‘राष्ट्रद्रोही मुसलमान’ जब अपने समाज में भी दुत्कारे जाने लगे हैं , राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष शरद पवार ने देश में तेजी से अप्रासंगिक होती मुस्लिम तुष्टिकरण की अपनी घिसी- पिटी राजनीति को प्राणवायु देने के लिए यह हास्यास्पद बयान दिया है कि मुसलमानों ने बॉलीवुड को बनाया है। ‘बनाया है ” के बाद के शब्द उन्होने शायद नहीं बोले या मीडिया को वह शब्द स्पष्ट सुनाई नहीं दिया तो उसने उस शब्द को नहीं लिखा या दिखाया जिससे राजनीतिक क्षेत्र में उनकी वरिष्ठता के कारण यह विश्वास होता है कि वे ‘उल्लू’ अथवा ‘भ्रष्ट ‘ बोलना भूल गए या बोले तो वह स्पष्ट नहीं सुनाई दिया – यदि ऐसा है तो वे बिलकुल सही बोल रहे थे। यदि उनके कहने का अर्थ यह है कि ‘मुसलमानों के कारण बॉलीवुड का भला हुआ है’ तो उनका भ्रम है – सुझाव होगा वे अपनी अज्ञानता को दूर करें और भारतीय सिनेमा के इतिहास को पढ़ें , अतीत के चलचित्रों को देखें तभी उनको ‘ सिनेमा एवं उसके चरित्र’ का ज्ञान होगा।
सिनेमा के लिए आवश्यक तत्व है धन , लेखन , निर्माण कौशल , निर्देशन कौशल , अभिनय कौशल ,’गायन -वादन -नृत्य – रूप सज्जा’ कौशल , प्रबंधन कौशल ,दृश्यांकन ( फिल्मांकन ) कौशल , सम्पादन कौशल , वितरण कौशल और व्यवसाय कौशल।भारतीय सिनेमा के लगभग सवा सौ सालों के इतिहास में
“मुसलमानों के कुसंस्कारिय दुष्कौशल” में ही हिन्दू पिछड़े हैं बाकी उपरोक्त किसी कौशल में वे हिन्दू प्रतिभाओं के आसपास भी फटकने की हैसियत नहीं रखते। यहां हम एक -एक उदाहरण हर खंड से लेते हैं बात स्पष्ट हो जाएगी।
भारतीय सिनेद्योग में कोई मुसलमान निर्माता प्रमथेश बरुआ ,शापूरजी पलोनजी , पी एल संतोषी की जूतियों बराबर आजतक नहीं हुआ। मुस्लिम निर्माता अगर कोई है तो वह लागत कम करने पर ध्यान देता है चाहे उसके लिए कंटेंट की भद्द क्यों नहीं पीटनी पड़े। ऐसे चिंदीचोर पैसा भले बना लें ,सिनेमा नहीं बना सकते। आज भी भारतीय फिल्मोद्योग के पास एक भी मुस्लिम वित्तपोषक ( फायनेंसर ) नहीं है , जो भी हैं वे प्रोजेक्ट मैनेजर हैं -पी पी टी दिखाकर अनेक लोगों से पैसा लेकर लगानेवाले। शापूरजी पालोन जी की देखा -देखी टाटा समूह भी फिल्म निर्माण में उतरा और चर्चित एवं कथित बड़े नामवाले मुस्लिम निर्देशक -कलाकारों को अनुबंधित कर लिया। शीघ्र ही फिल्म निर्माण के नाम पर मुस्लिम निर्देशक -कलाकारों के द्वारा की जानेवाली गन्दगी देखकर टाटा समूह ने प्रोजेक्ट बीच में ही बंद कर दिया। आज कोई ‘मुस्लिम फिल्मकार’ नहीं है जो बिना बैंक ,कॉर्पोरेट तथा ‘बाहर’ से निवेश लिए फिल्म बना ले। क्या ये कुर्सी -पिपासु नेतागण कभी सोच भी सकते हैं कि कोई मुसलमान ‘राजश्री प्रोडक्शन ‘ जैसी संस्थान बनाकर सिनेमा को संजीवनी दे सकता है बिना भारतीयता से कोई समझौता किये हुए ? राजश्री प्रोडक्शन अपने जीवन का शतक लगाने जा रही है।
क्या मुसलमानों में आजतक कोई इतना बड़ा लेखक हुआ
जो पंडित मुखराम शर्मा के घुटने तक भी पहुँच सके ?
