(इंजी. विवेक रंजन श्रीवास्तव-विभूति फीचर्स)

रामचरित मानस विश्व का ऐसा महान ग्रंथ है, जिसे शोध की जिस दृष्टि से देखा जावे, तो अध्येता इतना कुछ पाता है, कि वह उसे चमत्कृत कर देने को पर्याप्त होता है। रामचरित मानस की मूल कथा में अयोध्या, जनकपुर, लंका, चित्रकूट, नन्दीग्राम, श्रृंगवेरपुर, किष्किंधा, कैकेय, कौशल आदि नगरों तथा राज्यों का वर्णन मिलता है। गोस्वामी तुलसीदास जी ने अवधपुरी का वर्णन करते हुए लिखा है :-

अयोध्या –

बंदऊ अवधपुरी अति पावनि । सरजू सरि कालि कलुष नसावनि ॥(प्रसंग : वन्दना,बालकाण्ड 1/16)

अवधपुरी सोइहि एहि भाँती । प्रभूहि मिलन आई जनु राती ॥(प्रसंग : रामजन्म बालकाण्ड 2/195)

इसी तरह रामविवाह के प्रसंग में भी अयोध्या का वर्णन मिलता है

जद्यपि अवध सदैव सुहावनि ।
रामपुरी मंगलमय पावनि ॥
तदपि प्रीति कै प्रीति सुहाई ।
मंगल रचना रची बनाई ॥(बालकाण्ड 3/296)

इसी प्रसंग में गोस्वामी जी लिखते है कि रामविवाह की प्रसन्नता में, माँ सीता के नववधू के रूप में स्वागत हेतु अयोध्यावासियों ने अपने घर सजा कर अपनी भावनायें इसी तरह अभिव्यक्त की।

मंगलमय निज-निज भवन,
लोगन्ह रचे बनाई ।
बीथी सींची चतुर सम,
चौके चारू पुराई ॥ (बालकाण्ड 296)

राजा दशरथ के देहान्त एवं राम वन गमन के प्रसंग में भी अयोध्या के राजमहल का वर्णन मिलता है :-

गए सुमंत तब राउर माही।
देखि भयावन जात डेटाही ॥(राउर अर्थात राजमहल)
(अयोध्या काण्ड 2/38)

अयोध्या का नगर एवं प्रासाद वर्णन पुनः उत्तर काण्ड में मिलता है, जब श्रीराम वनवास से लौटते है।

बहुतक चढ़ी अटारिन्ह निरखहि गगन विमान । देखि मधुर सुर हरषित करहिं सुमंगल गान ॥(उत्तरकाण्ड /3 ख)

जद्यपि सब बैकुण्ठ बखाना। वेद पुरान विदित जग जाना।
अवधपुरी सम प्रिय नहीं सोऊ । यह प्रसंग जानड़ कोऊ कोऊ ॥ (उत्तरकाण्ड 2/4)

जन्मभूमि मम पुरी सुहावनि । उत्तर दिसि बह सरयू पावनि ।(उत्तरकाण्ड 3/4)

रामराज्य के वर्णन के प्रसंग के अंतर्गत भी अवधपुरी के भवनों, सड़कों, बाजारों का विवरण मिलता है।

जातरूप मनि रचित अटारी । नाना रंग रूचिर गच ढारी ॥
पुर चहुं पास कोट अति सुन्दर । रचे कंगूरा रंग-रंग बर ॥

स्वर्ण और रत्नों से बनी हुई अटारियां है। उनमें मणि, रत्नों की अनेक रंगों की फर्श ढली है। नगर के चारों ओर सुन्दर परकोटा है। जिस पर सुन्दर कंगूरे बने है।

नवग्रह निकर अनीक बनाई । जनु घेरी अमरावति आई ॥ मानों नवग्रहों ने अमरावति को घेर रखा हो।
धवल धाम ऊपर नभ चुंबत । कलस मनहुँ रवि ससि दुति निंदत ॥

उज्जवल महल ऊपर आकाश को छू रहें है, महलों के कलश मानो सूर्य-चंद्र की निंदा कर रहे है, अर्थात उनसे ज्यादा शोभायमान है।
मनि दीप राजहिं भवन भ्राजहिं देहरी विदुम रची ।मनि खंब भीति, विरंचि विचि कनक मनि मरकत खची ।
सुंदर मनोहर मंदिरायत अजिर रूचिर फटिक रचे । प्रति द्वार-द्वार कपाट पुरटं बनाई बहु बज्रहिं खचे ॥

