(पवन वर्मा-विनायक फीचर्स)
भारत की सभ्यता की जड़ें केवल मिट्टी में नहीं, बल्कि उस चेतना में हैं जो करुणा, सहअस्तित्व और संवेदनशीलता को जीवन का सार मानती है। उस चेतना का सबसे जीवंत प्रतीक गाय है। जो केवल एक पशु नहीं, बल्कि भारतीय मन, माटी और धर्म का नितांत अभिन्न अंग है। वह खेतों की हरियाली में, लोकगीतों की धुन में, और हमारे उत्सवों के उल्लास में बराबरी से सहभागी रही है। उसे ‘माता’ कहा गया, और यह केवल श्रद्धा नहीं थी। यह उस संबंध की अभिव्यक्ति थी जो जीवन, प्रकृति और मानव के बीच संतुलन को सबसे स्वाभाविक रूप में दिखाता है।
वैदिक दृष्टि और सांस्कृतिक सभ्यता ऋग्वेद का मंत्र “गावो विश्वस्य मातरः” केवल धार्मिक उद्घोष नहीं, बल्कि सहअस्तित्व की सर्वोच्च घोषणा है। गाय को ‘विश्वमाता’ कहना यह मानना है कि पोषण और करुणा, धर्म और जीवन, एक-दूसरे से विलग नहीं। भारतीय चिंतन में गाय वह माध्यम रही जिससे ग्रामीण समाज में आत्मनिर्भरता आती है, खेत उपजाऊ बनते हैं और परिवार समृद्ध होता है। महाभारत में कहा गया है- “गावः सर्वसुखप्रदाः,” अर्थात गायें समस्त सुख देनेवाली हैं। यह सुख केवल भौतिक नहीं, बल्कि सामाजिक और नैतिक भी है।
गोपालन, केवल दुग्ध उत्पादन का साधन नहीं, बल्कि एक जीवन-दर्शन है। जिसमें त्याग, सेवा और संतुलन का भाव निहित है। मध्यप्रदेश इस दृष्टि से भारत का एक जीवित उदाहरण है। जहाँ परंपरा, नीति और ग्रामीण जीवन एक-दूसरे में रचे-बसे हैं।
नर्मदा की पवित्रता, मालवा की मिट्टी की सुगंध और बुंदेलखंड के लोकगीतों में ‘गोविंद’ और ‘गौ’ की भावना सहज रूप में प्रकट होती है। यहाँ की संस्कृति में गोपालन केवल कर्मकांड नहीं, बल्कि अस्तित्व का हिस्सा रहा है। मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव की सरकार ने इस परंपरा को केवल धार्मिक आयोजन के सीमित दायरे से निकालकर नीति की मुख्यधारा में स्थापित किया है।
उन्होंने गाय को न केवल श्रद्धा का विषय माना, बल्कि ग्रामीण अर्थव्यवस्था के स्थायी स्तंभ के रूप में देखा। ‘गौशाला विकास’, ‘गोवर्धन पूजा’ और ‘गोपालन संवर्धन’ जैसे कार्यक्रमों के माध्यम से यह दृष्टि क्रियान्वित होती दिख रही है।

परंपरा से नीति तक की यात्रा

जहाँ पहले गोवर्धन पूजा केवल घर-आँगन का धर्मिक उत्सव थी, वहीं अब यह मध्यप्रदेश में सामूहिक संकल्प का प्रतीक बन चुकी है। 21 और 22 अक्टूबर, 2025 को राज्यभर में जिस भव्यता से यह पर्व मनाया गया, उसने यह संदेश दिया कि शासन और संस्कृति के बीच कोई विभाजन रेखा नहीं रहनी चाहिए। मुख्यमंत्री डॉ. यादव ने इस पर्व को राज्यव्यापी स्वरूप देते हुए ‘गौशाला’ को ग्रामीण अर्थव्यवस्था का केंद्र घोषित किया। यह कदम प्रशासनिक दृष्टि से उतना ही दूरदर्शी है जितना सांस्कृतिक रूप से गहरे अर्थों वाला। उन्होंने यह स्पष्ट किया कि गाय अब केवल पूजा की मूर्ति नहीं, बल्कि ग्रामीण स्वावलंबन, पर्यावरण संरक्षण और सतत विकास की धुरी है।