क्या मुसलमानों में आजतक कोई इतना बड़ा लेखक हुआ जो पंडित मुखराम शर्मा के घुटने तक भी पहुँच सके-रचनात्मकता ही नहीं , व्यावसायिक मूल्यों की दृष्टि से भी ? मुस्लिम फिल्मलेखकों में सबसे बड़े नाम कहलानेवाले सलीम -जावेद चाहे जितनी बकलोली कर लें उनके नाम पर एक भी फिल्म बनाने से पहले नहीं बिकी जबकि पंडित मुखराम शर्मा अगर शीर्षक भी घोषित कर देते थे तो निर्माताओं की लम्बी पंक्तियाँ उनके घर के दरवाजे पर लग जाती थी और जो निर्माता उनको अनुबंधित कर लेता था उसको फिल्म बनाने से पहले गोल्डन जुबली मनाने पर होनेवाले लाभ तक की राशि वितरकों से मिल जाते थे। यह बात एशिया के सबसे बड़े फिल्म इतिहासकार कहलानेवाले स्वर्गीय पी के नायर ने अनेक बार ‘फिल्म एप्रिसिएशन कोर्सेज’ और नियमित फिल्म प्रशिक्षण वर्गों में कही है(जिनको संदेह हो वे पुणे स्थित फिल्म स्कूल जाकर उसके आर्काइव खंगाल लें )।
शापूरजी – केदारशर्मा के आगे आज भी
बौने हैं सारे मुस्लिम निर्माता -निर्देशक
फिल्म निर्माण कौशल में शापुर जी पालोन जी से लगायत राजकुमार कोहली , यश जौहर ,गुलशन राय – राजीव राय जैसे दिग्गज लोगों की सूची है जो मुसलमान नहीं थे और उनके घुटने के बराबर कद का भी एक मुस्लिम फिल्म निर्माता नहीं दिखता – नहीं मिलता पिछले सवा सौ सालों में।यदि निर्देशन की बात करें तो चरित्र -चित्रण एवं दृश्य-संयोजन का जो कौशल धुंडिराज गोविन्द (दादा साहेब) फाल्के , प्रमथेश बरुआ , केदार शर्मा ,विजय आनंद (गोल्डी ) ,मनोज कुमार दिखा गए उनके आसपास कोई अनीस बज्मी या तारिक़ खान खड़ा होने योग्य भी है क्या ?
