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गणतंत्र दिवस – ग्रामीण विकास से ही राष्ट्र का विकास सम्भव

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गणतंत्र दिवस
ग्रामीण विकास से ही राष्ट्र का विकास सम्भव
रवीन्द्रनाथ शुक्ल – विभूति फीचर्स

भारत एक कृषि प्रधान देश है। यहां की लगभग 80 प्रतिशत जनसंख्या कृषि पर आधारित होने के कारण गांवों में
निवास करती है। इस कारण भारतीय सभ्यता और संस्कृति के सच्चे दर्शन हमें गांवों में ही प्राप्त होते हैं। स्वतंत्र
भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू ने एक बार कहा था कि 'भारत की आत्मा गांवों में निवास करती है।‘
इस प्रकार ग्राम हमारे राष्ट्रीय जीवन के आधारभूत स्तम्भ हैं। भोजन के लिए अन्न तथा कारखानों के लिए कच्चा
माल हमें ग्रामों से ही प्राप्त होता है। भारतीय कृषकों के खेतों पर ही हमारी सम्पूर्ण अर्थ-व्यवस्था का निर्माण हुआ है
और भारत की अविरल धन-सम्पदा का सबसे बड़ा साधन कृषि’ ही है। इसलिए देश की सुख और समृद्धि गांवों की
उन्नति पर निर्भर करती है। गांव यदि सुखी होंगे तथा उन्नत अवस्था को प्राप्त होंगे तो राष्ट्र भी प्रगति कर सकेगा
अन्यथा ग्रामों की उपेक्षा करते हुए राष्ट्र का आर्थिक विकास सम्भव नहीं। यह बड़े खेद का विषय है कि जिन ग्रामों पर
हमारे राष्ट्र की आर्थिक व सामाजिक उन्नति निर्भर करती है, उनकी दशा अत्यंत दयनीय है। गांवों को हमने सर्वथा
भुला दिया है। शिक्षा की दृष्टि से, सभ्यता की दृष्टिï से तथा औद्योगिक विकास की दृष्टि से वे बहुत पिछड़े हुए हैं।

सामाजिक कुरीतियों ने ग्रामों को अपना केंद्र बना लिया है। इस देश में गांवों की संख्या लगभग 7 लाख है। अत:
भारतवर्ष की उन्नति के लिए ;ग्रामीण विकास की समस्या सबसे बड़ी समस्या है। इस समस्या के समाधान पर ही
भारतवर्ष जैसे विकासशील विकास सम्भव है।

प्राचीनकाल में ग्राम्य जीवन सुन्दरता से परिपूर्ण था। प्राकृतिक दृश्यों की सुषमा, स्वास्थ्यप्रद वातावरण, सात्विक
प्रेम, त्यागमय जीवन और निष्कपट व्यवहार की दृष्टि से ग्राम्य जीवन एक आदर्श था। जैसा कि एक कवि ने इस
भाव को अपनी इन पंक्तियों में व्यक्त किया है:
अहा! ग्राम्य जीवन भी क्या है।
क्यों न इसे सबका मन चाहे।
भारतीय ग्राम आधुनिक जीवन की नींव है। भारतीय किसान स्वयं आधा पेट भोजन कर करोड़ों मनुष्यों के लिए अन्न
उत्पन्न करता है। इस प्रकार भारतीय कृषक की महत्ता को राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने इन पंक्तियों में व्यक्त
किया है:-
बरस रहा है रवि अनल,
भू-तल तवा-सा जल रहा।
है चल रहा सन-सन पवन,
तन से पसीना ढल रहा॥
देखो कृषक शोणित सुखाकर,
हल तथापि चला रहे।
किस लोभ में इस आंच में,
वे निज शरीर जला रहे॥
परंतु इतना सब कुछ होते हुए भी भारतीय कृषक का जीवन दरिद्रता तथा दैन्यता का जीवन है। आपत्तियों तथा संकटों
में उसका जीवन पलता है। उसकी सारी कमाई ऋण चुकाने में व्यय हो जाती है। सच तो यह है कि उसका जन्म ऋण
में होता है, ऋण में ही उसका पालन होता है और ऋण में ही उसकी जीवन लीला समाप्त हो जाती है। उसके जीवन में
आमोद-प्रमोद और अमन-चैन के सुख साधनों का सर्वथा अभाव रहा है। यही कारण है कि 'पंतजी’ को आधुनिक ग्राम
मानव लोक’ से भी नहीं लगते हैं:

