• स्वामी गोपाल आनन्द बाबा

घोटिया आम्बा स्थल राजस्थान के जनपद बांसवाड़ा में अवस्थित है। कई किलोमीटर में छितराए पहाड़ों के आँचल में घोटिया आम्बा तीर्थ के देवस्थलों के दर्शनों तथा स्नान आदि के लिए श्रद्धालु पहुंचते रहते हैं। घोटिया यानि घोटेश्वर शिव और आम्बा यानि पार्वती का यह स्थान द्वापर युग के अन्तिम चरण यानि महाभारत काल का स्मरण कराता है। राजस्थान, गुजरात और मध्यप्रदेश के सीमावर्ती अँचलों से लोगों का आवागमन यहां अधिक होता है।

तीनों तरफ पर्वत से घिरे घोटेश्वर शिवालय में रक्ताभ शिवलिंग एवं देवी पार्वती की आकर्षक प्रतिमा है। पाश्र्व में दीर्घ अधिष्ठान पर श्वेत पाषाण निर्मित पाण्डव कुल की सात मूर्तियां हैं जिनका दर्शन एवं पूजन किया जाता है। मुख्य मंदिर के द्वार पर आकर्षक देव प्रतिमाओं के अतिरिक्त दो सिंह मूर्तियां एवं मध्य में ध्यानावस्थित महात्मा की प्रतिमा यहां की शान्ति एवं समन्वय को बहुत सुन्दरता पूर्वक अभिव्यक्ति देती है। इसके पास ही हनुमान मंदिर, यज्ञ कुण्ड, गोशाला, धर्मशाला, भोजनशाला है। घोटेश्वर शिवालय के पास ही पवित्र जल से भरा पाण्डव कुण्ड है, जहां श्रद्धालु स्नान करते हैं। कुण्ड में ही शिला स्तम्भ पर शिवलिंग स्थापित है जिस पर श्रद्धालु भक्त जल व पैसे चढ़ाते हैं। श्रद्धालु केलापानी के देवालय, बजरंगबली मंदिर, वाल्मीकि मंदिर आदि में दर्शन करते हैं। शिवालय के सम्मुख धूनीवाला आश्रम भी आकर्षण का केन्द्र है।
पाण्डव कुण्ड के निकट जन-जन की अगाध आस्था का प्रतीक आम्रवृक्ष है, जिसके बारे में मान्यता है कि यह लोगों की कामनाएं पूरी करता है। घोटिया आम्बा के पठार पर पाण्डवों (युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव) ने भगवान श्रीकृष्ण की सहायता से देवराज इन्द्र से प्राप्त आम की गुठली यहां रोप दी और इस आम्रवृक्ष से उत्पन्न आम्रफलों के रस से अठासी हजार ऋषियों को भोजन कराने का पुण्य पाया। यहां आम्रवृक्ष की श्रृंखला तब से चली आ रही है। आज
भी लोग परम्परा से आम्रवृक्ष की परिक्रमा, पूजन इत्यादि करते हैं। यहां एक धूनी है, जिसमें नारियल का हवन लगातार चलता रहता है। श्रद्धालु कामना पूरी हो जाने पर यहां रंगीन ध्वज चढ़ाते हैं। नारियलों की पंक्तियां बांधते हैं और ब्राह्मणों व साधु-संतों को भोजन कराते हैं। घोटेश्वर शिवालय से कुछ ही दूर पठार के पार केलापानी नामक पवित्र धाम है, जहां शिवालय, राममंदिर, केले के मनोहारी झुरमुट, दिव्य चावल, सुरम्य झरना तथा गोमुख से सतत प्रवाहमान जलधाराएं श्रद्धा एवं आत्मीय आनन्द से भर देती हैं।
वनवास काल में प्यास लगने पर भीम के गदा प्रहार से घना सुरम्य केलापानी झरना वर्षाऋतु में हर किसी को मुग्ध कर देता है। यहां मोती गिरी महाराज की छतरी, धूनी, आश्रम तथा पाण्डवों के चरण चिन्ह भी विद्यमान हैं, जहां श्रद्धालुओं का आवागमन लगा रहता है। यहीं पर पौराणिक महत्व के साल के पौधों से गिरे चावलों को ढूंढ़कर दर्शनार्थी घर ले जाते हैं। इन चावलों को पाना सौभाग्य का प्रतीक माना जाता है। चैत्रकृष्ण त्रयोदशी से अमावस्या तक परम्परागत रूप से घोटिया आम्बा मेला यहां लगता है। बांसवाड़ा जिले का यह सबसे बड़ा परम्परागत ग्राम्य मेला है, जिसे जनजातीय गण बहुत अधिक मान्यता देते हैं और उनकी सर्वाधिक भीड़ यहां पधारती है। इसमें वागड़ आंचल के हजारों मेलार्थी के साथ ही गुजरात और मध्यप्रदेश के सीमा क्षेत्रों से आने वाले नागरिकों की संख्या भी अच्छी रहती है। पाण्डवों की स्मृति में लगने वाला यह मेला शताब्दियों से जन-जन को पराक्रम एवं शौर्य एवं  सांस्कृतिक अस्मिता का प्रतीक भी बना हुआ है।

