गौ-हत्या के संदेह में मॉब लिंचिंग का आरोप लगाने वाली एक याचिका को सुनने से सुप्रीम कोर्ट ने मना कर दिया है. कोर्ट ने कहा है कि भीड़ की हिंसा को लेकर वह पहले ही विस्तृत आदेश जारी कर चुका है. अब वह देश भर की एक-एक घटना की निगरानी नहीं कर सकता. याचिकाकर्ता को हाईकोर्ट जाना चाहिए.
नेशनल फेडरेशन ऑफ इंडियन वूमेन (NFIW) नाम की संस्था की याचिका में कहा गया था कि भीड़ की हिंसा को लेकर राज्य सरकारें सख्त कदम नहीं उठा रही हैं. याचिकाकर्ता ने कुछ घटनाओं का हवाला देते हुए पुलिस की भूमिका पर सवाल उठाए थे. याचिका में कहा गया था कि ‘गौरक्षा’ के नाम पर होने वाली हिंसा में बढ़ोतरी हुई है. याचिका में असम, छत्तीसगढ़, तेलंगाना, महाराष्ट्र, ओडिशा और बिहार में हुई हिंसा की घटनाओं का हवाला दिया गया था.
NFIW ने कहा था कि सुप्रीम कोर्ट ने 2018 में तहसीन पूनावाला बनाम भारत सरकार केस में जो फैसला दिया था, उसे पूरी तरह लागू करने का राज्य सरकारों को निर्देश दिया जाए. NFIW ने आरोप लगाया था कि राज्य सरकारें मॉब लिंचिंग की रोकथाम को लेकर गंभीर नहीं हैं. इस तरह की घटनाओं के बाद भी पुलिस सख्त कार्यवाही नहीं करती.
केंद्र सरकार की तरफ से पेश सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कहा कि वह एक-एक राज्य की तरफ से जवाब नहीं दे सकते, लेकिन सुप्रीम कोर्ट पहले ही भीड़ की हिंसा पर निर्देश दे चुका है. पिछले साल से लागू हुए नए आपराधिक कानून भारतीय न्याय संहिता (BNS) में भी मॉब लिंचिंग को अपराध बनाया गया है. अगर कहीं सुप्रीम कोर्ट के आदेश और कानूनी प्रावधान का पालन नहीं हुआ, तो इस बात को दूसरे फोरम में भी रखा जा सकता है.
जस्टिस भूषण रामाकृष्ण गवई और जस्टिस के विनोद चंद्रन की बेंच ने एसजी तुषार मेहता की दलील से सहमति जताते हुए कहा कि सुप्रीम कोर्ट का काम हर घटना का माइक्रो मैनेजमेंट करना नहीं है. किसी मामले में अगर पुलिस ठीक से काम नहीं कर रही, तो इसे आला अधिकारियों, निचली अदालत या हाईकोर्ट में रखा जा सकता है. सुप्रीम कोर्ट ने याचिका पर सुनवाई से मना करते हुए मॉब लिंचिंग के मामलों के लिए मुआवजा तय करने की मांग पर भी विचार से मना कर दिया.
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