घरों में मणियों के दीपक हैं। मूंगों की देहरी है। मणियों के खम्बे हैं।पन्नों से जड़ित दीवारें ऐसी है, मानों उन्हें स्वयं ब्रह्मा जी ने बनाया हो। महल मनोहर और विशाल है। उनके आगंन संगमरमर के है। दरवाजे सोने के हीरे लगे हुये है।
चारू चित्रसाला गृह-गृह प्रति लिखे बनाई ।
राम चरित जे निरख मुनि, ते मन लेहि चौटराई ॥
सुमन बाटिका सबहिं लगाई।
विविध भाति करि जतन बनाई ॥

घर-घर में सुन्दर चित्रांकन कर राम कथा वर्णित है। सभी नगरवासियों ने घरों में पुष्प वाटिकायें भी लगा रखी है।

छंद-
बाजार रूचिर न बनई बरनत वस्तु बिनु गथ पाइये । जह भूप रमानिवास तह की संपदा किमि गाइये । बैठे बजाज, सराफ बनिक, अनेक मनहुँ कुबेर ते । सब सुखी, सब सच्चरित सुंदर, नारि नर सिसुजख ते ।।

सुन्दर बाजारों में कपड़े के व्यापारी, सोने के व्यापारी, वणिक आदि इस तरह से लगते है, मानो कुबेर बैठे हों। सभी सदाचारी और सुखी है। इसी तरह सरयू नदी के तट पर स्नान एवं जल भरने हेतु महिलाओं के लिए अलग पक्के घाट की भी व्यवस्था अयोध्या में थी

दूटि फराक रूचिर सो घाटा, जहं जल पिअहिं बाजि गज ठाटा । पनिघट परम् मनोहर नाना, तहाँ न पुरूष करहि स्नाना ।। (उत्तरकाण्ड 1/29)

जल व्यवस्था हेतु बावड़ी एवं तालाब भी अयोध्या में थे। सार्वजनिक बगीचे भी वहाँ थे।

पुर शोभा कछु बरनि न जाई । बाहेर नगर परम् रुचिराई । देखत पुरी अखिल अध भागा। बन उपबन बाटिका तड़ागा।। (उत्तरकाण्ड 4/29)

इस प्रकार स्थापत्य की दृष्टि से अयोध्या एक सुविचारित दृष्टि से बसाई गई नगरी थी। जहाँ राजमहल बहुमंजिले थे। रनिवास अलग से निर्मित थे। रथ, घोड़े, और हाथियों के रखने हेतु अलग भवन थे। आश्रम और यज्ञशाला अलग निर्मित थी। पाकशाला अलग बनी थी। शहर में पक्की सड़कें थी। आम नागरिकों के घरों में भी छोटी सी वाटिका होती थी। घर साफ सुथरे थे, जिनकी दीवारों पर चित्रांकन होता था। शहर में सार्वजनिक बगीचे थे। जल स्रोत के रूप में बावड़ी, तालाब, स्त्री एवं पुरुषों हेतु अलग-अलग पक्के घाट एवं कुंए थे। नगर सरयू तट पर बसा हुआ था,ऐसा वर्णन तुलसीदास जी ने किया है।

जनकपुरी

मानस में वर्णित दूसरा बड़ा नगर मिथिला अर्थात जनकपुरी है।

जिसका वर्णन करते हुये गोस्वामी जी ने लिखा है कि –

बनई न बरनत नगर निकाई। जहाँ जाई मन तहंइ लाभाई ॥ (उत्तरकाण्ड 1/213)

जनकपुर का वर्णन धनुष यज्ञ एवं श्रीराम सीता विवाह के प्रसंग में सविस्तार मिलता है।

जनकपुर में बाजार का वर्णन –

धनिक बनिक वर धनद समाना।बैठे सकल वस्तु लै नाना।
चौहर सुंदर गलीं सुहाई । संतत रहहिं सुगंध सिंचाई ॥

अर्थात यहाँ चौराहे, सड़के सुंदर है, जिनमें सुगंध बिखरी है। सुव्यवस्थित बाजारों में वणिक विभिन्न वस्तुयें विक्रय हेतु लिये बैठे है।

