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गर्भवती गाय को दौड़ा-दौड़ाकर मार डाला केस दर्ज

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हिसार: जिले के पुठ्टी गांव में मानवता को शर्मसार कर देने वाली हरकत सामने आई है. कुछ युवकों ने एक गर्भवती गाय के गले में रस्सी डाल कर उसे दौड़ाया और तड़पा-तड़पा कर मार डाला. दौड़ती-दौड़ती बेदम हुई गाय की मौत हो गई. हांसी बास थाने में गौ रक्षक दल के सदस्यों की शिकायत पर 3 युवकों पर पशुक्रूरता अधिनियम समेत अलग-अलग धाराओं में मुकदमा दर्ज कर लिया गया है. इस मामले में अभी आरोपियों की गिरफ्तारी नहीं हुई है. गाय के शव का पोस्टमार्टम करवाया गया है.

3 युवकों के खिलाफ मुकदमा दर्ज : शिकायतकर्ता सिसर खास के रमेश ने हांसी के बास थाने में दी गई अपनी रिपोर्ट में बताया कि 8 नवंबर की दोपहर को वह महम से दोस्त के पास पुठ्टी गांव में आया था. उसने गाड़ी रोकी तो और देखा कि गांव की बोरियो वाली गली में 8 युवक, जिनमें पुठ्टी का फूल कुमार, महम का संजय, नीरज व दो अन्य युवकों ने गाय के गले में रस्सा डाल रखा था, और उसे दौड़ा रहे थे.

उसने बताया कि इस बीच भागते-भागते गाय गिर गई और बाद में उसकी मृत्यु हो गई. ग्रामीणों के पहुंचने से पहले ही आरोपी फरार हो गए. बाद में गाय का पोस्टमार्टम करवाया गया तो पता चला कि वह गर्भवती गाय थी. उसके गर्भ में पल रहे गौ वंश की भी मौत हो गई. पुलिस ने बताया कि मुकदमा दर्ज करके छानबीन शुरु कर दी गई है.

गौ तस्करों का भांडाफोड़, कुशीनगर से 4 गौ तस्कर गिरफ्तार

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UP News: उत्तर प्रदेश के कुशीनगर में पुलिस ने रविवार को चार गौ तस्करों को गिरफ्तार किया। पुलिस ने तस्करों के पास से छह गायों, एक पिकअप वाहन, एक वैगनआर कार और तीन मोटरसाइकिलें भी जब्त की हैं।

गौ तस्करों की पहचान आरिफ अली उर्फ ​​गोलू, आदित्य चौहान, विकास यादव और ईश्वर प्रसाद के रूप में की गई है। ये सभी देवरिया जिले के तरकुलवा थाना इलाके के रहने वाले हैं। पूछताछ के दौरान, आरोपितों ने बताया कि वे गौ तस्करी के लिए पिकअप वैन का इस्तेमाल करते थे। पुलिस ने कार्रवाई करते हुए चारों के खिलाफ गोजातीय पशु तस्करी (बीएनएस) अधिनियम और पशु क्रूरता अधिनियम के तहत मामला दर्ज कर लिया है। चारों को जेल भेज दिया गया है।
सीओ अभिषेक प्रताप अजय ने बताया कि पुलिस ने चार गौ तस्करों आरिफ अली उर्फ ​​गोलू (रिज़वानुल्लाह का बेटा), आदित्य चौहान (रवींद्र चौहान का बेटा), विकास यादव (सिंघासन यादव का बेटा) और ईश्वर प्रसाद (हरिकेश प्रसाद का बेटा) को गिरफ्तार किया है। ये सभी देवरिया जिले के तरकुलवा थाना क्षेत्र के रहने वाले हैं। वैगनआर कार, तीन मोटर साइकिल, पिकअप वैन और छह गायें बरामद की गईं।

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झारखंड में आदिवासियों के  वोट तय करेगें चुनावी नतीजे*  

