उमेश कुमार साहू – विभूति फीचर्स
ऋतुराज बसंत के आगमन के साथ ही प्रकृति का सुंदर स्वरूप निखर उठता है। पतझड़ के पश्चात पेड़ पौधे नई-नई कोंपलों, फूलों से आच्छादित हो जाते हैं। धरती सरसों के फूलों की बासंती चादर ओढ़कर श्रृंगार करती है। विभिन्न प्रकार के पुष्पों की मनमोहक छटा के साथ पलाश के रंग तथा कोयल की कूक सर्वत्र छा जाती है। बसंत पुष्पों के माध्यम से प्रसन्नता व आनंद का उपहार सौंपता है। बसंत के आगमन के साथ ही प्रकृति सजीव, जीवंत एवं चैतन्यमय हो उठती है। बसंती बयार में प्रकृति का रूप ‘नवगति-नवलय-तालछंद नवÓ से समन्वित हो जाता है। प्रकृति कुसुम-कलिकाओं की सुगंध से गमक उठती है। आम के बौर वातावरण को सुरभित कर देते हैं। प्रकृति के इस परिवेश में मानव भी उसके साथ थिरक उठता है, तदाकार हो जाता है।
वास्तव में बसंत प्रकृति और मानव मन की उमंग का प्रतीक है। विज्ञजनों  के अनुसार बसंत प्रकृति और मानव के संवेदनशील संबंधों का साकार रूप है। जब-जब बसंत आता है, कवियों में नवोन्मेष का संचार हो जाता है। अश्वघोष, कालिदास, माघ और भारवि जैसे प्रख्यात संस्कृत कवियों से लेकर वर्तमान युग के कवियों का श्रंृगार है – ‘बसंतÓ। ऋतुराज बसंत के बारे में सुमित्रानंदन पंत ने इस तरह अपने उद्गार व्यक्त किये है –
लो चित्रशलय सी पंख खोल,
  उडऩे को है कुसुमित घाटी,
यह है अल्मोड़े का बसंत,
  खिल पड़ी निखिल पर्वत घाटी।
महाकवि सेनापति को टेसू के फूल इतने भाये कि उस पर ही एक छंद उतर आया, उनके मानस में और यह रंग फागुन तक बरसता रहता है।
लाल-लाल टेसू फूलि रहे हैं बिसाल संग
श्याम रंग भेटि मनौ कसिकै मिलाएं हैं।
तहां मधु काज आय बैठे मधुकर पुंज
मलय पवन उपवन बन धाये हैं।
‘सेनापतिÓ माधव महीना में पलाश तरू
देखि-देखि भाव-कविता के मन आए हैं।
आधे-अन सुलगि-सुलगि रहे आधे मनौ
बिरही दहन काम क्वैला परचाए हैं।
बसंत के संदर्भ में महाकवि कालीदास ने इस ऋतु का उनके प्रसिद्घ ग्रंथ ऋतु संहार में कितना सुंदर चित्र प्रस्तुत किया है देखें –
‘द्रुमा सपुष्पा सलिलं सपद्यं स्त्रय: सकामा पवन: सुगंधि:।
सुखा: प्रदोषा दिवसाश्च रम्या: सर्वप्रिये चारूतरं बसंते।Ó
अर्थात् ‘हे प्रिये! बसंत ऋतु में फूलों से लदे हुए पेड़, कमलों से भरा हुआ सरोवर, कामयुक्त नारियां, सुगंधित पवन, सुरभित मंजरियों का मेला लगता है और भंवरों की मधुर गुंजार होने लगती है।Ó
बसंत का मद कवि मतिराम पर ऐसा चढ़ा कि उन्होंने भी उमंग में आकर पद रच डाला। देखें-
मलय समीर लगौ चलन सुगंध सौ सौरो,
पथिकन कोने परदेसन तै आवने।
‘मतिराम’ सुकवि समूहीन सुमन फूले,
कोकिल-मधुप लागे बोलन सुहावने।
आयो है बसंत, भए पल्लवित जलजात,
तुम लागे चालिबब की चरचा चलावने।
रावरी तिया को तरवर, सरवरन के,
किसलै-कमल वहै हैं बारक बिछावने।
कबीर दास ने बीजक में बसंती राग को बड़े ही सरस एवं सहज ढंग से गाया है-
‘जाके बारहमास बसंत हो,
ताके परमारथ बूझे विरला कोय,
मैं आपऊं मेस्तर मिलन तोहि,
रितु वसंत पहिरावहु मोहि।‘
हरिण केशरी नाम से विख्यात सम्राट हर्षवर्धन ने भी बसंत का गुणगान किया है। बसंत को हर कवि ने स्वीकारा है और अपनी अभिव्यक्ति दी है। इसे पुष्प समय, पुष्प मास, ऋतुराज, पिकानंद, कामसखा, फलु, मधु माधव, मधु मास के नामों से भी चित्रित किया गया है। बसंत की इसी अपूर्व महत्ता के कारण ही गीताकार श्रीकृष्ण ने स्वयं को ऋतुओं में श्रेष्ठï बसंत कहा है।
कवि किसी भी युग में हुए हों, ऋतुओं के प्रति उनका आकर्षण सनातन एवं शाश्वत ही होता है। यदि कवि ऋतुओं को न गाये, तो लगता है कि उसकी काव्य प्रतिभा अपूर्ण ही है। हिन्दी के अनेक कवियों ने बसंत को खूब ढंग से और उसके रंग में सराबोर होकर गाया और गुनगुनाया है। उनके इन ललित-पदों में बसंत की जैसे छटा ही उतर आई हो।
धन्य हैं वे कवि जिन्होंने अपनी कविता में बसंत राग का ताना-बाना बुना। इतना ही नहीं इन्होंने काव्य के संयोग व वियोग के पक्ष को भी खूब संजोया है। इन गीतों में वास्तविकता और कल्पना का बड़ा ही सजीव गुंफन किया गया है। बसंत के इन गीतों को, संगीत के ताल-लय में गाने का आनंद ही दूसरा है। सरदार नामक कवि ने तो ऋतुराज बसंत की उपमा राजा से भी बढ़कर महाराजा से की है। इस काव्य प्रतिभा को जरा निरखे तो सही-
संग की सहेली रही पूजत अकेली शिव,
तीन जमुना के बीर चमक चपाई है।
हों तो आई भागत डरत हियरा में धरैं,
तेरे सोच करी मोहिं सोचित सवाई है।
बंचि है वियोगी जोगि जानि सरदार ऐसी,
कंठ से कलित कूक कोकिल कढ़ाई है।
विविध समाज में दराज सी आवाज होति,
आज महाराज ऋतुराज की अवाई है।
क्या ऊंचे सिंहासन पर बैठाया है बसंत को। यह एक स्वीकारणीय तथ्य है कि कोई भी ऋतु हो, मनुष्य का संबंध उससे सनातन काल से चला आ रहा है। सचमुच बसंत तुम… कामदेव के पुत्र हो। बहुत ही सौंदर्यमय है तुम्हारी छवि। (विभूति फीचर्स)
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