यह तो मानव लोक नहीं रे,
यह है नरक अपरिचित।
यह भारत की ग्राम सभ्यता,
संस्कृति से निर्वासित॥
अकथनीय क्षुद्रता विवशता,
भरी यहां के जग में।
गृह-गृह में कलह, खेत में
कलह, कलह है मग में॥

भारतीय कृषक की कुछ समस्याएं ऐसी हैं, जिनका निराकरण किए बिना उनका जीवन उन्नतिशील नहीं हो सकता।
भारतीय किसानों की दयनीय अवस्था का मूल कारण अशिक्षा है। शिक्षा के अभाव में भारतीय कृषक कृषि के
आधुनिक तथा वैज्ञानिक तरीकों से अपरिचित रहते हैं। पुरानी परिपाटी की अवैज्ञानिक ढंग की खेती आज के भारत के
लिए उपयुक्त नहीं है। अशिक्षा के कारण ही ग्रामीणों में सामाजिक कुरीतियां बहुत देखी जाती हैं। अंधविश्वास उनमें
कूट-कूटकर भरे होते है। अधिकांश ग्रामीण तिथि-नक्षत्र आदि देखकर ही बीज बोते तथा फसल काटते हैं। विवाह, मृत्यु
भोज आदि में वे अपना धन पानी की तरह बहाते है और कर्ज को निमंत्रण देते हैं। वे मुकदमेबाजी में अपना धन तथा
समय का अपव्यय करते है। इसके अतिरिक्त ग्रामीण कृषक देश-विदेश की परिस्थिति से अनभिज्ञ रहते हैं। उनके
लिए गांव ही सम्पूर्ण विश्व है। इस प्रकार मुख्य रूप से अशिक्षा के कारण ही हमारे ग्राम पिछड़े हुए हैं। अत: यदि शिक्षा
का प्रचार और प्रसार किया जाए तो निश्चित ही भारतीय ग्राम उन्नत अवस्था को प्राप्त होंगे।

अशिक्षा को दूर करने तथा शिक्षा के प्रचार-प्रसार के लिए गांवों में दो प्रकार के स्कूल खोले जाने चाहिए। एक प्रकार के
स्कूलों में बालकों व बालिकाओं को शिक्षा दी जानी चाहिए तथा दूसरे प्रकार के स्कूलों में रात्रि में युवाओं तथा वृद्धों
को शिक्षा दी जानी चाहिए, क्योंकि वे दिनभर कृषि कार्यों में लगे रहते है। बालिकाओं एवं महिलाओं के लिए भी नारी-
शिक्षा का उचित प्रबंध किया जाना चाहिए। यद्यपि यह हर्ष का विषय है कि हमारी सरकार इस ओर खूब ध्यान दे रही
है, तथापि हमारे पिछड़े हुए ग्रामों के लिए शिक्षा प्रसार की दर अत्यंत मंद है। इसे और तेजी से लागू किया जाना
चाहिए।

भारतीय कृषकों की दूसरी प्रमुख समस्या स्वच्छता एवं स्वास्थ्य की है। अधिकांश कृषकों के परिवार गंदे घरों में
निवास करते हैं। कृषकों के बालक अनेक रोगों से पीडि़त रहते हैं और चिकित्सा के अभाव में अकाल मृत्यु को प्राप्त

होते हैं। वर्षा ऋतु में तो गांव की गंदगी बहुत बढ़ जाती है। जगह-जगह कीचड़ हो जाता है और गंदे जल से छोटे-छोटे
गड्ïढे भर जाते है।