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(कुमार कृष्णन-विनायक फीचर्स)
झारखंड के विधानसभा चुनाव में आदिवासी मतदाताओं और अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित सीटों की खास अहमियत है। यानी आदिवासी वोटर के पास सत्ता की चाभी है।आदिवासी बहुल राज्य में मुद्दों की कमी नहीं, लेकिन कई ऐसे बड़े कारक हैं, जो चुनाव के नतीजों को निस्संदेह प्रभावित करेंगे ।
झारखंड में विधानसभा चुनाव की तैयारी पूरी हो चुकी है। झारखंड विधानसभा चुनाव के लिए 13 और 20 नवंबर को दो चरणों में वोट डाले जाएंगे। चुनाव के नतीजे 23 नवंबर को आएंगे।
चुनावी  नतीजे काफी हद तक इस बात पर निर्भर करेंगें कि जनता किसके वादे पर कितना भरोसा करती है। भाजपा की अगुआई में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन और झारखंड मुक्ति मोर्चा के नेतृत्व में ‘इंडिया’ गठबंधन की ओर से एक से बढ़कर एक लुभावने वादे किए जा रहे हैं। इनमें से प्रमुख है महिलाओं के लिए मासिक आर्थिक मदद। झामुमो सरकार ने इसी साल मुख्यमंत्री मईया सम्मान योजना की शुरुआत की है ।
इसके अंतर्गत महिलाओं को 1000 रुपए मासिक सहायता दी जा रही थी। भाजपा ने राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार बनने पर 2100 रुपए मासिक देने का वादा किया तो अब झामुमो ने आगे निकलने की होड़ में 2500 रुपए देने का ऐलान कर दिया है। हेमंत सोरेन सरकार ने  इस प्रस्ताव को कैबिनेट से पास कर दिया है। महिला मतदाताओं को भी इस चुनाव में निर्णायक माना जा रहा है।
भारतीय जनता पार्टी ने झारखंड खासकर संथाल परगना में कथित तौर पर बांग्लादेशी घुसपैठ को बड़ा मुद्दा बनाने की कोशिश की है। खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस मुद्दे को जोरशोर से उठा रहे हैं ।
उनका  कहना है कि झारखंड में इस बार रोटी, बेटी और माटी बचाने की लड़ाई है।  झारखंड में बांग्लादेशी घुसपैठ की वजह से आदिवासियों की संख्या कम हो रही है। भाजपा के प्रभारी और असम के मुख्यमंत्री हिमंता बिस्वा सरमा भी बांग्लादेशी घुसपैठ के मुद्दे को आक्रामकता के साथ लगातार उठा रहे हैं। झारखंड भाजपा के कार्यकर्ता इस मुद्दे को आदिवासियों तक पहुंचाने के लिए गांव-गांव, गली-गली का दौरा कर रहे हैं। इस चुनाव में  हेमंत  सोरेन और चंपाई सोरेन के विक्टिम कार्ड की चर्चा जोरों पर है। सरायकेला के लोग बताते हैं कि इस क्षेत्र के लोगों को सुख दुख में चंपाई सोरेन का हमेशा साथ मिलता है, इसलिए वहां के लोग कह रहे हैं कि चुनाव तक वह मुख्य मंत्री बने रहते तो क्या हो जाता। इसी बात को दूसरे गांव के लोग अलग तरीके से देख रहे हैं।
कुछ का कहना है कि चंपाई को मुख्यमंत्री तो आखिर हेमंत ने ही बनाया था। वहीं बहुत से लोग अभी तक मन मिजाज नहीं बना पाए हैं कि जाना किधर है। झुकाव की असली तस्वीर चुनाव के वक्त ही देखने को मिल सकती है। लेकिन इतना तो तय है कि भाजपा में आकर चंपाई सोरेन ने अपनी सरायकेला सीट को बहुत हद तक सुरक्षित कर लिया है।अब वह कोल्हान की दूसरी सीटों पर कितना असर डालेंगे, अभी कहना मुश्किल है। रही बात हेमंत सोरेन की तो उनको पांच माह तक जेल में रखे जाने वाली घटना की जमीनी स्तर पर कोई खास चर्चा नहीं है। उनके लिए मईया सम्मान योजना प्लस प्वाइंट जरूर बना है। खासकर आदिवासी महिलाओं के बीच। क्योंकि यहां का आदिवासी समाज महिला प्रधान है। महिलाओं के हाथों में परिवार की बागडोर होती है। लिहाजा, यह कहना गलत नहीं होगा कि एक हजार रु. की सम्मान राशि ने हेमंत सोरेन को मजबूती दी है।
राजनीतिक जानकार बताते हैं कि दोनों नेताओं के पास विक्टिम कार्ड है। अंतर इतना है कि हेमंत सोरेन का विक्टिम कार्ड भाजपा के खिलाफ है। उनका कहना है कि बेवजह पांच माह तक जेल में रख दिया। सरकार गिराने की साजिश की जाती रही जबकि चंपाई सोरेन के पास अपमान वाला विक्टिम कार्ड है। वह नाम लिए बिना एक तरह से हेमंत सोरेन को ही घेर रहे हैं।आदिवासी समाज में इसकी चर्चा भी हो रही है।चंपाई सोरेन आंदोलन की उपज हैं। समाज में उनका प्रभाव है।
कोल्हान में जिस तरह से उनकी सभाओं में भीड़ जुट रही है, उससे बहुत कुछ आंका जा सकता है।फिलहाल तो ऐसा लग रहा है कि चंपाई सोरेन कोल्हान में तीन से चार सीट पर असर डाल सकते हैं। वे संथाल में भी सत्ताधारी दलों को नुकसान पहुंचा सकते हैं। यही वजह है कि चंपाई सोरेन पर झामुमो सीधा हमला नहीं कर पा रहा है।गुरुजी की पार्टी के प्रति आदिवासी समाज की भावनाओं को चंपाई सोरेन भी बखूबी समझते हैं इसलिए वह आदिवासियों की बदहाली के लिए कांग्रेस पर हमला बोल रहे हैं। जाहिर है कि कांग्रेस को नुकसान होने का मतलब है भाजपा को फायदा। एक नैरेटिव सेट करने की कोशिश हो रही है।हालांकि इस मामले में हेमंत सोरेन आगे हैं लेकिन जमीनी तौर पर चंपाई सोरेन मजबूत दिख रहे हैं।
आदिवासी समाज के बीच अलग-थलग पड़ चुकी भाजपा उन्हें तुरुप के पत्ते में रूप में देख रही है लिहाजा, इस बार का झारखंड विधानसभा का चुनाव बेहद रोचक होगा। दोनों नेता खुलकर विक्टिम कार्ड खेल रहे हैं लेकिन एक दूसरे के खिलाफ सीधे तौर पर बयानबाजी से बच रहे हैं। दोनों में एक बात समान दिख रही है चंपाई कह रहे हैं कि आदिवासियों की बदहाली के लिए कांग्रेस जिम्मेवार है तो हेमंत सोरेन भाजपा को महाजनी पार्टी बताकर आदिवासियों का दुश्मन बता रहे हैं।
कई  लोग करते हैं  कि खोखला और फरेब भरा नारा है – ‘रोटी, बेटी और माटी।’ उनका कहना है कि झारखंड में भाजपा के चुनाव की बागडोर दूसरे  राज्यों के प्रवासी नेताओं ने संभाल रखी है,इसलिए वे नारा भी ऐसा गढ़ रहे हैं जिसकी किसी तरह की भावनात्मक अपील झारखंडी जनता पर नहीं हो सकती। ‘रोटी, बेटी और माटी’ ऐसा ही नारा है जो उनके संकल्प पत्र का मूल तत्व है और जिसे मोदी अपने भाषणों में लगा रहे हैं।
लीजिये ‘रोटी’ को, तो झारखंड में यह भोजन का पर्याय है ही  नहीं। यहां मुख्य रूप से धान की एक साला खेती होती है और यहां की मुख्य आबादी भात खाती है। रोटी अपवाद स्वरूप ही खायी जाती है। लोग कुछ भी खा लें यहां वहां, लेकिन घर में गरम भात और साग से ही सबसे ज्यादा संतोष होता है। रोटी मुख्यतः पश्चिमोत्तर प्रदेशों का भोजन है और चूंकि भाजपा उन्हीं प्रदेशों की पार्टी है, इसलिए उसे नारों में भी वहीं के बिंब और प्रतीक सूझते हैं।
अब आएं ‘बेटी’ शब्द पर तो बेटी आदिवासी बहुल झारखंड में चिंता का विषय कभी नहीं रही। न उसकी सुरक्षा पर कभी संकट का एहसास आदिवासी समाज करता है। बेटी घर संवारती है, समृद्धि लाती है, वह बोझ नहीं, दो कामकाजी मेहनतकश हाथ होते हैं। इसलिए वह चिंता का विषय नहीं। ‘बेटी बचाने’ का नारा इसलिए यहां फजूल है।
और तो और यहां वह अपने समाज में जरा भी असुरक्षित नहीं। हां, उन लोगों से उन्हें जरूर खतरा है जिनके लिए औरत सिर्फ भोग या वंशवृद्धि का सामान है और ऐसे लोगों की आबादी आदिवासी इलाकों में बढ़ती जा रही है। हम उनसे ही उन्हें सुरक्षित रखने की कल्पना नहीं कर सकते, जो उनके लिए खतरा हैं।
रही ‘माटी’ , तो माटी तभी तक है जब तक जल, जंगल और जमीन है। जब जमीन और जंगल ही नहीं रहेगें और पानी ही खत्म हो जायेगा तो माटी कहां से बचेगी। सब कुछ रेत में बदल जायेगा। अब इतनी मोटी सी बात भाजपा के नेता नहीं समझते हैं, यह तो नहीं माना जा सकता, लेकिन जमीन और जंगल की सुरक्षा की गारंटी तो वे कर नहीं सकते।
जल, जंगल, जमीन और जमीन के नीचे दबे खनिज भंडार के लिए तो उनकी गिद्ध दृष्टि झारखंड पर गड़ी है  इन्हीं सब को तो कार्पोरेट के हवाले करने के लिए एक दर्जन प्रवासी मुख्यमंत्री, संतरी झारखंड में दिन रात एक किये हुए है।
82 सदस्यों वाली झारखंड विधानसभा में 28 सीटें अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित हैं, जिन पर जीत हासिल करने वाली पार्टी सरकार बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगी। झारखंड के 24 साल के इतिहास में यह पांचवां विधानसभा चुनाव है। इस दौरान सात नेता मुख्यमंत्री की कुर्सी संभाल चुके हैं, लेकिन कोई भी पार्टी लगातार दूसरी बार सत्ता में नहीं आई है। भाजपा  नेता रघुबर दास ही एकमात्र ऐसे मुख्यमंत्री हैं, जिन्होंने अपना कार्यकाल पूरा किया है।
