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मनोवांछित फलदायी है शिव की उपासना

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विजय शंकर दीक्षित – विभूति फीचर्स

               भगवान शिव की उपासना की प्राचीनता-प्रचुरता सर्वमान्य है। शिव देव देवेश्वर महेश्वर हैं। कल्याणकर्ता होने से उन्हें शंकर कहा जाता है।  आशुतोष अवढरदानी परमप्रभु शिव के दरबार से कोई खाली हाथ नहीं लौटता, वे   उपासकों के अभाव दूर कर देते हैं, कामना पूर्ण कर देते हैं। भगवान शंकर भारतीय संस्कृति धर्म एवं जीवन में विराट समन्वय के देवता हैं। वे अपने आप में विषमता की संपूर्ण एकता हैं।

अंग में लगाते हैं सदा से चिता की भस्म,

फिर भी शिव परम पवित्र कहलाते हैं।

गोद में बिठाये गिरिजा को रहते हैं सदा,

फिर भी शिव अखंड योगिराज कहलाते हैं।

घर नहीं, धन नहीं, अन्न और भूषण नहीं,

फिर भी शिव महादानी कहलाते हैं।

देखत भयंकर पर नाम शिव शंकर,

नाश करते हैं तो भी नाथ कहलाते हैं।

आश्चर्य होता है कि शिवजी देवताओं-मानवों के उपास्य तो हैं ही किन्तु राक्षसों के भी उपास्य हैं।  शिवोपासना देवराज इन्द्र, विष्णु जी, मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम, लीला पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण तथा ऋषि मुनियों द्वारा की गई है, यहां तक कि दैवीय संस्कृति के कटï्टर शत्रु आसुरी प्रकृति वाले भौतिकता के साधक रावण, हिरण्याक्ष, हिरण्यकश्यप, लवणासुर, भस्मासुर, गजासुर, बाणासुर आदि राक्षसों-दानवों ने भी शिवजी की आराधना कर वरदानों से अपना अभ्युदय किया। देवों में सर्वोत्कृष्टï महादेव जी माने गए हैं। शिवोपासना से व्यक्ति को अभीष्टï फल प्राप्त हो ही जाता है।

भाल में जाके कलाधर है,

सोई साहब ताप हमारो हरैगो।

अंग में जाके विभूति लगी रहे,

भौन में संपत्ति भूरे भरेगो।

घातक है जो मनो भव को,

मन पातक वाही के जारे जरैगो।

दास जू शीश पै गंग धरै रहे,

बा की कृपा कहु कौन करेगो।

ब्रह्माजी भवानी पार्वती से व्यंग्य करते हुए कहते हैं आपके बावरे पति उन  कंगालों को धन- संपत्ति ऐश्वर्य सुख दे देते हैं, जिनके मस्तक में सुख संपत्ति का नामों निशान तक हमने नहीं लिखा है। रंको को भी वह इंद्र पद दे देते हैं, जिससे मुझे अनेक स्वर्गों की रचना कर उन्हें इंद्र पद पर प्रतिष्ठिïत करना पड़ता है। सृष्टïा की विनोद युक्त वाणी सुनकर जगतजननी भवानी मुस्कुराने लगीं। यह उद्गार विनय पत्रिका में तुलसीदास रचित इस पदावली में दृष्टïव्य है-

बाबरो रावरो नाह भवानी

परमोपास्य महादेव की परमोदारता कृपालुता के विषय में कवि की सदुक्ति देखिए-

दिगम्बर है स्वयं दीनों को पीताम्बर दिया करते।

भिखारी हो के घर औरों का धन से भर दिया करते ॥

यहां दुर्भाग्य भी सौभाग्य है।

ढांचे में ढल जाये॥

चरण पर भाल रखते

भाल की रेखा बदल जाये॥

धन्य हैं परम प्रभु शिवजी धन्य हैं उनकी दानशीलता भक्तवत्सलता परमोदारता जिससे प्रभावित हो विधाता चतुरानन, भवानी पार्वती से विनोदयुक्त वाणी से कहते हैं  कि मुझसे थोड़ा नहीं मांगना अधिक से अधिक इच्छित वस्तु मांग लो।  महाकवि तुलसीदास रचित कवितावली की पदावली देखिए। ब्रह्मïाजी कहते हैं-