दिलीप कुमार स्वयं को मोतीलाल,अशोक कुमार
शम्मी कपूर से कमतर अभिनेता मानते थे
कथित ‘अभिनय सम्राट’ दिलीप कुमार उपाख्य युसूफ खान ने स्वयं मुझे बताया था कि मोतीलाल , दादामुनि ( अशोक कुमार ) के साथ काम करते हुए उनको डर लगता था। ‘टाइम्स ऑफ़ इंडिया’ की पत्रकार देवयानी चौबल को सपने दिखाकर दिलीप ने मीडिया से स्वयं को ‘अभिनय सम्राट’ कहलवाकर अपनी दुकान चमकाई थी और जब देवयानी को धोखा मिला तो उसने दिलीप की चमक ऐसी धोई कि उनको फ़िल्में छोड़ हाजी मस्तान के साथ मिलकर राजनीतिक पार्टी का गठन कर नरगिस के सहारे इंदिरा जी की छत्रछाया ले राजयसभा का जुगाड़ बिठाना पड़ा। जॉन पीटर ने भी इसकी चर्चा दिलीप कुमार पर लिखी अपनी किताब में की है।बाद के वर्षों में कमल हसन के साथ काम करने से दिलीप मना कर गए लेकिन ‘विधाता’ में संजीव कुमार के आगे यह कथित अभिनय -सम्राट पानी भरता नजर आया।अपने स्वर्णिम काल में भी दिलीप कुमार को शम्मी कपूर से स्क्रीन शेयर करने में झिझक ही रही।
लता -मन्ना डे -येशुदास के आगे रफी नाटे ही थे
मुस्लिम मोहम्मद रफ़ी को सर्वश्रेष्ठ गायक के रूप में उछालते रहते हैं जबकि स्वयं रफ़ी को मन्ना डे की शास्त्रीयता और किशोर कुमार की बहुमुखी गायकी से भय लगता था। उनको स्वर साम्राज्ञी लता मंगेशकर ने रिकॉर्डिंग के समय ही अनेक बार सुर सुधारने को कहा था। एक बार इसी बात पर रफ़ी तुनक गए तो लता मंगेशकर ने रिकॉर्डिंग से मना कर दिया। लगभग पंद्रह सालों तक रफ़ी फिर फिल्मों से बाहर हो गए और मुस्लिम संगीतकारों की लम्बी कतार भी उनको पुनर्जीवन नहीं दे सकी। जब उन्होने राज डूंगरपुर के पैर पकड़े तो लता जी ने क्षमा करते हुए उनके साथ गाने की रिकॉर्डिंग की। रफ़ी पहले कुन्दनलाल सहगल को अपने से महान मानते थे और बाद में येसुदास को स्वयं से अच्छा गायक कहा।
सलिल -रवि -सचिनदेब -एल पी -इलैया -रवींद्र -भाष्कर की तरह
रचनात्मक विविधता नहीं दिखी मुस्लिम संगीतकारों में
वादन में देखें तो मुस्लिम संगीतकार अपने एक ही पैटर्न पर कोल्हू के बैल की तरह चलते रहे चाहे वे सरदार मालिक हों या खय्याम अथवा नौशाद। कोई भी मुस्लिम फिल्मसंगीतकार हर बार मौलिक रचना लेकर नहीं आया जबकि वसंत देसाई ,रविशंकर,सलिल चौधरी ,सचिनदेब बर्मन ,चित्रगुप्त , रवि ,नीलेश मोइर ,भास्कर चंदावरकर ,मदनमोहन ,लक्ष्मीकांत प्यारेलाल ,ओ पी नय्यर ,रामलक्ष्मण ,रवींद्र जैन, इलैया राजा, शंकर महादेवन जैसे अनेक फिल्म संगीतकार हैं जिन्होने हर बार अपने संगीत में कुछ नया रचकर फ़िल्मी संगीत को समृद्ध किया है।
गोपी -गणेश -गुरुदत्त बिरजू की पंक्ति में
नहीं है कोई मुस्लिम डांस डायरेक्टर
नृत्य निर्देशन की बात करें तो गोपीकृष्ण ,गणेश हसल गुरूजी ,गुरु दत्त ,सितारा देवी ,जयन्तीमाला , रुक्मिणी देवी पद्मा सुब्रह्मनियम ,सीमा केरवानी ,बिरजू महाराज लच्छू महाराज,शाश्वती सेन , मंजरी चतुर्वेदी के आसपास भी कोई मुस्लिम नृत्य निर्देशक नहीं मिलता। आधुनिक समय की बात करें तो प्रभुदेवा के सामने सभी पानी भरते हैं।