झारखंड के गठन के बाद सात चेहरे राज्य की कमान संभाल चुके हैं। यहां होने वाले विधानसभा चुनाव में राज्य के इतिहास के सातों मुख्यमंत्रियों के रिश्तेदार या वो खुद चुनाव लड़ रहे हैं। मौजूदा मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन खुद और उनकी पत्नी, भाई और भाभी भी चुनाव मैदान में हैं।
झारखंड के तीन बार मुख्यमंत्री रहे शिबू सोरेन के परिवार के कई सदस्य इस चुनाव में उतरे हैं। शिबू सोरेन 02 मार्च 2005 से 11 मार्च 2005, अगस्त 2008 से जनवरी 2009 और दिसंबर 2009 से मई 2010 तक राज्य के मुख्यमंत्री रहे हैं। उनके बेटे और मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन बरहेट विधानसभा सीट से चुनाव लड़ रहे हैं। हेमंत भी तीन बार झारखंड की शीर्ष सत्ता तक पहुंच चुके हैं। पहले वह जुलाई 2013 से दिसंबर 2014 और दिसंबर 2019 से जनवरी 2024 तक मुख्यमंत्री रहे। 4 जुलाई 2024 से तीसरी बार झारखंड के मुख्यमंत्री की कुर्सी संभाली। मुख्यमंत्री हेमंत की पत्नी कल्पना सोरेन को झारखंड मुक्ति मोर्चा ने गांडेय सीट से टिकट दिया है।
शिबू सोरेन परिवार के दो और सदस्य भी चुनाव लड़ रहे हैं। शिबू सोरेन के बेटे और मुख्यमंत्री हेमंत के भाई बसंत सोरेन दुमका से झामुमो के टिकट पर मैदान में हैं। वहीं शिबू सोरेन की बहू और स्व. दुर्गा सोरेन की पत्नी सीता सोरेन जामताड़ा विधानसभा क्षेत्र से भाजपा की उम्मीदवार हैं। झारखंड में भाजपा की तरफ से 2024 के लोकसभा चुनाव में हार का सामना करने वाले कुछ चेहरों को भी विधानसभा में मौका दिया गया है। इनमें एक नाम सीता सोरेन का है, जिन्हें लोकसभा में दुमका सीट से हार का सामना करना पड़ा था।
झारखंड के तीन बार मुख्यमंत्री रहे अर्जुन मुंडा की पत्नी मीरा मुंडा भी 2024 के विधानसभा चुनाव में किस्मत आजमा रही हैं। पूर्व केंद्रीय मंंत्री अर्जुन मुंडा की पत्नी पोटका सीट से भाजपा की प्रत्याशी बनाई गई हैं। हाल में हुए लोकसभा चुनाव में अर्जुन मुंडा भी उतरे थे, लेकिन उन्हें सफलता नहीं मिली थी। अर्जुन मुंडा मार्च 2003 से मार्च 2005, मार्च 2005 से सितंबर 2006 और सितंबर 2010 से जनवरी 2013 तक झारखंड के मुख्यमंत्री थे।
राज्य के पहले मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी धनवार सीट से भाजपा के प्रत्याशी हैं। वह नवंबर 2000 से मार्च 2003 तक झारखंड के मुख्यमंत्री थे। मरांडी फिलहाल झारखंड भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष पद पर हैं। झारखंड के 24 साल के इतिहास में एकमात्र मुख्यमंत्री हैं जिन्होंने पूरे पांच साल सरकार चलाई है और वो हैं रघुबर दास। उनकी बहू पूर्णिमा दास साहू को भाजपा ने जमशेदपुर पूर्व से प्रत्याशी बनाया है। 2014 से 2019 तक झारखंड की सत्ता संभालने वाले रघुबर दास अभी ओडिशा के राज्यपाल हैं। पिछले कुछ महीनों में लगातार झारखंड की राजनीति की सुर्खियों में रहे चंपई सोरेन भाजपा के टिकट पर भाग्य आजमा रहे हैं।
पूर्व जेएमएम नेता रहे चंपई को भाजपा ने सरायकेला सीट से उम्मीदवार बनाया है। चंपई सोरेन के बेटे बाबूलाल सोरेन भी चुनाव लड़ रहे हैं। उन्हें भाजपा ने घाटशिला सुरक्षित सीट से मौका दिया है। तत्कालीन मुख्यमंत्री  हेमंत सोरेन की गिरफ्तारी के बाद चंपई सोरेन ने करीब छह महीने झारखंड की सत्ता संभाली। वह 2 फरवरी 2024 से 3 जुलाई 2024 तक मुख्यमंत्री रहे और हेमंत सोरेन के जेल से बाहर आने के बाद उनकी कुर्सी चली गई। पूर्व मुख्यमंत्री चंपई सोरेन 30 अगस्त को भारतीय जनता पार्टी में शामिल हो गए। निर्दलीय विधायक होकर झारखंड के मुख्यमंत्री बनने वाले मधु कोड़ा का परिवार भी इस चुनाव में जोर आजमाइश कर रहा है। मधु कोड़ा की पत्नी गीता कोड़ा जगन्नाथपुर सीट से भाजपा की उम्मीदवार हैं। गीता को 2024 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने सिंहभूम सीट से प्रत्याशी बनाया था लेकिन उन्हें हार का सामना करना पड़ा था।
मधु कोड़ा सितंबर 2006 से अगस्त 2008 तक झारखंड के मुख्यमंत्री रहे हैं। यह झारखंड के इतिहास में पहली बार था जब सरकार का नेतृत्व एक निर्दलीय विधायक ने किया था।
चुनावी मुहिम के तहत कांग्रेस सांसद और लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी ने झारखंड के सिमडेगा और लोहरदगा में चुनावी सभाओं को संबोधित करते हुए कहा कि देश में जल, जंगल, जमीन पर पहला हक़ आदिवासियों का है। राहुल गांधी ने सिमडेगा में अपने भाषण की शुरुआत ‘लव यू’ कहकर की। दोनों ही सीटें आदिवासी बहुल हैं। इससे यह कयास लगाए जा रहे हैं कि महागठबंधन को 28 आरक्षित आदिवासी सीटों पर फायदा हो सकता है। सवाल यह है कि क्या हेमंत सोरेन के नेतृत्व में महागठबंधन फिर इतिहास रच पाएगा या राहुल गांधी का ‘लव यू’ भी काम नहीं आएगा और भाजपा को फायदा होगा।
झारखंड विधानसभा में अनुसूचित जनजाति के लिए बोरियो, बरहेट, लिट्टीपाड़ा, महेशपुर, शिकारीपाड़ा, दुमका, जामा, घाटशिला, पोटका, सरायकेला, चाईबासा, मझगांव, जगन्नाथपुर, मनोहरपुर, चक्रधरपुर, खरसावां, तमाड़, तोरपा, खूंटी, खिजरी, मांडर, सिसई, गुमला, विशुनपुर, सिमडेगा, लोहरदगा, मनिका और कोलेविरा सीटें आरक्षित हैं।
2019 के विधानसभा चुनाव में झारखंड मुक्ति मोर्चा (झामुमो) को अनुसूचित जनजाति  के लिए आरक्षित 28 में से 26 सीटों पर जीत मिली थी, जिससे उसे कुल 30 सीटों पर जीत हासिल हुई। झामुमो को आदिवासी, ईसाई, मुस्लिम और महतो वोटरों का जबरदस्त समर्थन मिला था। वहीं, भाजपा को अनुसूचित जनजाति  सीटों पर ही सबसे ज्यादा नुकसान उठाना पड़ा था।
भाजपा को हाल ही में छत्तीसगढ़, राजस्थान और मध्य प्रदेश में हुए विधानसभा चुनावों में आदिवासी सीटों पर बढ़त मिली है, जिससे उसे झारखंड में भी आदिवासी वोटरों से उम्मीद है।
 राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि झारखंड में  राजनीतिक दल गठबंधन में रहकर ही बेहतर प्रदर्शन करते हैं। 2014 में झामुमो और कांग्रेस ने अलग-अलग चुनाव लड़ा था और उन्हें केवल 25 सीटें मिली थीं। लेकिन, 2019 में गठबंधन करके चुनाव लड़ने पर उनकी सीटें बढ़कर 47 हो गईं। इसी तरह, भाजपा को 2014 में आजसू के साथ गठबंधन में 42 सीटें मिली थीं, जबकि 2019 में अकेले चुनाव लड़ने पर उसे सिर्फ 25 सीटें ही मिल पाईं।
              झारखंड लंबे समय तक भाजपा  का गढ़ रहा है। पार्टी राज्य के गठन के बाद से 13 साल तक सत्ता में रही है। इस साल की शुरुआत में हुए लोकसभा चुनाव में भी भाजपा  का दबदबा देखने को मिला था, जब राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन  ने राज्य की 14 में से 9 सीटों पर जीत हासिल की थी।
पूर्व मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी ने कहा, ‘हमने 51 विधानसभा क्षेत्रों में बढ़त बनाए रखी है। अब हमारा काम विधानसभा में और भी बड़ा बहुमत हासिल करना है।’
हालांकि, भाजपा  को अनुसूचित जनजाति  के लिए आरक्षित 28 सीटों पर मुश्किलों का सामना करना पड़ सकता है। 2019 के बाद से भाजपा  को आदिवासी क्षेत्रों में वोट शेयर में लगातार गिरावट देखने को मिल रही है। 2019 के विधानसभा चुनाव में भाजपा अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित 28 में से सिर्फ दो सीटें ही जीत पाई थी। यह ट्रेंड 2024 के लोकसभा चुनाव में भी जारी रहा, जब हेमंत सोरेन की गिरफ्तारी के बाद हुए उपचुनाव में भाजपा  को अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित सभी पांच लोकसभा सीटों पर हार का सामना करना पड़ा था।
दूसरी ओर, झामुमो की राज्य के आदिवासी मतदाताओं पर मजबूत पकड़ है। हेमंत सोरेन के पिता शिबू सोरेन झारखंड के सबसे बड़े आदिवासी नेता रहे हैं। हेमंत ने 1932 के भूमि रिकॉर्ड के आधार पर स्थानीय निवास नीति और सरना धर्म को मान्यता देने की वकालत करके इस विरासत को आगे बढ़ाया है। इन कदमों से आदिवासी समुदाय को व्यापक हिंदू पहचान में शामिल करने की भाजपा  की योजना को झटका लगा है।
23 नवंबर को आने वाले चुनावी नतीजे बताएंगे कि आदिवासी मतदाताओं का रुझान किस पार्टी की ओर है। यह देखना दिलचस्प होगा कि क्या हेमंत सोरेन लगातार दूसरी बार सत्ता में आने का मिथक तोड़ पाएंगे या फिर राज्य में सत्ता परिवर्तन का सिलसिला जारी रहेगा। (विनायक फीचर्स)

