(विजय कुमार शर्मा – )
अहोई अष्टमी मुख्यतः भारत के उत्तरी क्षेत्रों में मनाया जाता है। यह पवित्र दिन अहोई माता की पूजा के लिए समर्पित है, जो बच्चों की रक्षा करती हैं। इस दिन माताएं अपने बच्चों की लंबी उम्र, स्वास्थ्य और खुशहाली की कामना करते हुए व्रत करती हैं। अहोई अष्टमी का व्रत अत्यंत महत्वपूर्ण माना जाता है और इसमें गहरी धार्मिक और सांस्कृतिक परंपराएं जुड़ी हुई हैं।
अहोई अष्टमी का व्रत सूर्योदय से शुरू होकर चंद्रमा के दर्शन तक चलता है। इस दिन माताएं निर्जला व्रत करती हैं, यानी पूरे दिन कुछ नहीं खातीं और अपने बच्चों की भलाई के लिए अहोई माता से प्रार्थना करती हैं।
अहोई अष्टमी की कथा एक ऐसी साहूकार की पत्नी की कहानी है, जिसके सात बेटों की मृत्यु हो जाती है क्योंकि उसने अनजाने में एक स्याही के बच्चे को मार दिया था। पश्चाताप के तौर पर उसने अहोई माता की पूजा की और उनके आशीर्वाद से उसके सभी सात बेटे जीवित हो गए, जिसके बाद संतान की लंबी उम्र और सुरक्षा के लिए यह व्रत रखने की परंपरा शुरू हुई।
अहोई अष्टमी की कथा
प्राचीन काल में एक साहूकार रहता था जिसके सात बेटे और सात बहुएं थीं। एक दिन, दीपावली के आसपास घर को लीपने के लिए मिट्टी लेने साहूकार की सात बहुएं और उसकी बेटी जंगल गई। मिट्टी खोदते समय साहूकार की बेटी की खुरपी से गलती से एक स्याही (साही) के बच्चे की मृत्यु हो गई।
इस घटना से स्याही बहुत क्रोधित हुई और उसने साहूकार की बेटी को श्राप दिया, “जिस प्रकार तुमने मेरे बच्चे को मारकर मुझे निसंतान किया, उसी प्रकार मैं भी तुम्हें निसंतान कर दूंगी”। इसके बाद, साहूकार की बेटी की संतान एक-एक करके मर जाती थी, जिससे साहूकार के घर पर दुखों का पहाड़ टूट गया।
इस दुख से दुखी होकर, साहूकार की पत्नी एक सिद्ध महात्मा के पास गई और उन्हें अपनी पूरी कहानी बताई। महात्मा ने उसे अहोई अष्टमी के दिन माता अहोई की आराधना करने की सलाह दी। उन्होंने कहा कि साही और उसके बच्चों का चित्र बनाकर और गलती के लिए क्षमा मांगते हुए माता की पूजा करें।
साहूकार की पत्नी ने महात्मा के कथानुसार अहोई अष्टमी का व्रत रखा और माता की पूजा की। इस व्रत के प्रभाव से उसके सभी सात पुत्र फिर से जीवित हो गए।
व्रत का महत्व
अहोई अष्टमी के दिन माताएं अपने बच्चों की लंबी उम्र और सुख-समृद्धि के लिए निर्जला उपवास रखती हैं. शाम के समय तारे निकलने पर अहोई माता की पूजा की जाती है, जिसके बाद कथा सुनकर व्रत खोला जाता है।
अहोई के चित्रांकन में अधिकतर आठ कोष्ठक की एक पुतली बनाई जाती है। उसी के पास साही तथा उसके बच्चों की आकृतियाँ बना दी जाती हैं। करवा चौथ के ठीक चार दिन आगे अष्टमी तिथि को देवी अहोई माता का व्रत किया जाता है। यह व्रत सन्तान की लम्बी आयु और सुखमय जीवन की कामना से पुत्रवती महिलाएं करती हैं। कार्तिक मास की अष्टमी तिथि को कृष्ण पक्ष में यह व्रत रखा जाता है इसलिए इसे अहोई अष्टमी के नाम से भी जाना जाता है।
इस पर्व की पूजा विधि भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में अलग अलग हो सकती है, लेकिन मुख्य भाव समान रहता है। माताएं अहोई माता की तस्वीर या मूर्ति के साथ पूजा का चौक सजाती हैं। पूजा में ‘कलश’ रखा जाता है, प्रसाद के लिए आटे और चीनी से बनी मिठाइयों का भी निर्माण किया जाता है।
माताएं अपने बच्चों को अहोई माता से जुड़ी कथाएं और लोककथाएं सुना कर परिवार और समाज के अन्य सदस्यों के साथ चंद्रमा के दर्शन करके अपने व्रत को पूर्ण करती हैं। (विभूति फीचर्स)