टी ट्वंटी की विश्व विजेता बन गयी इंग्लैंड की टीम। भारतीय टीम की जिस पाकिस्तान से सेफा में हार हुई,उसी पाकिस्तान की टीम को भी फाइनल में हार का सामना करना पड़ा। खेल है तो हार भी है जीत भी है। ये अलग बात है कि हमारी आग्रही समझ हारने वाली टीम और उसके खिलाडियों को मुजरिम की तरह पेश करती है। उन्हे कटघरे में ला देती है।

  वहीँ इलेक्ट्रॉनिक मीडिया वाले हार की तार्किक समीक्षा की जगह खिलाडियों के खिलाफ जनता में गुस्सा भरते नज़र आते है. इस बार लगभग यही दिखा। सेफा मे हार के बाद यही मीडिया अपने दर्शकों से पूछता दिखा कि हार  का मुजरिम कौन है? मीडिया वाले यही समझ विकसित कर रहे है कि हार स्वीकार नही है।

 खेल में हार न हो , ऐसा संभव है क्या? जिन्हे ये खलनायक बना कर पेश कर रहे है, उनके हिस्से वैश्विक कीर्तिमान भरे पड़े है। खेलो के इतिहास में हार और जीत की अनेक उदाहरण दर्ज है। फिर हार को लेकर इतनी व्यग्रता क्यों? क्या खेल भावना यही है?

मुझे तो यही लगता है कि इन्हे न खेल भावना की समझ है, न पत्रकारिता की। सम्यक  प्रतिक्रिया की जगह उग्रता जब स्थान ग्रहण कर ले तो वो मौलिकता के लिए खतरा पैदा कर देता है। मीडिया में अगुआई कर रहे व्यक्तियों को समझना होगा,खासकर चैनल वालो को कि उनकी विश्वसनीयता खतरे में है जो किसी के लिए अच्छा नही है।(युवराज)

सूरज रजक

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