14 नवंबर जन्मदिवस विशेष – नेहरू से विज्ञान का नाता

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– कल्पना पांडे
इतने सालों बाद हमे शर्म से ये स्वीकार कर लेना चाहिए कि धार्मिक आडंबरों, पाखंड और अंधविश्वास फैलाने वाले और दकियानूसी सोच के सभी धर्मों के धर्मगुरुओं के बढ़ते प्रभाव और वोटों के लिए उन्हे मिलते राजनीतिक संरक्षण के इस दौर में वैज्ञानिक दृष्टिकोण की नेहरूवादी समझ और भारतीय संदर्भ में इसके वास्तविक उपयोग और कार्यान्वयन के बीच अब गहरी खाई तैयार हो चुकी है। इसीलिए नेहरू आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं जितने उस समय थे। आज देश में जब तमाम जगहों पर अंधविश्वास फैलाने वाले धर्मगुरुओं नेताओं की बाढ़ आई हुई है ऐसे में तकरीबन सत्तर साल पहले पंडित जवाहर लाल नेहरू का ये कहना कि, ‘राजनीति मुझे अर्थशास्त्र की ओर ले गई और उसने मुझे अनिवार्य रूप से विज्ञान और अपनी सभी समस्याओं और जीवन के प्रति वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाने की ओर प्रेरित किया. सिर्फ विज्ञान ही भूख और गरीबी की समस्याओं का समाधान कर सकता है. विज्ञान ही वह इकलौता जरिया है जो भूख और गरीबी को मिटा सकता है.’ बेहद दूरदर्शिता से भरा और दृष्टिगामी हो जाता है।

