(विवेक रंजन श्रीवास्तव -विभूति फीचर्स)
महाकाल की नगरी उज्जैन बाबा महाकाल, देवी हरसिद्धि, चिंतामणि श्री गणेशजी के साथ ही कर्म, न्याय और मोक्ष की गहरी अवधारणाओं से जुड़े भगवान श्री चित्रगुप्त मंदिर के कारण भी विशेष पहचान रखती है। क्षिप्रा नदी के पवित्र तट रामघाट, अंकपात क्षेत्र में स्थित यह मंदिर उन विरले तीर्थों में गिना जाता है, जहाँ मृत्यु के बाद मिलने वाले न्याय, कर्मों के लेखा-जोखा और मोक्ष की परंपरा को महसूस किया जा सकता है। प्राचीन अवंति या उज्जयिनी की इस तपोभूमि को भगवान श्री चित्रगुप्त की साधना का स्थल माना जाता है, जहाँ उन्होंने तपस्या कर सर्वज्ञता और समस्त जीवों के कर्मों का लेखा रखने की दिव्य शक्ति प्राप्त की थी।
मान्यता के अनुसार, सृष्टि की रचना के समय भगवान ब्रह्मा ने दीर्घ तपस्या के दौरान अपने ही मन में अंकित एक दिव्य पुरुष की कल्पना की, वह चित्र मन के अंतरतम में गुप्त हो गया, इसी से “चित्रगुप्त” नाम की उत्पत्ति मानी जाती है।
ब्रह्मा ने इस दिव्य पुरुष को आदेश दिया कि वे महाकाल की नगरी उज्जैन जाकर कठोर तपस्या करें और मानव कल्याण के लिए ऐसी शक्तियाँ अर्जित करें, जिनसे वे समस्त प्राणियों के पाप पुण्य और कर्मों का सूक्ष्मतम लेखा रख सकें। लोक परंपरा में यही स्थान आगे चलकर श्री चित्रगुप्त धाम , धर्मराज चित्रगुप्त मंदिर के रूप में प्रतिष्ठित हुआ । आज भी भगवान श्री चित्रगुप्त की प्रतिमा को एक हाथ में कर्मों की पुस्तक और दूसरे हाथ से लेखा करते हुए दर्शाया गया है।
उज्जैन का यह मंदिर उत्तर भारतीय नागर शैली की परंपरागत रचना लिए हुए है, जिसमें गर्भगृह, मंडप और ऊँचा शिखर प्रमुख रूप से दिखाई देते हैं। गर्भगृह में स्थापित भगवान चित्रगुप्त की मूर्ति को सफेद संगमरमर की शांत, गंभीर और न्यायमूर्ति भाव वाली प्रतिमा के रूप में वर्णित किया जाता है, जो भक्तों को अपने कर्मों के प्रति सजग रहने की प्रेरणा देती है। रामघाट स्थित धर्मराज श्री चित्रगुप्त मंदिर में यमराज, धर्मराज और यमुना के साथ चित्रगुप्त की संयुक्त उपासना की परंपरा भी मिलती है, जिससे यह स्थल मृत्यु, धर्म, पवित्रता और न्याय , इन चारों के अनूठे संगम के रूप में देखा जाता है।
कथाओं के अनुसार, उज्जैन के इसी क्षेत्र में भगवान चित्रगुप्त ने दीर्घकालीन तप कर वह दिव्य शक्ति पायी, जिसके बल पर वे यमलोक में प्रत्येक आत्मा के लोक-परलोक के कर्मों का खाता तैयार करते हैं। इसी कारण यहाँ आने वाले श्रद्धालु केवल पूजा ही नहीं, बल्कि आत्म-मंथन, अनुशासित जीवन और सत्यनिष्ठ आचरण का संकल्प भी करते हैं ताकि मृत्यु के बाद उनके पक्ष में उत्तम लेखा लिखा जाए। कायस्थ समाज, जो श्री चित्रगुप्त को अपना आदि देव और कुलदेव मानता है, इस मंदिर को ‘कायस्थों के चार धाम’ के रूप में अग्रणी स्थान देता है , और कार्तिक शुक्ल द्वितीया (चित्रगुप्त पूजा ,यम द्वितीया) पर यहाँ विशेष अनुष्ठानों, लेखनी, बही की पूजा और सामाजिक कार्यक्रमों के माध्यम से अपनी सांस्कृतिक एकता को व्यक्त करता है।
