मोरमुकुटी, वनमाली, पीताम्बरधारी श्रीकृष्ण यमुना में अपने हाथों से मल-मल कर गायों को स्नान कराते, अपने पीताम्बर से ही गायों का शरीर पोंछते, सहलाते और बछड़ों को गोद में लेकर उनका मुख पुचकारते और पुष्पगुच्छ गुंजा आदि से उनका शृंगार करते। तृण एकत्र कर स्वयं अपने हाथों से उन्हें खिलाते। गायों के पीछे वन-वन वह नित्य नंगे पांव, कुश, कंकड़, कण्टक सहते हुए उन्हें चराने जाते थे। गाय तो उनकी आराध्य हैं और आराध्य का अनुगमन पादत्राण (जूते) पहनकर तो होता नहीं। परमब्रह्म श्रीकृष्ण गायों को चराने के लिए जाते समय अपने हाथ में कोई छड़ी आदि नहीं रखते थे। केवल वंशी लिए हुतेए ही गाएं चराने जाते थे। वह गायों के पीछे-पीछे ही जाते हैं और गायों के पीछे-पीछे ही लौटते हैं वह गायों को मुरली सुना हैं।
सुबह गोसमूह को साष्टांग प्रणिपात (प्रणाम) करते और सायंकाल गायों के खुरों से उड़ी धूल से उनका मुख पीला हो जाता था। इस अद्भुत दृश्य को देखने के लिए देवी-देवता अपने लोकों को छोड़कर ब्रज में चले आते और आश्चर्यचकित रह जाते कि जो परमब्रह्म श्रीकृष्ण बड़े-बड़े योगियों के समाधि लगाने पर भी ध्यान में नहीं आते, वे ही श्रीकृष्ण गायों के पीछे-पीछे नंगे पांव वनों में हाथ में वंशी लिए घूम रहे हैं। मोहन गाएं चराकर आ रहे हैं। उनके मस्तक पर नारंगी पगड़ी है जिस पर मयूरपिच्छ का मुकुट लगा है, मुख पर काली-काली अलकें बिखरी हुई हैं जिनमें चम्पा की कलियां सजाई गई हैं।
गोप बालकों की मंडली के बीच मेघ के समान श्याम श्रीकृष्ण रसमयी वंशी बजाते हुए चल रहे हैं और सखामंडली उनकी गुणावली गाती चल रही है। गेरु आदि से चित्रित सुंदर नट के समान भेस में ये नवल-किशोर मस्त चलते हुए आ रहे हैं। चलते समय उनकी कमर में करधनी के किंकणी और चरणों के नुपूरों के साथ गायों के गले में बंधी घंटियों की मधुर ध्वनि सब मिलकर कानों में मानो अमृत घोल रहे हों।