नई ग्रामीण अर्थव्यवस्था का केंद्र
आज मध्यप्रदेश की गौशालाएँ केवल आश्रय स्थल नहीं रहीं। वे ग्रामीण जीवन के आत्मनिर्भर मॉडल के रूप में विकसित हो रही हैं। गोबर और गौमूत्र आधारित जैविक खेती, वर्मी-कम्पोस्ट निर्माण, पंचगव्य उत्पादों तथा गोबर गैस संयंत्रों ने गाय को कृषि और उद्योग के संगम में पुनः प्रतिष्ठित किया है। यह परिवर्तन केवल आर्थिक नहीं, बल्कि दार्शनिक भी है, क्योंकि यह उस विचार का पुनर्जागरण है जिसमें प्रकृति का दोहन नहीं, उसका संवर्धन होता है। गौशालाएँ अब ग्रामीण जनजीवन की प्रयोगशालाएँ हैं, जहाँ सामाजिक आस्था, पर्यावरणीय संरक्षण और आजीविका का समन्वय एक साथ दिखाई देता है। महाभारत के अनुशासन पर्व में कहा गया है कि “गावः सर्वं प्राप्यते लोके”, अर्थात गाय से संसार के सभी श्रेष्ठ लाभ प्राप्त होते हैं। यह आज के संदर्भ में और भी प्रासंगिक है। जैविक खेती को बढ़ावा देने से लेकर जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को कम करने तक, गाय आधुनिक पारिस्थितिकी का अभिन्न हिस्सा बन चुकी है।

गोवर्धन पूजा का सामाजिक रूपांतरण

गोवर्धन पूजा अब केवल धार्मिक विधि नहीं रही। यह अब ‘नीति और लोक’ के संगम का अवसर बन चुकी है। जब प्रशासन, समाज और संस्कृति एक साथ किसी पर्व को मनाते हैं, तब वह अनुष्ठान से आगे बढ़कर नीतिगत उद्घोषणा बन जाता है। राज्य के प्रत्येक जिले, गाँव और पंचायत स्तर पर आयोजित गोवर्धन पर्व में जब अधिकारी, किसान, महिलाएँ और विद्यार्थी एक मंच पर आए, तो यह सामाजिक साझेदारी की अनूठी मिसाल बनी। यह आयोजन एक प्रकार से ‘सांस्कृतिक जननीति’ का उदाहरण है, जो विश्वास दिलाता है कि धर्म और विकास विरोधी नहीं, बल्कि पूरक हैं।

पर्यावरण और आत्मनिर्भरता की नयी दिशा
‘गोपालन संवर्धन योजना’ के तहत पंचगव्य आधारित उद्योग और जैविक उत्पादों के निर्माण ने गाँवों में नए अवसर खोले हैं। गोबर से ऊर्जा, खाद और औषधि का निर्माण ग्रामीण भारत की उस परंपरा का पुनर्जीवन है जो आत्मनिर्भरता और सतत जीवनशैली पर आधारित थी।मध्यप्रदेश में अब कई गौशालाओं ने गोबर गैस संयंत्रों के ज़रिए न केवल ऊर्जा संकट को घटाया है, बल्कि स्थानीय स्तर पर बिजली और ईंधन का भी उत्पादन प्रारंभ किया है। इससे पर्यावरण प्रदूषण घटा है और ग्रामीण समुदायों की आर्थिक बचत भी हुई है। यही वह दृष्टिकोण है जिसमें ‘धर्म नीति बनता है और नीति धर्म का विस्तार करती है।’

