Home Feature News महाशिवरात्रि महाकाल की उपासना की परंपरा

महाशिवरात्रि महाकाल की उपासना की परंपरा

45
0
श्रीमती उर्मिला निरखे-
आकाशे तारकंलिंगम पाताले हाटकेश्वरम्
मृत्यु लोके महाकालो लिंगत्रयो नमोस्तुते।
आकाश में तारकालिंग, पाताल में हाटकेश्वर, मृत्युलोक में महाकाल स्थित है। मृत्युलोक विशाल है। ज्योर्तिलिंग भी अनेक हैं, जिनमें महाकाल उज्जैन में स्थित है।
सौराष्ट्रे सोमनाथंच, श्री शैले मल्लिकार्जुनम्
उज्जनिन्यां महाकालं ओंकार ममलेश्वरम्।
भगवान महाकालेश्वर शिव का स्वरूप हैं। शिवत्व सम्पूर्ण ब्रहा्राण्ड में व्याप्त हैं, क्योंकि वह महाकाल है ऐसी स्थिति में महाकाल की उपासना की परंपरा पर चर्चा करना वास्तव में बहुत सीमित होना है पर महाकाल के कारण अवंतिका का पावन क्षेत्र विश्व व्यापी ख्याति अर्जित कर सका है। सारे संसार के शैव अपने मन में मालवा की शस्य-श्यामला भूमि में स्थित उज्जैन के महाकालेश्वर दर्शन की आकुलता एवं जिज्ञासा सहेजे रहते हैं। मालवा क्षेत्र में भारत के अन्य क्षेत्रों की अपेक्षा भगवान महाकालेश्वर की उपासना अधिक प्रचलित रही है। स्कंधपुराण के अवन्तिखंड में उल्लेख है कि विशाल अवन्ति क्षेत्र में एक महाकाल वन था जिसमें लाखों भक्त जन हजारों शिव लिंगों की पूजा-अर्चना करते थे। समय बीतता गया, वह प्राचीन वन लुप्त हो गया किन्तु महाकालेश्वर का मंदिर आज भी अपने मूल स्थान पर स्थित है। पुराणों तथा कालिदास, बाणभट्टï आदि महाकवियों ने इस मंदिर की भारी महिमा गायी है। प्राचीनकाल में उज्जैन का नरेश चण्ड प्रद्योत था। इस बात के अनेक प्रमाण हैं कि उस समय भी महाकाल मंदिर भारी भीड़ को आकर्षित करता था। महाकाल मंदिर में जो अभिलेख विद्यमान हैं, उसके अनुसार इस मंदिर का पुनर्निर्माण अत्यंत ही भव्य रूप में परमार काल में हुआ। दुर्भाग्य से सन् 1235 में अल्तमश ने इस मंदिर को नष्टï कर दिया। अठारहवीं सदी के पूर्वाद्र्ध में जब राणोजी शिंदे उज्जैन के शासक बने उनके मंत्री रामचंद्र शेणवी ने इस मंदिर का पुनर्निर्माण कराया।
आज  जो मंदिर विद्यमान है, वह मराठा काल में निर्मित हुआ है और तीन खंडों में विभाजित है। सबसे नीचे महाकालेश्वर मध्य में ओंकारेश्वर और ऊपर नाग चंद्रेश्वर (सिद्धेश्वर) है। जब हम त्रिखण्डीय मंदिरों की चर्चा करते हैं तो मालवा निमाड़ परिक्षेत्र के दो मंदिर हमारे सामने आते हैं पहिला नेमावर का सिद्धेश्वर मंदिर जो देवास जिले में नर्मदा नदी के तट पर स्थित है। यहां के मंदिर में महाकालेश्वर दूसरे खण्ड में विद्यमान है। नर्मदा किनारे ही एक और ज्योर्तिलिंग ममलेश्वर (ओंकार मांधाता) है। यहां ओंकारेश्वर का जो प्राचीन मंदिर विद्यमान है, उसके सर्वोच्च खण्ड पर महाकालेश्वर विद्यमान हैं। इस प्रकार उज्जैन के महाकालेश्वर, नेमावर के सिद्धेश्वर और मांधाता के ओंकारेश्वर मंदिर एक-दूसरे के पूरक हैं। इनसे जो त्रिकोण बनता है इससे परिसीमित मालवा अंचल शैवमत के गुह्यतंत्र की सिद्ध भूमि माना जा सकता है। इन तीनों मंदिरों की परस्पर दूरी साठ कोस की है( उज्जैन, नेमावर, ओंकारेश्वर)
परमार काल से ही महाकालेश्वर की विशिष्ट उपासना की जाती रही है। खरगोन जिले में ऊन नामक स्थान, परमार काल में 99 विशाल मंदिरों का नगर था। अब तो वहां मात्र दो-चार मंदिरों के अवशेष रह गए हैं, इनमें एक जीर्ण-शीर्ण महाकालेश्वर का मंदिर भी है। यह मंदिर भी त्रिखण्डी रहा था। अब तो मात्र पुरा अवशेष है जो प्रमाणित करता है कि यह आकर्षक शिखर वाला मंदिर भूमिज शैली से बना है। इसी शैली का एक मंदिर रतलाम जिले के धराड़ ग्राम में है किन्तु इसका जीर्णोद्धार होने के पश्चात् मंदिर का मूल स्वरूप दिखाई नहीं देता है। उज्जैन जिले की महिदपुर तहसील में झार्डा और इन्दोक के मध्य एक अत्यंत ही आकर्षक परमारकालीन मंदिर विद्यमान है। यह मंदिर भगवान महाकालेश्वर का है। देवास जिले में एक ग्राम है बिलावली है, यहां कुएं के उत्खनन से प्राप्त पुरावशेषों से सिद्ध हुआ है कि बिलावली (विल्लवपल्ली) में प्राचीन काल के आरंभ से ही बस्ती थी। एक पुरातत्वीय टीले के उत्खनन से यहां भी एक विशाल महाकाल मंदिर का होना पाया गया है। मंदिर तो आज भी है परन्तु वह पूर्णरूपेण आधुनिक है। मालवा की महाकाल परम्परा का विवरण तब तक समाप्त नहीं होता जब तक हम शाजापुर जिले के ग्राम सुन्दरसी  की चर्चा नहीं कर लेते। परमार काल में सुन्दरसी में भूमिज शैली के अनेक हिन्दू और जैन मंदिर थे। अब तो वे नष्ट प्राय: हो चुके हैं किन्तु भाग्य से प्राचीन महाकाल मंदिर का मंडप, शिखर, यज्ञशाला, कोटितार्थ कुंडआंगन खंडित रूप से आज भी विद्यमान हैं। यह मंदिर भी भूमिज शैली ( बिना नींव के ) बना हुआ है। मंदिर के भग्नावशेष बताते हैं कि मंदिर  अत्यंत विशाल एवं कलात्मक रहा होगा। वैसे सुन्दरसी उज्जैन का लघु संस्करण है, यह कहना अतिश्योक्ति नहीं है। महाकाल के कुछ और मंदिर मालवा क्षेत्र के कुछ ग्रामों में विद्यमान है। वे इतना तो सिद्ध करते हैं कि महाकाल की उपासना की परंपरा प्राचीनकाल से आज तक घनीभूत रूप से विद्यमान रही है। (विनायक फीचर्स)
Previous articleहल्की वर्षा होने पर कृषि विभाग के अधिकारियों ने किया भ्रमण
Next articleमहामार्ग के जरिए इंगतपुरी से शिरडी तक केवल डेढ़ से दो घंटे में ही पहुंचा जा सकेगा

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here