जवाहरलाल नेहरू की वैज्ञानिक सोच की अवधारणा एक तर्कसंगत दृष्टिकोण है, जिसके बारे में उनका मानना था कि यह किसी की सोच और कार्यों का अभिन्न अंग होना चाहिए। विज्ञान और धर्म के बीच उनके मन में कोई अंतर्विरोध नहीं था। उनका मानना था विज्ञान धर्म जैसा नहीं है, जो अंतर्ज्ञान और भावना पर निर्भर करता है। नेहरू का मानना था कि विज्ञान लोगों को पारंपरिक मान्यताओं को एक नए नज़रिए से देखने में मदद कर सकता है, और धर्म असहिष्णुता, अंधविश्वास और तर्कहीनता को जन्म दे सकता है। नेहरू के अनुसार वैज्ञानिक सोच जीवन जीने का एक तरीका है, सोचने की एक प्रक्रिया है, और काम करने का एक तरीका है। इसमें नए सबूतों के लिए खुला रहना, निष्कर्ष बदलना और देखे गए तथ्यों पर भरोसा करना शामिल है। नेहरू का मानना था कि वैज्ञानिक सोच के प्रसार से धर्म का दायरा कम हो जाएगा। नेहरू ने वैज्ञानिक सोच के महत्व पर जोर दिया और माना कि इसे व्यक्तिगत, संस्थागत, सामाजिक और राजनीतिक स्तरों पर बढ़ावा दिया जाना चाहिए।

स्वतंत्रता प्राप्ति से पहले ही नेहरू ने सन् 1938 में भारतीय विज्ञान कांग्रेस की एक बैठक में कहा था: ‘विज्ञान जीवन की वास्तविक प्रकृति है. केवल विज्ञान की ही सहायता से भूख, गरीबी, कुतर्क और निरक्षरता, अंधविश्वास एवं खतरनाक रीति-रिवाजों और दकियानूसी परम्पराओं, बर्बाद हो रहे हमारे विशाल संसाधनों, भूखों और सम्पन्न विरासत वाले लोगों की समस्याओं का समाधान किया जा सकता है. आज की स्थिति से अधिक सम्पन्न भविष्य उन लोगों का होगा, जो विज्ञान के साथ अपने संबंध को मजबूत करेंगे.’

वैज्ञानिक दृष्टिकोण को नेहरु ने सन् 1946 में अपनी पुस्तक ‘डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया’ में लोकहितकारी और सत्य को खोजने का मार्ग बताया था. वैज्ञानिक दृष्टिकोण किसी स्थिति के मूल कारणों के वस्तुगत विश्लेषण करने पर ज़ोर देती है. वैज्ञानिक कार्यपद्धति के प्रमुख या अनिवार्य गुणधर्म जिज्ञासा, अवलोकन, प्रयोग, गुणात्मक व मात्रात्मक विवेचन, गणितीय प्रतिरूपण और पूर्वानुमान हैं. नेहरू के मुताबिक ऐसा नहीं है, ये वैज्ञानिक कार्यपद्धति हमारे जीवन के सभी कार्यों पर लागू हो सकती है क्योंकि इसकी उत्पत्ति हम सबकी जिज्ञासा से होती है. इसलिए प्रत्येक व्यक्ति चाहे वह वैज्ञानिक हो अथवा न हो, वैज्ञानिक दृष्टिकोण वाला हो सकता है. दरअसल, वैज्ञानिक दृष्टिकोण दैनिक जीवन की प्रत्येक घटना के बारे में हमारी सामान्य समझ विकसित करती है. नेहरू जी के अनुसार इस प्रवृत्ति को जीवन में अपनाकर अंधविश्वासों एवं पूर्वाग्रहों से मुक्ति प्राप्त की जा सकती है.

नेहरू अपनी पुस्तक 1946 की पुस्तक डिस्कवरी ऑफ इंडिया के पृष्ठ 512 पर लिखते हैं “आज विज्ञान के अनुप्रयोग सभी देशों और लोगों के लिए अपरिहार्य और अटल हैं। लेकिन इसके अनुप्रयोग से कहीं ज़्यादा कुछ और भी ज़रूरी है। यह है वैज्ञानिक दृष्टिकोण, विज्ञान का साहसिक और फिर भी आलोचनात्मक स्वभाव, सत्य और नए ज्ञान की खोज, बिना परीक्षण और परीक्षण के किसी भी चीज़ को स्वीकार करने से इनकार करना, नए सबूतों के सामने पिछले निष्कर्षों को बदलने की क्षमता, पहले से तय सिद्धांत पर नहीं बल्कि देखे गए तथ्य पर भरोसा करना, मन का कठोर अनुशासन – यह सब सिर्फ़ विज्ञान के अनुप्रयोग के लिए ही नहीं बल्कि जीवन और उसकी कई समस्याओं के समाधान के लिए भी ज़रूरी है…” वैज्ञानिक दृष्टिकोण को नेहरू विज्ञान को लागू करने से भी ज्यादा महत्व देते हैं। जाहीर है इस तरह के वैज्ञानिक दृष्टिकोण के बिना न समाज का विकास संभव है नया विज्ञान का। नेहरू ने भारत की एक स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में को कल्पना की और जिसके लिए प्रयत्न किया वो आधुनिक भारत उनके हिसाब से ऐसा होना था जहाँ लोग, पूर्व-धारणाओं और धार्मिक हठधर्मिता से मुक्त होकर, अपने आस-पास की दुनिया को समझने, अपने जीवन को बेहतर बनाने और सामाजिक समस्याओं को हल करने के लिए वैज्ञानिक पद्धति का उपयोग करेंगे। देश और उसके लोगों की ज़रूरतों को पूरा करने में विज्ञान और उसके अनुप्रयोगों के महत्व पर ज़ोर देते हुए, नेहरू ने विज्ञान और प्रौद्योगिकी को सोच और तर्क के एक महत्वपूर्ण दृष्टिकोण, ‘जीवन का एक तरीका’ और ‘स्वतंत्र व्यक्ति के स्वभाव’ के रूप में परिभाषित किया।

इसलिए, नेहरू ने न केवल राष्ट्र के विकास के लिए विज्ञान और प्रौद्योगिकी को आगे बढ़ाने के भौतिक और व्यावहारिक लाभों को पहचाना, बल्कि उन्होंने जीवन के प्रति दार्शनिक दृष्टिकोण के रूप में विज्ञान (वैज्ञानिक पद्धति, दृष्टिकोण और स्वभाव सहित) की भी दृढ़ता से पैरवी की और उसके समर्थन तर्क दिए। भौतिक उपलब्धियों की तरह की विज्ञान की संस्कृति में नेहरू की गहरी रुचि थी। इसलिए वे बार-बार “वैज्ञानिक स्वभाव” और “विज्ञान की भावना” शब्दों का इस्तेमाल करते थे। विज्ञान की उनकी समझ एक दार्शनिकता लिए हुए थी। इसने उन्हें अपने सामाजिक आदर्शों और राजनीतिक विश्वासों को तर्कसंगतता पर आधारित, उनके धर्मनिरपेक्ष विश्वदृष्टिकोण और वैज्ञानिक समाजवाद की अवधारणाओं को विकसित करने और दुनिया के आगे उनके विचारों के रूप में रखने और कार्यपद्धति का हिस्सा बनाने में सक्षम बनाया। 1951 में विज्ञान कांग्रेस में उन्होंने कहा, “मेरी रुचि मुख्य रूप से भारतीय लोगों और यहां तक कि भारत सरकार को वैज्ञानिक कार्य और इसकी आवश्यकता के प्रति जागरूक बनाने की कोशिश में है।” वे साफ कहते हैं कि अकेले विज्ञान ने यह सुनिश्चित किया कि समाज उस तरह की बर्बरता की ओर न लौटे, जिसकी धार्मिक कट्टरता और प्रतिक्रियावादी रूढ़िवादिता बार-बार धमकी देती रही है। इसीलिए जितने साफ तौर पर नेहरू हिंदू और मुस्लिम संप्रदायवादियों की निंदा करते हुए उन्हें बेहद पिछड़ा बता सके और इन तत्वों को सरकार से दूर रख सके वैसा कोई केंद्र सरकार नहीं कर सकी।