शासन और संस्कृति का अभिन्न संबंध

इतिहास इस बात का साक्षी है कि जब राज्य व्यवस्था अपने सांस्कृतिक मूल्यों से जुड़ी रहती है, तब समाज की स्थिरता और विकास साथ-साथ चलते हैं। गाय का संरक्षण, केवल एक प्रशासनिक योजना नहीं, बल्कि ‘संवेदनशील शासन’ की पहचान है। मध्यप्रदेश की यह पहल राजनीतिक अर्थों में नहीं, बल्कि मानवीय संवेदना के धरातल पर खड़ी है। मुख्यमंत्री डॉ. यादव ने जिस प्रकार गौशालाओं को नीति के केंद्र में रखा, उसने यह सिद्ध किया कि विकास मात्र निर्माण नहीं, बल्कि सभ्यता की आत्मा की रक्षा भी है। अथर्ववेद का श्लोक “गोभिः प्रजाः सुवृता भवन्ति” आज इसी नीति में साकार होता दिखता है। जब गाँवों में गाय की सेवा के माध्यम से जैविक खेती, प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण और सामाजिक सहभागिता बढ़ती है, तब यह श्लोक केवल प्रार्थना नहीं, बल्कि नीति का प्रत्यक्ष रूप बन जाता है।

भारतीयता की परम्परा
गाय की सेवा का अर्थ केवल दूध का संग्रह या धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि उस सोच का पुनर्पाठ है जो कहती है कि मनुष्य और प्रकृति प्रतियोगी नहीं, सहचर हैं। यह दर्शन भारतीयता का मूल है। हमारे यहाँ अर्थ और धर्म कभी एक-दूसरे के विरोधी नहीं रहे। आज, जब वैश्विक स्तर पर ‘सस्टेनेबिलिटी’ का विमर्श बढ़ रहा है, तब भारत की यह परंपरा आधुनिक विकास का आधार बन सकती है। गाय, गौशाला और गोवर्धन पूजा इस सोच का जीवंत उदाहरण हैं कि परंपरा केवल अतीत का बोझ नहीं, बल्कि भविष्य का मार्गदर्शन भी है। ग्रामीण पुनर्जागरण की ओर मध्यप्रदेश की ‘गौ कथा’ अब केवल संस्कृति की रक्षा नहीं, बल्कि ग्रामीण पुनर्जागरण का संग्राम बन चुकी है। आज गाँवों में नयी पीढ़ी समझ रही है कि गोबर सिर्फ अपशिष्ट नहीं, बल्कि संसाधन है। गौमूत्र औषधि का स्रोत है। गाय केवल खेत की सहचरी नहीं, बल्कि पर्यावरण की प्रहरी है। सरकार ने जब इन पहलों को आर्थिक प्रशिक्षण और अनुसंधान से जोड़ा, तब यह योजना आत्मनिर्भर भारत की भावना के अनुरूप बन गई। यह वही आत्मनिर्भरता है जिसके केंद्र में स्वदेशी, स्वावलंबन और स्वाभिमान तीनों समाहित हैं।
धर्म और विकास का संगम

स्कन्दपुराण में कहा गया है- “गावो मां पातु सर्वतः,” अर्थात गाय मेरी सर्वत्र रक्षा करे। यह केवल धार्मिक आस्था नहीं, बल्कि सामाजिक तंत्र का सूत्रवाक्य है, जो बताता है कि जो समाज गाय की रक्षा करता है, उसकी रक्षा स्वयं धर्म करता है। जब शासन इस सिद्धांत को अपनाता है, तो नीति में केवल आर्थिक लक्ष्य नहीं रहते, बल्कि लोककल्याण की भावना जुड़ जाती है। मध्यप्रदेश ने यह दर्शाया है कि धर्म और नीति, भावनाएँ और प्रशासन, परंपरा और तकनीकी नवाचार सब साथ चल सकते हैं, यदि दृष्टि संवेदनशील और दिशा स्पष्ट हो।

