दुर्गा की उपासना का केंद्र था तथा वहां मालवा के परमार शासकों ने अनेक मंदिरों तथा प्रतिमाओं का निर्माण किया था। यह प्रतिमा संभवत: गणेश एवं दुर्गा से संबंधित किसी पौराणिक कथा का प्रतीक है। वैसे दुर्गा द्वारा भगवान शंकर की पीठ पर पैर रखकर दानवों के संहार की प्रतिमाएं मिलती हैं, वैसी ही यह प्रतिमा हो सकती है, जिसमें वह भगवान गणेश पर पैर रखे हुए हैं। पुरातत्व शास्त्रियों का कहना है कि हिंगलाजगढ़ का कभी बौद्ध धर्म से संबंध नहीं रहा और न वहां (अपराजिता को छोड़कर) अन्य कोई बौद्ध प्रतिमा ही मिलती है।
अपराजिता की यह भग्न प्रतिमा, मध्यकालीन शिल्पकला का अनुपम उदाहरण है। इस प्रतिमा को त्रिभंग मुद्रा में दर्शाया गया है। देवी जटा मुकुट को धारण किए हैं, जिस पर नरमुंडों का सुरुचिपूर्ण अंकन है। मुख के पीछे पूर्ण प्रफुल्लित कमल का प्रभामंडल है, प्रतिमा
कानों में चक्रकुंडल धारण किए हुए हैं। मस्तक पर भगवान शिव के तीनों नेत्रों की भांति उभरी हुई आंखें देवी के रौद्र रूप का भान कराती है।
इस प्रतिमा में दस भुजाएं थीं, पर दायीं ओर तीन हाथों को छोड़कर शेष सभी भुजाएं खंडित हैं। सबसे ऊपर के हाथ में ढाल है तथा नीचे के हाथ में खप्पर है, तीसरे हाथ का आयुध स्पष्ट नहीं दिखता है। देवी गले में अलंकृत कंठहार पहने हुई हैं। वक्षस्थल पर कुचबंद एवं मोतियों की माला है।
हाथों में कंकण एवं  जबंद है। प्रतिमा साड़ी के साथ कमर में करधनी धारण किए हुए हैं। इस प्रतिमा को हिंदू प्रतिमा मानने वाले पुरातत्व शास्त्री, इस प्रतिमा के मस्तक पर त्रिनेत्र एवं जटामुकुट एवं नरमुंडों के अंकन को आधार मानकर इसे यंगिनी नामक योगिनी की प्रतिमा भी मानते हैं।
जबलपुर के प्रसिद्ध चौंसठ योगिनी मंदिर में यंगिनी की प्रतिमा है, जिसमें यह योगिनी गणेश को अपनी गोद में लिए हुए दिखाई गई है। इस बात में विवाद हो सकता है कि यह प्रतिमा बौद्ध है या हिंदू, पर इस बात पर किसी को आपत्ति नहीं हो सकती कि ये दोनों प्रतिमाएं शिल्प शा एवं पुरातत्व महत्व की दृष्टि से बेजोड़ है। भारत में इस प्रकार की अन्य देवी प्रतिमाएं शायद ही कहीं हों। (विभूति फीचर्स)
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