(विजय कुमार शर्मा -विभूति फीचर्स)

श्राद्ध की चर्चा होते ही मन में एक पारंपरिक दृश्य उभरता है – पिंडदान, तर्पण, ब्राह्मण भोज,परंतु इन कर्मों के पीछे जो भाव है, वह कहीं अधिक गहरा है। वह है श्रद्धा। श्रद्धा-जो केवल स्मृति नहीं, बल्कि आत्मा की पुकार है।
श्राद्ध का मूल अर्थ है श्रद्धा से किया गया कर्म। यह कर्मकांड नहीं, एक संवेदनशील संवाद है-हमारे और हमारे पूर्वजों के बीच। यह वह क्षण है जब हम मृत्यु को केवल अंत नहीं, बल्कि एक सांस्कृतिक सेतु मानते हैं।
जब कोई पुत्र अपने पिता के लिए जल अर्पित करता है, तो वह जल केवल एक भौतिक अर्पण नहीं होता। वह उस पुत्र की आत्मा से निकली हुई कृतज्ञता की धारा होती है। जब कोई बेटा अपने दादा के नाम से ब्राह्मण को भोजन कराता है, तो वह भोजन केवल अन्न नहीं होता- वह स्मृति का प्रसाद होता है।
श्राद्ध में श्रद्धा होनी चाहिए। श्रद्धा नहीं तो श्राद्ध केवल एक रस्म बनकर रह जाता है और जब श्रद्धा होती है, तो श्राद्ध एक जीवंत अनुभव बन जाता है,जिसमें मृत्यु भी मौन नहीं, बल्कि संवाद करती है।

पूर्वजों की उपस्थिति: अदृश्य, पर सजीव

भारतीय परंपरा में यह विश्वास है कि पूर्वज केवल शरीर छोड़ते हैं, संबंध नहीं। वे हमारे कर्मों में, हमारे संस्कारों में, हमारी स्मृति में जीवित रहते हैं।
– जब हम श्राद्ध करते हैं, तो हम उन्हें आमंत्रित करते हैं।
– यह एक आत्मिक पुनर्मिलन है, जिसमें हम उन्हें कहते हैं- “आप गए नहीं हैं, आप हमारे भीतर हैं।”

श्राद्ध का यह भाव हमें मृत्यु के भय से मुक्त करता है। यह हमें सिखाता है कि जीवन केवल सांसों का नाम नहीं, बल्कि स्मृति और श्रद्धा का विस्तार है।

श्रद्धा: आत्मा की भाषा

श्रद्धा वह शक्ति है जो हमें हमारे मूल से जोड़ती है। यह केवल भाव नहीं, बल्कि एक आंतरिक प्रकाश है।
– यह हमें विनम्र बनाती है, क्योंकि हम जानते हैं कि हम किसी के त्याग की विरासत हैं।
– यह हमें कृतज्ञ बनाती है, क्योंकि हम समझते हैं कि जो कुछ हमें मिला है, वह किसी के तप का फल है।

श्राद्ध के माध्यम से हम उस श्रद्धा को कर्म में बदलते हैं। यह वह क्षण होता है जब धर्म, संस्कृति और आत्मा एकत्रित होते हैं।

आधुनिक संदर्भ में श्राद्ध

आज की भागदौड़ भरी दुनिया में श्राद्ध को अक्सर एक “अनिवार्य रस्म” के रूप में देखा जाता है। लोग पंडित बुलाते हैं, विधि करवाते हैं, भोज कराते हैं-परंतु श्रद्धा कहीं खो जाती है।

श्राद्ध तब ही सार्थक होता है जब वह भीतर से किया जाए, न कि केवल बाहर से।
– जब हम तर्पण करते हैं, तो वह केवल जल नहीं, बल्कि अश्रु और आत्मा का अर्पण होना चाहिए।
– जब हम मंत्र उच्चारित करते हैं, तो वह केवल ध्वनि नहीं, बल्कि भाव और भक्ति की प्रतिध्वनि होनी चाहिए।

श्राद्ध को पुनः श्रद्धा से करना ही आज की आवश्यकता है। तभी यह कर्मकांड नहीं, कर्मयोग बन सकेगा।
संतों ने सदैव कहा है-“जो गया है, वह मिटा नहीं है।” यह वाणी श्राद्ध की आत्मा है।
– जब हम श्राद्ध करते हैं, तो हम उस वाणी को जीते हैं।
– हम मृत्यु को स्वीकारते हैं, परंतु उसे वियोग नहीं, योग मानते हैं।
श्राद्ध वह अवसर है जब हम संतों की वाणी को कर्म में बदलते हैं। यह वह क्षण है जब हम अपने जीवन को धार्मिक नहीं, आध्यात्मिक बनाते हैं। (विभूति फीचर्स)

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