संस्कृति से समृद्धि
21वीं सदी का भारत एक ऐसे दोराहे पर है जहाँ उसे विकास और पर्यावरण के बीच संतुलन बनाना है। मध्यप्रदेश का ‘गौशाला मॉडल’ इस चुनौती का भारतीय उत्तर प्रस्तुत करता है। यहाँ विकास, संस्कृति से पोषण लेता है और संस्कृति विकास से दिशा। जैविक खाद, पंचगव्य औषधियाँ, गोबर गैस संयंत्र और पशुधन आधारित उद्योग न केवल अर्थव्यवस्था को गति देते हैं, बल्कि प्रदूषण को भी घटाते हैं। यह आधुनिक अर्थशास्त्र का भारतीय संस्करण है जो बताता है कि लाभ और लोककल्याण में संघर्ष नहीं, संगति संभव है।

संवेदनशील शासन की नई पहचान
मध्यप्रदेश की इस पहल ने यह भी सिद्ध किया है कि शासन केवल कानून लागू करने की प्रक्रिया नहीं, बल्कि जीवनमूल्यों को संरक्षित रखने की प्रक्रिया भी है। जब नीति करुणा और संस्कृति से संलिप्त होती है, तब वह ‘शासन’ नहीं, ‘सेवा’ बन जाती है। गोवर्धन पूजा का व्यापक आयोजन केवल प्रशासनिक दक्षता का उदाहरण नहीं, बल्कि उस भावनात्मक एकता का प्रतीक है जो समाज और सरकार को एक सूत्र में बांधती है। जब पंचायत स्तर पर अधिकारी स्वयं गोसेवा में भाग लेते हैं, तब यह कार्यक्रम धार्मिकता से आगे बढ़कर लोकनीति बन जाता है।

गाय भारतीय जीवन का प्रतीक
“गावो धनं गावो मे जीवनं” गोपालसहस्रनाम का यह श्लोक गाय की भूमिका को सर्वोच्च पद पर प्रतिष्ठित करता है। गाय न केवल धन है, बल्कि जीवन का पर्याय है। गाँव की आत्मा उसके साथ बसती है। खेत की उपज, परिवार की आराधना और समाज की स्थिरता, तीनों उसकी उपस्थिति से आलोकित होती हैं।आज जब शहरी केंद्रों में जीवन उदासीनता और भौतिकता में उलझा है, तब मध्यप्रदेश का ग्रामीण भारत गाय के माध्यम से पुनः अपनी जड़ों से जुड़ता हुआ दिखता है। यह दृश्य केवल धार्मिक पुनर्जागरण नहीं, बल्कि सांस्कृतिक आत्मस्मरण का संकेत है।

नीति, संस्कृति और संवेदना का संगम

गाय, गोविंद और गौशाला। ये तीन शब्द केवल परंपरा का प्रतीक नहीं, बल्कि भारतीय सभ्यता की त्रिविध आत्मा हैं। इनका संगम यह सिखाता है कि विकास तब ही टिकाऊ हो सकता है जब वह संस्कृति से प्रेरित और समाज से जुड़ा हो।मध्यप्रदेश ने यह सिद्ध किया है कि धर्म और शासन का मेल किसी टकराव का नहीं, बल्कि सृजन का माध्यम है। यहाँ गोवर्धन पूजा, गौशाला विकास और गोपालन संवर्धन केवल कार्यक्रम नहीं, बल्कि नीति का वह रूप हैं जो “सस्टेनेबल डेवलपमेंट” को भारतीय आत्मा देता है। जब शासन संवेदनशील और दूरदर्शी होता है, तो वह केवल योजना नहीं बनाता,वह जीवन को गढ़ता है, संस्कृति की रक्षा करता है, और समाज को दिशा देता है। यही वह संदेश है जो गाय, गोविंद और गौशाला से निकलता है कि संवेदनशील विकास ही सच्चा धर्म है, और धर्मसम्मत नीति ही सच्चा विकास है। (विनायक फीचर्स)

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