रूप सज्जा में सत्यजीत रे, पी जी जोशी ,आर पीतांबर ,टी राजा राम ,शान्तिदेव से लगायत विक्रम गायकवाड़ तक हिन्दू ही भरे पड़े हैं और उनके मुकाबले में कोई मुस्लिम नहीं दिखता। कला निर्देशन की बात करें तो के आर शर्मा ,अशोक भगत ,श्याम रामसे ,दादू मिस्त्री ,वी जाधव ,एम एस सथ्यू ,राम येदेकर ,बी आर खेड़कर ,एल डी लिंगायत, एच जे म्हात्रे, एस पी वरळीकर ,नितिन देसाई ,समीर चंदा जैसे बड़े नाम हिन्दू ही हैं। जहां तक फिल्म और टेलीविजन धारावाहिक निर्माण के प्रबंधकों का विषय है आर के हांडा , राममिलन वर्मा ,माणिक गुप्ता , वी के माथुर , गंगाधर राम ,भूषण वर्मा , ज्ञान सचदेव ,वेद गांधी , यश जौहर ,बंसीलाल ,सुरेंद्र श्रीवास्तव ,इंद्रजीत चड्डा ने बड़ी लकीरें खींची हैं और उनके आगे दूर- दूर तक कोई मुस्लिम प्रोडक्शन मैनेजर नहीं दिखता।
आरडी -सुब्रत -केके -बीर -सुमेर-प्रिय सेठ सा
एक भी कैमरामैन मुस्लिम मजहब का नहीं .
दृश्यांकन ( सिनेमैटोग्राफी ) में आर डी माथुर , सुब्रत मित्रा , के के महाजन ,पद्मश्री अपूर्वकिशोर बीर ,सुमेर वर्मा ,प्रिय सेठ ने फिल्मिंग की जिन ऊंचाइयों को छुआ और गहराइयों को नापा उसकी बराबरी छोड़िये , उस विधा में कदम रखकर खड़ा रहने की क्षमता वाला एक भी मुसलमान भारतीय सिनेमैटोग्राफर का नाम गिना दीजिये शरद पवार जी – आपका लोहा मान जाऊंगा। यही बात फिल्म -सम्पादन के लिए कहूंगा। फिल्म सम्पादन में धर्मवीर ,वाय जी चौहान, हृषिकेश मुखर्जी , बाबूभाई ठक्कर , विजय आनंद , माधव एस शिंदे , रेणु सलूजा ,भारती , आरती बजाज ,बल्लू सलूजा , कोटागिरी व्यंकटेश्वर राव ,ए श्रीकर प्रसाद की बराबरी या इनसे उन्नीस भी कोई मुस्लिम फिल्म सम्पादक बताइये। फिल्म वितरण और व्यवसाय कौशल में एक भी नाम मुसलमान मजहब का नहीं है। इनमें जोखिम उठाने की कुव्बत नहीं होती इसलिए इस कौम का कोई आदमी फिल्म डिस्ट्रीब्यूटर और एक्जिवीटर नहीं है , हाँ फिल्म दलाली के क्षेत्र में ये बिजबिजाते मिलते हैं।
मुसलमानों के बढ़ते प्रभुत्व ने सिनेमा को १९६५ और उसके बाद के दशकों में रसातल की और धकेला है जिसका परिणाम चोर -डाकुओं -गुंडों और माफिया गिरोहों का महिमामंडन से लेकर देशद्रोह को कुतर्कों से सिद्ध करने के रूप में सामने आया तो समानांतर सिनेमा के नाम पर नक्सलवाद और सामाजिक कुरीतियों के ग्लैमराइजेशन ,कन्वर्जन ,हिन्दूद्रोह ,सामाजिक -पारिवारिक विखंडन ,तनाव ,परेशानियां ,लम्पटई को बढ़ावा मिला। बुराइयों की चर्चा से उसको विस्तार मिलता है इसलिए सिर्फ संकेत किया है। अगर आपके ज्ञानचक्षु नहीं खुले तो विस्तार से तीन -चार लेखों में १९६५ से २०२२ तक मुस्लिमों की गंदगियों का सिनेमाई प्रभाव सार्वजनिक करूँगा।
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