भारत की स्वतंत्रता के बाद नए संविधान को लागू करने की चुनौतियों के साथ हमारे देश का नेतृत्व आधुनिक भारत के निर्माता जवाहरलाल नेहरू ने संभाला। देश के इस पहले प्रधानमंत्री को इस बात का भलीभांति बोध था कि वैज्ञानिकों सहित हमारे लोगों को तर्कहीनता, धार्मिक रूढ़िवादिता और अंधविश्वासों ने जकड़ा हुआ है. नेहरू का यह मानना था कि भारत को विकसित राष्ट्र बनाने का एक ही रास्ता है- विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी को विकास से जोड़ा जाए. प्रधानमंत्री के रूप में, नेहरू ने अपने वैज्ञानिक विचारों के अनुसार वैज्ञानिक प्रतिष्ठानों का निर्माण किया। अगस्त 1947 में उन्होंने अपने निर्देशन में वैज्ञानिक अनुसंधान के लिए एक केंद्रीय सरकारी पोर्टफोलियो बनाया। 1951 में प्राकृतिक संसाधन और वैज्ञानिक अनुसंधान मंत्रालय बना जिसका वैज्ञानिक अनुसंधान विभाग में आगे विस्तार हुआ। नेहरू ने वैज्ञानिक मामलों पर संसद में बहस का नेतृत्व करना, भारतीय विज्ञान कांग्रेस की वार्षिक बैठकों को संबोधित करना और वैज्ञानिक और औद्योगिक अनुसंधान परिषद के शासी निकाय की अध्यक्षता करना जारी रखा। भारत के उत्तर-औपनिवेशिक विज्ञान के संरक्षक और मार्गदर्शक की तरह उन्होंने अपने वैज्ञानिकों को महत्व दिया। इनमें वैज्ञानिक और औद्योगिक अनुसंधान परिषद के महानिदेशक एस.एस. भटनागर, भारत की योजना व्यवस्था के सांख्यिकीविद् पी.सी. महालनोबिस और भारत के परमाणु ऊर्जा आयोग के अध्यक्ष होमी के. भाभा शामिल थे। नेहरू ने परमाणु ऊर्जा विभाग पर अपना निजी नियंत्रण बनाए रखा। परमाणु ऊर्जा में उनकी गहरी रुचि ने यह सुनिश्चित किया कि यह एक महत्वपूर्ण ऊर्जा स्रोत तथा भारत की वैज्ञानिक आधुनिकता के प्रतीक के उभरे। भाभा के साथ उनके संबंध विशेष रूप से घनिष्ठ थे, जिससे परमाणु ऊर्जा कार्यक्रम के लिए विशेषाधिकार प्राप्त वित्त पोषण संभव हो सका। इसीलिए नेहरू का समय भारतीय विज्ञान के उत्कर्ष का युग था। उस समय छद्मविज्ञान की अवधारणाओं को किसी भी तरह का बढ़ावा सरकार द्वारा नहीं दिया गया।

नेहरु ने ही हमारे शब्द-ज्ञान में ‘साइंटिफिक टेम्पर’ (वैज्ञानिक दृष्टिकोण) शब्द जोड़ा. वे डिस्कवरी ऑफ इंडिया में लिखते हैं : ‘आज के समय में सभी देशों और लोगों के लिए विज्ञान को प्रयोग में लाना अनिवार्य और अपरिहार्य है. लेकिन एक चीज विज्ञान के प्रयोग में लाने से भी ज्यादा जरूरी है और वह है वैज्ञानिक विधि जो कि साहसिक है लेकिन बेहद जरूरी भी है और जिससे वैज्ञानिक दृष्टिकोण पनपता है यानी सत्य की खोज और नया ज्ञान, बिना जांचे-परखे किसी भी चीज को न मानने की हिम्मत, नए प्रमाणों के आधार पर पुराने नतीजों में बदलाव करने की क्षमता, पहले से सोच लिए गए सिद्धांत की बजाय, प्रेक्षित तथ्यों पर भरोसा करना, मस्तिष्क को एक अनुशासित दिशा में मोड़ना- यह सब नितांत आवश्यक है. केवल इसलिए नहीं कि इससे विज्ञान का इस्तेमाल होने लगेगा, लेकिन स्वयं जीवन के लिए और इसकी बेशुमार उलझनों को सुलझाने के लिए भी…..वैज्ञानिक दृष्टिकोण मानव को वह मार्ग दिखाता है, जिस पर उसे अपनी जीवन-यात्रा करनी चाहिए. यह दृष्टिकोण एक ऐसे व्यक्ति के लिए है, जो बंधन-मुक्त है, स्वतंत्र है.’

नेहरु ने भारत में वैज्ञानिक दृष्टिकोण के विकास के लिए अनेक प्रयत्न किए. इन्हीं प्रयत्नों में से एक है उनके द्वारा सन् 1958 में देश की संसद (लोकसभा) में विज्ञान और प्रौद्योगिकी नीति को प्रस्तुत करते समय वैज्ञानिक दृष्टिकोण को विशेष महत्त्व देना. उन्होंने वैज्ञानिक दृष्टिकोण को सोचने का तरीका, कार्य करने का तरीका तथा सत्य को खोजने का तरीका बताया था. सारी दुनिया के लिए यह पहला उदाहरण था, जब किसी देश की संसद ने विज्ञान नीति का प्रस्ताव पारित किया हो. उनका कहना था कि वैज्ञानिक दृष्टिकोण का मतलब महज परखनली को ताकना, इस चीज और उस चीज को मिलाना और छोटी या बड़ी चीजें पैदा करना नहीं है. वैज्ञानिक दृष्टिकोण का मतलब है दिमाग को और ज़िंदगी के पूरे ढर्रे को विज्ञान के तरीकों से और पद्धति से काम करने के लिए प्रशिक्षित करना. वैज्ञानिक दृष्टिकोण का संबंध तर्कशीलता से है. वैज्ञानिक दृष्टिकोण के अनुसार वही बात ग्रहण के योग्य है जो प्रयोग और परिणाम से सिद्ध की जा सके, जिसमें कार्य-कारण संबंध स्थापित किये जा सकें. चर्चा, तर्क और विश्लेषण वैज्ञानिक दृष्टिकोण का एक महत्वपूर्ण अंग है. निष्पक्षता, मानवता, लोकतंत्र, समानता और स्वतंत्रता आदि के निर्माण में भी वैज्ञानिक दृष्टिकोण कारगर है.