उज्जैन के धर्मराज चित्रगुप्त मंदिर से कई जीवंत लोककथाएँ भी जुड़ी हैं, जो इसके आध्यात्मिक महत्व को बढ़ाती हैं। एक प्रसिद्ध मान्यता यह है कि वनवास के बाद भगवान राम ने शिप्रा तट पर इसी क्षेत्र में आकर धर्मराज चित्रगुप्त की विशेष पूजा की और अपने पिता दशरथ सहित पूर्वजों का तर्पण कर पितृऋण से मुक्ति की प्रार्थना की थी। इसीलिए आज भी बहुत से लोग यह विश्वास लेकर आते हैं कि शिप्रा में स्नान और चित्रगुप्त मंदिर में विधिवत पूजा तर्पण से पितृदोष शांत होता है और पूर्वजों की आत्माओं को शांति और उन्नति प्राप्त होती है।
आधुनिक समय में इस मंदिर की एक अत्यंत विशिष्ट और चमत्कारिक मानी जाने वाली लोकपरंपरा ने भी लोगों का ध्यान खींचा है। यहाँ ऐसे अनेक श्रद्धालु पहुँचते हैं जो असहनीय रोग, दीर्घकालीन पीड़ा या जीवन मृत्यु के संघर्ष में उलझे अपने परिजनों के लिए या तो चमत्कारिक स्वास्थ्य लाभ की प्रार्थना करते हैं या फिर शांत, पीड़ामुक्त मृत्यु के रूप में मोक्ष का वरदान माँगते हैं।
प्रचलित विश्वास यह है कि सच्ची आस्था से की गई विशेष पूजा के बाद चौबीस घंटे के भीतर या तो कष्टों से राहत मिलती है या फिर अत्यंत शांतिपूर्ण प्रस्थान का मार्ग खुल जाता है, इसलिए इसे कई लोग रूपक रूप में “मौत का वरदान” माँगने वाला मंदिर भी कहने लगे हैं, जबकि भक्त इसे वास्तव में “मोक्ष और कष्टमुक्ति” की याचना मानते हैं।
स्थानीय परंपरा में यह धारणा भी प्रचलित है कि इस मंदिर के ऊपर से कर्क रेखा गुजरती है, जो इसे ज्योतिषीय दृष्टि से विशेष ऊर्जा क्षेत्र बनाती है और ग्रहदोषों, विशेषकर कालसर्प, राहु- केतु आदि के समाधान के लिए यहाँ दीपदान और विशेष पूजा कराई जाती है। कई पीढ़ियों से यहाँ सेवा कर रहे पुरोहितों के अनुसार रामघाट का यह मंदिर सैकड़ों वर्षों से नियमित पूजा अर्चना का केंद्र है, और उनके वंश द्वारा सत्रहवीं, अठारहवीं शताब्दी से यहाँ आराधना किए जाने के प्रमाण मिलते हैं। समय समय पर मंदिर का जीर्णोद्धार, नई प्रतिमाओं की प्राणप्रतिष्ठा और ट्रस्ट के गठन जैसी प्रक्रियाएँ भी हुईं, जिनके कारण इसे “श्री चित्रगुप्त धाम” के रूप में व्यवस्थित धार्मिक केंद्र का रूप मिला।
समग्र रूप से देखें तो उज्जैन का श्री चित्रगुप्त मंदिर केवल एक देवालय भर नहीं, बल्कि भारतीय धर्मदर्शन के “कर्म सिद्धांत” का जीवंत विद्यालय है, जहाँ हर दर्शन यह स्मरण कराता है कि मृत्यु के बाद न्याय निश्चित है और उसका आधार हमारे अपने कर्म ही हैं। महाकालेश्वर, कालभैरव और शक्तिपीठों के साथ स्थित यह धाम उज्जैन की बहुरंगी आध्यात्मिक विरासत में उस कड़ी के रूप में जुड़ता है जो भक्ति के साथ-साथ जिम्मेदार, न्यायपूर्ण और नैतिक जीवन जीने की प्रेरणा देती है । इसलिए जब यह कहा जाता है कि “स्वयं भगवान चित्रगुप्त ने यहाँ तपस्या की थी”, तो इसके पीछे वही भाव निहित है कि यह स्थल मनुष्य को अपने भीतर के न्यायाधीश, अपने ही ‘चित्रगुप्त’ को जगाने की प्रेरणा देता है।
यह मंदिर न केवल कायस्थों के लिए बल्कि समूचे हिंदू समाज,पौराणिक,ऐतिहासिक,पुरातत्व एवं पर्यटन हर दृष्टि से जन महत्व की विरासत है। (विभूति फीचर्स)