गोबर और कूड़े के ढेरों से भी वातावरण प्रदूषित होता है। सचमुच वर्षाकाल में गांव गंदगी की मूर्ति हो जाते हैं। इस
समय असंख्य मक्खियां और मच्छर पैदा होकर गंदगी को चारों ओर फैलाते है। प्रतिवर्ष गांवों में वर्षा ऋतु के बाद
मलेरिया जोर पकड़ लेता है। ग्रीष्म ऋतु में हैजा का प्रकोप रहता है। इस प्रकार पर्यावरणीय प्रदूषण के कारण गांवों में
अनेक प्रकार की बीमारियां फैलती रहती हैं। अतएव प्रदूषण के निदान के लिए यह आवश्यक है कि गांवों में कूड़ादानों
की व्यवस्था की जानी चाहिए, वृक्षों के कटाव पर प्रतिबंध लगाने, गोबर गैस प्लान्ट को प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए।
औषधालयों एवं पशु चिकित्सालयों आदि की समुचित व्यवस्था की जानी चाहिए।
शिक्षा एवं पर्यावरणीय प्रदूषण की समस्या के समाधान पर ही गांवों का विकास नहीं हो सकता। ग्रामीण विकास के
लिए कुटीर एवं लघु धंधों का पुनरुत्थान आवश्यक है। भारतीय कृषक वर्ष में लगभग चार माह तक खाली रहते हैं। इस
लम्बे समय को वे व्यर्थ नष्टï कर डालते हैं। यदि वे इस समय में किसी लघु या कुटीर धंधे को अपना लें तो उनकी
आय में काफी वृद्धि हो सकती है और वे अपने ऋण भार को काफी हल्का कर सकते हैं। मत्स्य पालन, मुर्गी पालन,
मधुमक्खी पालन, रेशम के कीड़े पालना, रस्सियां बांटना, चटाईयां बनाना आदि अनेक ऐसे व्यवसाय हैं, जिनको
अपनाकर किसान अच्छी खासी आमदनी प्राप्त कर सकते हैं। इस प्रकार कुटीर एवं लघु उद्योग धंधों के माध्यम से
उनका जीवन सुखमय एवं शांतिमय बन जाता है।

आज के कृषक जरा-जरा सी बातों पर एक-दूसरे से झगड़ा कर न्यायालयों की शरण लेते हैं, जिसके परिणामस्वरूप
उनकी पसीने की कमाई व्यर्थ में जाती है। उनके बीच वैमनस्यता फैलती है, जो पीढ़ी दर पीढ़ी चला करती है। अत:
ग्राम पंचायतों एवं ब्लॉक प्रमुखों आदि को न्याय करने का विशेषाधिकार दिया जाना चाहिए ताकि ग्रामों की छोटी-
छोटी समस्याओं तथा आपसी मनमुटाव का अन्त करके ग्रामीणों में मानवता का संचार किया जा सके। इन सब
व्यवस्थाओं के अतिरिक्त ग्रामीण विकासार्थ हरितक्रांति, गहन कृषि, लघु एवं कुटीर उद्योग धंधों का पुनरुत्थान,
अच्छे बीज की व्यवस्था, पशु चिकित्सालयों की स्थापना, उर्वरक विक्रय केंद्रों की स्थापना, सहकारी संगठनों का
निर्माण, पशुओं की नस्ल सुधार, प्रौढ़ शिक्षा एवं नारी शिक्षा को और भी प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए तथा अन्य
सुविधाएं ग्रामीण निवासियों को उपलब्ध कराई जानी चाहिए, ताकि वे न्यूनतम लागत पर अधिकतम उत्पादन प्राप्त
कर सकें। ग्राम हमारे राष्टï्रीय जीवन की आत्मा हैं। अत: बिना ग्रामीण विकास के राष्टï्र का विकास संभव नहीं है।
इस प्रकार हमें भारतीय गांवों के विकास में तन,मन,धन से यथाशक्ति आगे आना चाहिए। गांवों की उन्नति ही
राष्टï्र के भविष्य को उज्ज्वल और मंगलमय बना सकती है। (विभूति फीचर्स)

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