1976 में 42वें संवैधानिक संशोधन के हिस्से के रूप में अनुच्छेद 51ए(एच) के तहत भारतीय संविधान में ‘वैज्ञानिक दृष्टिकोण, मानवतावाद और खोज और सुधार की भावना विकसित करना’  प्रत्येक नागरिक के दस मौलिक कर्तव्यों में से एक घोषित किया गया. विज्ञान और प्रौद्योगिकी को मानवतावाद की भावना के साथ जोड़ा जाना इसलिए भी आवश्यक है क्योंकि अंततः हर तरह की तरक्की का लक्ष्य मानव और जीवन की गुणवत्ता और उसके संबंध का विकास है. हमारे बच्चों और समाज में इस वैज्ञानिक दृष्टिकोण का विकास ही नेहरूजी को सच्ची श्रद्धांजलि होगी.

 – कल्पना पांडे  

देश-विदेश में गाय को दिया जाता है सम्मान, जारी किए गए हैं डाक टिकट भी

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गाय को देश में ही नहीं विदेशों में भी सम्मान दिया जाता है। गोपाष्टमी पर डाक टिकट व सिक्का संग्रहकर्ता शैलेंद्र वार्ष्णेय सर्राफ ने बताया कि गाय पर डाक टिकट भी जारी किए गए।

हाथरस शहर के डाक टिकट व सिक्का संग्रहकर्ता शैलेंद्र वार्ष्णेय सर्राफ ने बताया कि देश में ही नहीं विदेश में भी गायों को सम्मान दिया जाता है। विदेशों में खास तौर पर नेपाल में गोमाता को विशेष स्थान मिला है। इस देश में गाय पर टिकट व उसके चित्र वाले सिक्के को चलाया गया। श्रीलंका में भी गाय पर डाक टिकट चलाई जा रही है। अंग्रेजों के शासन में भी गाय के चित्र के साथ वर्ष 1929 में पोस्ट कार्ड चलाए गए। उनके संग्रह में आज भी वह डाक टिकट, सिक्के व पोस्ट मौजूद हैं।

पहली रोटी गाय को खिलाने से होगा गोपालन और सेवा : ऋतंभरा दीदी मां

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गोपाष्टमी पर साध्वी ऋतंभरा ने पुंगनूर गाय का किया पूजन

मथुरा, 09 नवम्बर(हि.स.)। वृंदावन वात्सल्य ग्राम में स्थित कामधेनु गौ गृह के अंतर्गत गोपाष्टमी के अवसर पर साध्वी ऋतंभरा ने शनिवार विश्व की सबसे छोटी डेढ़ फिट की पुंगनूर गाय का पूजन अर्चन किया गया।

उन्होंने कहा कि पुंगनूर गाय आंध्र प्रदेश की एक विलुप्त होती प्रजाति है यह विश्व की सबसे छोटी गाय है किंतु इसका महत्व सर्वाधिक है। शास्त्रों में इसके गुणों का वर्णन किया गया है। इसकी ऊंचाई अधिक से अधिक 3 फीट तक रहती है। उन्होंने कहा कि भारत में गोवंश के संवर्धन और शुद्धि के लिए घर-घर में गौ माता पालन का विचार सभी सनातनियों को करना चाहिए, क्योंकि जहां गाय का वास होता है वहां किसी प्रकार का ना ताे कोई अभाव रहता है और न ही कोई अवसाद रहता है। गाय में सभी देवताओं का वास होता है इसलिए किसी भी शुभ कार्य करने से पूर्व हमें पंचगव्य की आवश्यकता होती है। गाय के गोबर से लेपन होता है। लेकिन आज हम अपने दायित्व को भूलते जा रहे हैं गाय जब दूध देना बंद कर देती है तो हम उसे सड़कों पर खुला छोड़ देते हैं और माता-पिता वृद्ध होते हैं तो उन्हें वृद्ध आश्रम में छोड़ देते हैं। यह निंदनीय कार्य है जो भारतीयों के लिए शोभा नहीं देता।

गोपाष्टमी पर हमें संकल्प लेना चाहिए कि हम पहली रोटी गाय की निकालेंगे और गाय को खिलाएंगे उसके साथ ही हम गोपालन भी करेंगे, गाय की सेवा भी करेंगे। गौ संरक्षण का दायित्व स्वयं समाज को लेना होगा तभी गाय सुरक्षित रह पाएगी। समाज को चाहिए कि सरकार यदि गौ संरक्षण पर ध्यान नहीं देती है तो हमें सरकार पर दवा बनाकर गौ रक्षा कानून बनवाना चाहिए। वात्सल्य ग्राम में गोपाष्टमी का महत्व और भी बढ़ जाता है क्योंकि यहां 17 पुंगनूर गायों के साथ एक स्वर्ण कपिला गाय का आगमन हुआ है। भारत में गौ संरक्षण के लिए सौ-सौ गायों की गौशालाएं बनाई जायें जिनका दायित्व समाज को दिया जाए समाज स्वयं उनकी देखभाल करे।इस अवसर पर आचार्य डॉ मनोज मोहन शास्त्री, संजय गुप्ता, साध्वी सत्यप्रिया, जय भगवान अग्रवाल, सतीश चंद्र, बी आर सिंघला, साध्वी समन्विता, साध्वी साध्या, साध्वी शिरोमणि, साध्वी सत्य श्रद्धा, सीता परमानंद आदि उपस्थित रहे। संचालन बी आर सिंघला ने किया।

जयपुर – गोपाष्टमी : राज्यपाल ने की गाय की पूजा

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जयपुर: जिन क्षेत्रों में दूध का व्यवसाय ज्यादा है, वहां आत्महत्या के मामले कम है. ये कहना है प्रदेश के प्रथम नागरिक राज्यपाल हरिभाऊ बागड़े का. शनिवार को पिंजरापोल गौशाला में आयोजित गोपाष्टमी महोत्सव में उन्होंने ये बात कही. साथ ही कहा कि विश्व में दूध उत्पादन के मामले में भारत पहले स्थान पर है, लेकिन दूध पीने का प्रतिशत बहुत कम है. बच्चों को जितना दूध देना चाहिए, उतना दूध नहीं मिल पाता.

कार्तिक महीने के शुक्ल पक्ष की अष्टमी को गोपाष्टमी के रूप में मनाया गया. मंदिर और गौशाला में गौ माता की पूजा-अर्चना की गई. साथ ही महिलाओं ने कुमकुम-हल्दी का तिलक लगाकर वस्त्र अर्पित करते हुए सुख-समृद्धि की कामना की.

उन्होंने कहा कि राजस्थान में 4 हजार गौशालाएं हैं. इन गौशालाओं को अनुदान भी मिलता है. यहां गाय का ज्यादा उपयोग करते हैं. ये गौ माता सिर्फ दूध ही नहीं देती, बल्कि कई कुटुंब को व्यवसाय भी देती है. महाराष्ट्र में तो कई क्षेत्रों में काश्तकार भी गोपालन करते हैं और जिन क्षेत्रों में दूध का व्यवसाय ज्यादा होता है. वहां आत्महत्या के मामले भी कम है.

