ज्ञान की गंगा – गायत्री साहू
महाराष्ट्र राज्य में मुम्बई के समीप के थाने जिले में गणेशपुरी नाम का एक गाँव है। जहाँ नित्यानंद महाराज का भव्य मंदिर है। इस स्थान पर देश विदेश से लोग दर्शन करने हेतु आते हैं। गणेशपुरी में श्री भीमेश्वर सद्गुरु नित्यानंद संस्थान द्वारा संचालित विशाल आध्यात्मिक केंद्र और गुरुदेव सिद्धपीठ है। यह स्थान सिद्धयोग के स्वामी श्री नित्यानंद और उनके शिष्य स्वामी श्री मुक्तानंद की समाधियों के लिए प्रसिद्ध है। स्वामी नित्यानंद ने 1936 से 1961 तक गणेशपुरी में ही रहकर तप, योग और मनन किया था।
स्वामी मुक्तानंद यहां सन 1956 में आए थे। 70 के दशक में 75 एकड़ क्षेत्र में बना यहां का विशाल सिद्धपीठ तथा गणेशपुरी उपवन के किनारे संगमरमर से निर्मित विशाल श्री भीमेश्वर महादेव मंदिर उन्हीं द्वारा स्थापित किया हुआ है। ‘गणेशपुरी’ नाम पड़ने के पीछे लोकोक्ति यह है कि त्रेता काल में महर्षि वशिष्ठ ने यहां गणेशजी की प्रतिमा की स्थापना करके भीषण तपस्या भी की थी। यह स्थान भगवान राम और परशुराम के चरण पड़ने से भी पवित्र माना जाता है। नाथों की धरती होने के कारण यह संपूर्ण क्षेत्र ‘नाथ भूमि’ के नाम से भी प्रसिद्ध है।
गणेशपुरी में गुरुदेव सिद्धपीठ के भव्य हॉल में गुरुदेव की भव्य प्रतिमा के समक्ष भक्तगणों को मनन और ध्यान करते देखा जा सकता है। कैलास निवास में स्वामी नित्यानंद सात वर्षों तक रहे और बैंगलोरवाला में उन्होंने 1961 में देह त्याग किया था। इसके अलावा स्वामी मुक्तानंद, शालिग्राम स्वामी, गोविंद स्वामी और दिगंबर स्वामी की समाधियां यहां के अन्य आकर्षण केंद्र हैं। यहां अतिथिगृह और भोजनशाला की व्यवस्था भी है। गुरु पूर्णिमा गणेशपुरी का सबसे प्रमुख उत्सव है।
गणेशपुरी परिसर और आस-पास दर्शन के लिए रामेश्वर महादेव, भद्रकाली, हनुमान, गणेश, जलाराम धाम, साई धाम और ग्रामदेवी के कई मंदिर और मिलेंगे।
एक लोक कथा के अनुसार, केरल के तुनेही गांव में एक तूफानी रात में चतु नायर नाम के मजदूर को एक नवजात मिला। इस शिशु के पास में एक कोबरा फन फैलाये हुए शिशु की रक्षा कर रहा था। चतु नायर और उन्नी अम्मा ने अपने नियोक्ता और स्थानीय वकील ईश्वर अय्यर के पास बच्चे को लाया और नवजात के बारे में बताया। फिर दोनों ने मिलकर बच्चे को पाला और उसका नाम रामन रखा। बाल्यकाल से ही यह बच्चा अनोखी प्रतिभा का धनी था। लोगों ने भी उनका चमत्कार देखा।

जब ईश्वर अय्यर अपने अंतिम दिनों के करीब पहुंचे, उन्होंने रामन से भगवान सूर्य नारायण के दर्शन पाने का अनुरोध किया। उनकी यह इच्छा पूरी हुई और जब अय्यर ने इस घटना का अनुभव किया, तो वह अभिभूत हो गया और रामन से कहा कि आपने मुझे सर्वोच्च आनंद दिया है, इसलिए आप मेरे नित्यानंद हैं। नित्यानंद जब युवा हुए तो योग और तपस्या में लीन हो गए। उन्होंने हिमालय, वाराणसी, कोलंबो, रामेश्वरम, उडिपी, मंगलौर आदि की यात्रा की। वे जहां भी गए वहाँ लोगों को दिव्य उपचार के माध्यम से बीमारी, दुख और गरीबी से मुक्त किया। जब तक श्री नित्यानंद कान्हागढ़ पहुंचे, तब तक उनकी प्रसिद्धि ने अनगिनत भक्तों को आकर्षित किया और अब उनकी कीर्ति दूर-दूर तक फैल चुकी थी।
कान्हांगड और पास के गुरुवन में, उन्होंने निवास और ध्यान के लिए गुफाओं की एक बस्ती की स्थापना की। उन्होंने पेड़ भी लगाए और एक धारा का निर्माण किया, जिसे बाद में पापनाशिनी गंगा नाम दिया गया जो आज भी बह रही है।
उनकी यात्रा का अंतिम चरण उन्हें मुंबई ले आया जहां लोगों ने उनके उपचार क्रिया और चमत्कार को देखा। 1937 में, वह तानसा घाटी से अकोली और वज्रेश्वरी के लिए रवाना हुए। जहाँ उन्होंने स्कूलों, विश्राम गृहों, चिकित्सालयों की स्थापना की और मंदिरों का जीर्णोद्धार किया और ध्यान पर जोर देते हुए अपना उपदेश जारी रखा।
इसके तुरंत बाद वे पास के गणेशपुरी आए और प्राचीन श्री भीमेश्वर महादेव मंदिर के पास बस गए। आध्यात्मिक भौतिक उत्थान की तलाश में आने वाले लोगों के लिए आस-पास के गांवों और दूर-दूर से हजारों आगंतुक इस नए निवास में आते थे, जो धीरे-धीरे तीर्थ यात्रा के एक शक्तिशाली केंद्र के रूप में विकसित हो गया है।
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