• आशीष वशिष्ठ 

 सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को 2012 के छावला सामूहिक बलात्कार मामले में 19 वर्षीय लड़की की हत्या और बलात्कार के आरोपी तीन लोगों को बरी कर दिया। उन्हें पहले ट्रायल कोर्ट द्वारा दोषी ठहराया गया था और मौत की सजा सुनाई गई थी जिसकी 26 अगस्त 2014 को दिल्ली हाईकोर्ट ने पुष्टि की थी। दोषियों को जिस तरह सुप्रीम कोर्ट ने बरी कर दिया, उससे हर कोई स्तब्ध है। आरोपियों को बरी करने के बाद पीड़िता के पिता ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट ने इस फैसले से उन्हें निराश किया है और 11 साल से अधिक समय तक लड़ाई लड़ने के बाद न्यायपालिका से उनका विश्वास उठ गया है।

मूल रूप से उत्तराखंड की ‘अनामिका’ (बदला हुआ नाम) दक्षिण-पश्चिम दिल्ली के छावला के कुतुब विहार में रह रही थी। 9 फरवरी 2012 की रात नौकरी से लौटते समय उसे कुछ लोगों ने जबरन अपनी लाल इंडिका गाड़ी में बैठा लिया। 3 दिन बाद उसकी लाश बहुत ही बुरी हालत में हरियाणा के रिवाड़ी के एक खेत मे मिली। बलात्कार के अलावा उसे असहनीय यातना दी गई थी।  मगर, गैंगरेप के बाद भयंकर यातनाएं देकर मारी गई ‘अनामिका’ को इंसाफ नहीं मिल सका।

अब सुप्रीम कोर्ट ने तीनों आरोपियों को बरी कर दिया है। इसकी वजह पुलिस की खराब जांच और निचली अदालत में मुकदमे के दौरान बरती गई लापरवाही है। सुप्रीम कोर्ट ने भी अपने फैसले में यह भी कहा कि मामले की सुनवाई के दौरान कई स्पष्ट खामियां थीं। अभियोजन पक्ष द्वारा परीक्षण किए गए कुल 49 गवाहों में से 10 सामग्री गवाहों से जिरह नहीं की गई और कई अन्य महत्वपूर्ण गवाहों से बचाव पक्ष के वकील द्वारा पर्याप्त रूप से जिरह नहीं की गई। पीठ ने यह भी कहा कि विभिन्न फैसलों में अदालत ने बार-बार देखा कहा कि जज को ट्रायल में सक्रिय रूप से भाग लेना चाहिए और गवाहों से पूछताछ करनी चाहिए, लेकिन वर्तमान मामले में न्यायाधीश ने एक निष्क्रिय अंपायर की भूमिका निभाई।

ऐसे में अहम सवाल यह है कि क्या न्यायालय को पुलिसिया जांच और सम्पूर्ण व्यवस्था से यह नहीं पूछना चाहिए कि माना कि जिन्हें आरोपी बनाया गया है, वह निर्दोष है तो फिर ‘अनामिका’का असली गुनाहगार कौन है? वह कैसे बच गया पुलिस की नजरों से ? अगर तमाम व्यवस्था -चाहे कार्यपालिक यो या न्यायपालिका- की नजरों से अपराधी बच जा रहे हैं तो इस देश की करोड़ो बेटियां खुद को कैसे सुरक्षित महसूस करेंगी? सिक्के का दूसरा पहलू यह कि एक बार मान भी लें कि ये तीनों आरोपी असली गुनाहगार नहीं हैं तो फिर जेलों में बंद रहने के कारण इनके जीवन के जो 10 साल बर्बाद हुए हैं, उसकी भरपाई कैसे की जाएगी और कौन करेगा ?

 हालांकि पीड़ित परिवार के पास अभी कोर्ट में इस फैसले के मद्देनजर पुनर्विचार याचिका  का अधिकार है और उम्मीद है कि कोर्ट इसे जरूर पुनर्विचार योग्य समझेगी। क्योंकि यह मामला न सिर्फ एक अनामिका का है बल्कि देश की करोड़ो बेटियों की सुरक्षा का मामला है।

यह प्रसंग हमारी पूरी न्याय व्यवस्था पर गंभीर सवाल खड़े करता है। इस दिल दहला देने वाली घटना को अंजाम देने के बाद भी आज अपराधी खुली हवा में सांस ले रहे हैं। सवाल तो इस बात का है कि आखिर किसी ने तो इस कांड को अंजाम दिया।

यह मामला पुलिस की कार्यप्रणाली पर बड़े सवाल खड़े करता है। आखिर कैसे पुलिस ने जांच की? इससे तो ऐसे अपराधियों का मनोबल और बढ़ेगा। अपराधियों को लगेगा कि कानून उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकता है। भारत भले तमाम तरह की तरक्कियों के दावे करता रहे, लेकिन हकीकत यह है कि हमारा समाज, न्याय व्यवस्था, पुलिस आदि सब सवालों के घेरे में हैं। (युवराज)

आशीष वशिष्ठ 

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