किताबों में होगा गौ माता का अध्याय: कार्यक्रम में शिक्षा मंत्री मदन दिलावर ने कहा कि गोपाष्टमी का उत्सव राज्यपाल की मौजूदगी में धूमधाम से मनाया गया. गौ माता की पूजा की, हवन यज्ञ किया. उन्होंने बताया कि गोपाष्टमी बहुत मायने रखती है. क्योंकि आज के दिन भगवान श्रीकृष्ण ने गोवंश को चराने के लिए ले जाना शुरू किया था. श्रीकृष्ण की सबसे प्रिय माता भी गौ माता ही थी. इसलिए गौ माता के बिना सृष्टि का अस्तित्व रहना संभव नहीं है. यही वजह है कि अब स्कूलों में गौ माता का अध्याय शामिल करने पर विचार किया जा रहा है. इसके लिए कमेटी का गठन किया गया है. वही अंतिम निर्णय करेगी.

गाय को राष्ट्रमाता का दर्जा दिया जाए: अखिल भारतीय गौशाला सहयोग परिषद के संयोजक डॉ अतुल गुप्ता ने बताया कि प्रत्येक गौशाला में गोपाष्टमी के आयोजन किए जा रहे हैं. इसके पीछे उद्देश्य यही है कि जनमानस के सहयोग से जल्द से जल्द गौ माता को राष्ट्रमाता और राज्यमाता बनाया जाए. प्रयास था कि गोपाष्टमी पर सरकारी अवकाश घोषित किया जाए. अर्जी लगाने में इस बार कुछ देरी जरूर हुई है, लेकिन अगले 1 साल में गौ माता से जुड़े कई आयोजन शासकीय व्यवस्था के तहत होंगे और गाय को राज्य माता का दर्जा भी मिल जाएगा.

मुंबई में 2051 तक 54% हिंदू हो जाएंगे कम जानें क्या है कारण

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मुंबई में बांग्लादेशी और रोहिंग्याओं की बढ़ती तेजी से बढ़ रही है, जो शहर की सामाजिक अर्थव्यवस्था को प्रभावित कर रही है। यही हाल रहा तो 2051 तक हिंदू आबादी 54 फीसदी से कम हो जाएगी जबकि मुस्लिम समुदाय की आबादी 30 फीसदी बढ़ जाएगी। ये चौकाने वाला खुलासा टाटा इंस्टीट्यूट आफ सोशल साइंसेज (टिस) की जनसांख्यिकी को लेकर ताजा अध्ययन में सामने आया है।

रिपोर्ट में मुंबई में हिंदू और मुस्लिम समुदायों की जनसंख्या में आए बदलाव का संकेत दिया गया है। साथ ही इसमें बंगलादेशी और रोहिंग्या घुसपैठिये के चलते मुंबई की राजनीति को प्रभावित करने का भी उल्लेख है। रिपोर्ट में कहा गया कि कुछ राजनीतिक संस्थाएं वोट बैंक की राजनीति के लिए इन अवैध अप्रवासियों का इस्तेमाल कर रही है, जो लोकतांत्रिक प्रक्रिया को बाधित कर सकती है। बिना दस्तावेज वाले अवैध अप्रवासी फर्जी वोटर आईडी हासिल कर रहे हैं, जो चुनावी निष्पक्षता और देश की लोकतांत्रिक प्रणाली के बारे में चिंताएं बढ़ाते हैं।

1961 में 88% थे हिंदू  2011 में 66% रह गए
रिपोर्ट के अनुसार, 1961 में हिंदू आबादी 88 प्रतिशत थी, जो 2011 में घटकर 66 फीसदी रह गई। 2011 तक हिंदुओं की आबादी मात्र 8 प्रतिशत बढ़ी। 1968 में मुस्लिम आबादी 8 फीसदी थी, वह 2011 में बढ़कर 21 फीसदी हो गई। अनुमान है कि 2051 तक हिंदू आबादी 54 प्रतिशत से कम होगी और मुस्लिम आबादी करीब 30% बढ़ जाएगी। रिपोर्ट के मुताबिक, 50 प्रतिशत अवैध घुसपैठी महिला व्यावसायिक रूप से देह व्यापार में संलिप्त हैं। ये शहर की सामाजिक-अर्थव्यवस्था को प्रभावित कर रहे हैं। इसके परिणामस्वरूप स्थानीय लोगों में झुंझलाहट बढ़ रही है।

अवैध घुसपैठ चिंताजनक : सोमैया
रिपोर्ट पर भाजपा नेता किरीट सोमैया ने कहा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सही कह रहे हैं कि एक हैं तो सुरक्षित हैं। जिस तरह बांग्लादेशी और रोहिंग्याओं की अवैध घुसपैठ हो रही है, वह चिंताजनक है। मुंबई के गोवंडी, मानखुर्द, मुंबादेवी, नया नगर, मुंब्रा और भिवंडी में बांग्लादेशी और रोहिंग्या मुसलमानों की संख्या में तेजी से इजाफा हो रहा है।

SSAN MUSIC – सान म्यूजिक ने जारी किया नया म्यूजिक वीडियो

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LYRICS – Shyam ji shyam
MUSIC – S p Sen
Singer – Priyanka Maurya , Sajjan Khan
MIX/MASTER – ARS
STUDIO – ARS
VIDEO Editor – Vaibhav Kambale
DIRECTED BY – SANKIRTAN
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Label / Music Company : SSAN MUSIC
Released Year: 2024 © Ssan Media and Entertainment
Patron – Supreme of God

महाराष्ट्र में RSS ने शुरू किया ‘सजग रहो’ अभियान

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महाराष्ट्र में RSS ने शुरू किया ‘सजग रहो’ अभियान, 65 संगठन साथ में: विधानसभा चुनाव से पहले हिंदुओं को एकजुट करने का उठाया जिम्मा

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) ने हाल ही में 65 से भी ज्यादा सहयोगी संगठनों के जरिए महाराष्ट्र में ‘सजग रहो’ नाम से एक अभियान की शुरुआत की है। यह अभियान मुख्य रूप से महाराष्ट्र विधानसभा चुनावों के संदर्भ में चलाया जा रहा है, और इसका उद्देश्य हिंदू समुदाय को एकजुट करना है।

आरएसएस का मानना है कि हिंदू जातियों के बीच विभाजन को समाप्त करने की आवश्यकता है, खासकर जब मुस्लिम समुदाय एकजुट होकर राजनीतिक ताकत बन रहा है।

बता दें कि अभी हाल ही में खुलासा हुआ था महाराष्ट्र चुनावों से पहले 180 ऐसी एनजीओ ऐसी है जो सिर्फ मुस्लिम वोटरों को एकजुट करने का काम कर रही हैं ताकि भाजपा को सत्ता से बाहर किया जा सके। इन एनजीओ में एक मराठी मुस्लिम सेवा संघ भी है।