नागौ फिरै कहे मागतो देखि,

ना खागो कछु जनि  मांगिये थोरि।

राकनि नाकप रीझि करै

तुलसी जग जौ जरै जावक जोरो॥

नाक संवारत आयो हो नाकहि नाहि

पिनाकिहि नेक निहोरो।

ब्रह्मा कहे गिरिजा सिखवो पति रावरो दानि है बावरो भोरो॥

वेदों से लेकर रामायण महाभारत तथा पुराणों में शिवार्चना का उल्लेख है।  शिव भक्तों में आदि शैवाचार्य, विष्णुनारायण हैं। सर्वप्रथम लक्ष्मी नारायण ने शिवोपासना की। विष्णु जी प्रथम शैव हैं सदुक्ति हंै।

”शैवानम् यथा हरि:। सेवहु शिवचरण रेणु कल्याण अखिलप्रद कामधेनु- तुलसी,

शिव एक हैं लीला भेद से वह लीला परमेश्वर अनेक भी हैं।  उनके अनेक रूप दिव्य नाम हैं, अद्र्धनारीश्वर, मायापति, गंगाधर, लिंगस्वरूप और अलिंग भी। भगवान शंकर का कपूरवतï् गौरवर्ण, नीलमणि प्रवालसदृश्य, मनोहर नील लोहित शरीर है। तीन नेत्र चारों हाथों में पाश, लाल कमल, कपाल, त्रिशूल हैं। आधे अंग में अंबिका सुशोभित है। मुखमण्डल सहस्त्रों सूर्य सदृश ज्योतिर्मय तेजस्वी है। सिर के दक्षिण भाग में धूमिता जटाजूट वाम भाग की अलकावली सुचिक्कण श्यामला लम्बी लटकें  लटक रही हैं। माथे पर अद्र्ध वैदी मनोहर है। एक नेत्र कटाक्ष के लिए चंचल, दूसरा शांत अर्धोन्मीलित। नासिका के छिद्र में सुनहली नथनी शोभा दे रही है। मस्तक पर चंद्रमा और सिर पर गंगा लहरा रही है अद्र्धांग में बाघम्बर भुजगावनद्ध हैं। कंठ में मन्दार पुष्पों की माला तथा मुण्डमाला लटक रही है। एक पैर में रेशमी साड़ी तो दूसरे पैर में गज की खाल एवं व्याघ्रम्बर धारण किए हैं। ऐसे परम् प्रभु सर्व शक्तिमान भगवान अद्र्धनारीश्वर को नमस्कार है। प्रणाम है। उन महेश्वर चंद्रमौलि की वन्दना करते हुए उनकी उपासना के संबंध में उनका प्रमुख मंत्र आराधना हेतु वर्णन कर रहा हूं।

शिवपंचाक्षर मंत्र नम: शिवाय। इस नम: शिवाय मंत्र के वासुदेव ऋषि हैं। पंक्ति छंद है और ईशान देवता हैं। सबके पहले ओंकार लगने पर यह षड़क्षरमंत्र हो जाता है। जैसे ऊँ नम: शिवाय।  शिवजी की षोडशोपचार पूजा कर शास्त्रोक्त विधि से स्नान ध्यान कर अनुष्ठïान करना चाहिए। इस मंत्र के जाप से लौकिक-परलौकिक सुख, इच्छित फल एवं पुरुषार्थ चतुष्टï्य की भी प्राप्ति साधक को हो सकती है। साधक भस्म रुद्राक्ष धारण कर दासोअस्मि कहकर विधिवत शिवार्चन करे जप स्त्रोतादि पाठ करे। रुद्राक्ष की माला एक सौ आठ दाने की अथवा 54 दानों की या 29 गुरिया की हो तो अच्छा है। कामना के अनुसार जप आदि उपासना करे, अनुष्ठान करे। साधक को विद्या प्राप्ति हेतु नम: शिवाय का जप स्फटिक माला से उत्तम है। सिद्धि प्राप्तत्यार्थ मोती की माला से जप करना उत्तम माना गया है या मूंगा की माला हो, हीरा की माला सिद्धप्रद है ही, रुद्राक्ष की माला भी उत्तम होती है, गुरु से दीक्षा लें। श्रद्धा-विश्वास से जप करना चाहिए। शिव नाम ही कल्याण वाचक है। अत: येन-केन प्रकारेण शिव का स्मरण  अथवा नाम जप करें। ‘शम् करोति शंकर ‘नाम जप का बड़ा महत्व है तभी महाकवि महात्मा तुलसीदास ने कहा है-