मेला का प्रारम्भ शिवार्चन के साथ ही चैत्र कृष्ण 13 को महन्त हीरागिरी महाराज एवं महन्त रामगिरी महाराज द्वारा शिवलिंग पर रजत छत्र चढ़ाकर होता है और चैत्रशुक्ल द्वितीया को समापन होता है। यह मेला बांसवाड़ा, दोहद मार्ग स्थित बड़ोदिया से कुछ दूर घोटिया आम्बा के जंगल में लगता है। नर-नारियों को पाण्डव कुण्ड में स्नान करते देखा जा सकता है। मुख्य मेले के दिन स्नानार्थियों की भारी भीड़ यहां जमा रहती है। इस कुण्ड को पापों का शमन करने वाला और मुक्तिदायक माना गया है। स्नान में असमर्थ मेलार्थी हाथ-पांव व मुख का प्रक्षालन यहां अवश्य करते हैं।
घोटिया आम्बा का मनोहारी नैसर्गिक परिवेश ही ऐसा है कि यहां आने वाला हर कोई जीवन के संत्रासों, विषादों और भविष्य की तमाम आशंकाओं को भूलकर असीम आनन्द सागर में डूब जाता है।
मेलार्थी खाने-पीने की सामग्री अपने साथ लाते हैं एवं घोटिया आम्बा तीर्थ के देवस्थलों का दर्शन व मेलों का आनन्द लेते हैं। कई किलोमीटर छितराए पहाड़ों के आंचल में ये समूह दाल, बाटी, चूरमा आदि पकाकर परिजनों के साथ सामूहिक वन भोज का आनन्द लेते हैं। रमणीय घोटिया आम्बा क्षेत्र में चारों ओर बड़े-बड़े वृक्षों से भरी पहाडिय़ां, दुर्गम घाटियां, शीतल जल के स्रोत और वन्य जीवों की अठखेलियां प्रकृति के अनुपम वैभव को व्यक्त करती है। राजस्थान, गुजरात और मध्यप्रदेश के सीमावर्ती अंचलों से परम्परागत परिधानों में जमा जनजाति स्त्री-पुरुषों, लोकवाद्यों के साथ फाल्गुनी गीतों की झंकार और नृत्यों की मनोहारी वातावरण जनजाति संस्कृति के प्राणों को बहुत सुन्दरता से रुपायित करती है। जनजाति समाज सुधारक एवं संत महात्मा भी बड़ी संख्या में यहां पहुंचकर धार्मिक एवं सामाजिक चेतना का संचार करते हैं।
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