भाग्य कुभाय अनख आलस हू।

नाम जपन मंगल दिसि दसहू।

इष्टï देवता के नाम जप से साधक का कल्याण होता है चाहे श्रीराम अथवा श्रीकृष्ण, विष्णु, शिव, हनुमान आदि किसी देवता की आराधना, अर्चना साधना की जाए इनमें से कोई भी देवोपासना करें उसे सब कुछ मिल सकता है। लोक-परलोक सुधर जाएगा, पुरुषार्थ चतुष्टï्य धर्म अर्थ काम मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है।  मार्कण्डेय ने शिवोपासना से अमरत्व प्राप्त कर लिया।  भगवद्ïदर्शन प्राप्त कर लिया। यह चमत्कारिक रोचक कथा शिवपुराण में वर्णित है। शिव के पार्थिव पूजन की बड़ी महिमा है प्रतीकोपासना भी है। शिव के गुणानुवाद करते हुए पदïï्माकर कहते हैं-

देव नर किन्नर कितेक गुण गावत तै,

पावत न पार जा अनन्त गुन पूरे को।

कहां पदमाकर सुगाल के बजावत ही

काज करि देति जन जापक जरूरे को॥

चंद्र की छटा न जुत पन्नगभटान जुत

मुकुट विराजै जट जूटन के जूरे

को।

देखो त्रिपुरारि की उदारता अपार कहां

पैये फल चारि फूल एक एक है धतूरे को॥

पद््माकर जी का उक्त छंद सुनाते हुए हमारे पिता श्री कालीचरण दीक्षित कवीश ने बतलाया कि रुद्रार्चन में अक्षत बेलपत्र, गंगाजल, कमल का फूल शिव को अर्पण करें। शिवालय में शिवजी की आधी परिक्रमा करने का विधान है।

वैश्वानर की रोमांचकारी घटना का वर्णन पुराण में है। वैश्वानर पर वज्र विद्युत्पात हुआ।  इंद्र ने उन पर ज्यों ही वज्र चलाया तो वैश्वानर ने शिवजी का स्मरण किया। वज्र लगने से क्षणभर के लिए मूर्छित हो गए पुन: चेतना आई आंखें खोलीं तो देखा कि भगवान गौरा पति शंकर उन्हें गोद में लिए हुए हैं। भवानी सहित शंकर को देख साश्रुनयन हो श्रद्धाजंलि से (करबद्ध हो) नतमस्तक होकर गदगद हो पुलकित हो गए। आशुतोष चंद्रमौलि ने कहा- भक्तवर तुमने हमें पुकारा बस हम आ गए क्या डर गए हो, अब निर्भय हो जाओ यह कह प्रभु ने वैश्वानर को आग्नेय कोण का अधिपति बना दिया, लोकोक्ति है-

शंकर सहाय तो भयंकर कहा करें।

सारांश में कहना है कि शिवोपासना के महामृत्युंजय अनुष्ठान का चमत्कार ऋषिवर मार्कण्डेय के जीवन में दृष्टिïगोचर होता है। शिवार्चन से ऋषिवर मार्कण्डेय ने मृत्यु विजयनि शक्ति प्राप्त कर ली मृत्युंजय स्त्रोत प्रसिद्ध है, जिसकी पंक्तियां प्रस्तुत हंै-

रत्नसानु शरासन रजताद्रि श्रृंग निकेतन।

शिंजिनी कृतपन्नगे श्वरमच्युतानल शायकं॥

क्षिप्रदग्धुरत्रय त्रिदशालयै रभिवन्दितं।

चंद्रशेखरमाश्रये मम किं करिष्यति वै यम:॥

व्यक्ति को, साधक को सुख शांति एवं मनोवांछित फल प्राप्ति हेतु शिवोपासना करना चाहिए। (विभूति फीचर्स)

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