मंगलमय मंदिर सब केरे । चित्रित जनु रतिनाथ चितेरे ।
अर्थात, सभी घरों पर सुंदर चित्रांकन होता था।
भवनों के दरवाजों पर परदे होते थे। किवाड़ों पर सुन्दर नक्काशी और रत्न जड़े होते थे-

सुभग द्वार सब कुलिस कपाटा।भूप भीट नट मागध आटा ।
सेनापति, मंत्रिगण आदि के घर भी महल की ही तरह सुन्दर और बड़े थे। घुड़साल, गजशाला, अलग बनी थीं। धनुष यज्ञ हेतु एक सुन्दर यज्ञशाला नगर के पूर्व में बनाई गई थी। जहां लंबा चौड़ा आंगन एवं बीच में बेदी बनाई गई थी। चारों ओर बड़े-बडे मंच बने थे। उनके पीछे दूसरे मकानों का घेरा था। पुष्पवाटिका जहां पहली बार श्रीराम का सीताजी से साक्षात्कार हुआ था, का वर्णन भी गोस्वामी जी रचित मानस में मिलता है। वटिका में मंदिर भी है। बाग के बीचों बीच एक सरोवर है। सरोवर में पक्की सीढ़ियां भी बनी है। इस प्रकार हम पाते है कि स्वयं श्रीराम जिनको चौदहों लोकों का प्रणेता कहा जाता है, जब अपने मानव अवतार में संसारी व्यवहारों से गुजरते है, तो “मकान’ की मानवीय आवश्यकता के अनेक वर्णन उनकी लीला में मिलते है। भगवान विश्वकर्मा, जो देवताओं के स्थापत्य प्रभारी के रूप में पूजित है, जो क्षण भर में मायावी सृष्टि की संरचना करने में सक्षम है, जैसे उन्होनें ही माँ सीता की नगरी बसाई हो, इतनी सुव्यवस्थित नगरी वर्णित है जनकपुर।

लंका

अयोध्या, जनकपुर के बाद जो एक बड़ी नगरी मानस में वर्णित है, वह है रावण की सोने की लंका। लंका में एक स्वतंत्र भव्य प्राचीन वाटिका है, ‘अशोक वटिका’ जहाँ रावण ने अपहरण के बाद माँ सीता को रखा था। लंका का वर्णन एक किले के रूप में है-

गिरि पर चढ़ी लंका तह देखी ।
कहि न जाइ अति दुर्ग विशेषी ।।
कनक कोट बिचित्र मनि कृत सुंदराय तना घना ।
चउहट्ट हट्ट सुबट्ट बीर्थी, चारूपुर बहु बिधि बना ।।

गज बाजि खच्चर निकर पदचर रथ बरूथन्हि को गने । बहुरूप निसिचर जूथ अतिबल सेन बरनत नहीं बनें ।।
बन बाग उपबन बाटिका सर कूप बापीं सोहहिं ।
नर नाग सुर गंधर्व कन्या रूप मुनि मन मोहहिं ।।
(सुन्दर काण्ड 5/3)

लंका सोने की है। वहां सुन्दर-सुन्दर घर है। चौराहे, बाजार, सुन्दर मार्ग और गलियां है। नगर बहुत तरह से सजा हुआ है। नगर की रक्षा हेतु चारों ओर सैनिक तैनात है। नगर में एक प्रवेश द्वार है। लंका में विभीषण के महल का वर्णन करते हुये गोस्वामी जी ने लिखा है कि
रामायुध अंकित गृह शोभा वरनि न जाय।
नव तुलसिका वृंद तह देखि हरषि कपिराय ।।

रावण के सभागृह का वर्णन, लंकादहन एवं श्रीराम दूत अंगद के प्रस्ताव के संदर्भ में मिलता है। इसी तरह समुद्र पर तैरता हुआ सेतु बनाने का प्रसंग भी वर्णित है जिसमें समुद्र स्वयं सेतु निर्माण की प्रक्रिया श्रीराम को बताता है।

“नाथ नील” नल कपि दो भाई। लरकाई ऋषि आसिष पाई ।
तिन्ह के परस किए गिरि भाटे। तरहहिं जलधि प्रताप तुम्हारे ॥

‘एडम्स ब्रिज’ के रूप में आज भी भौगोलिक नक्शे पर इस रामसेतु के अवशेष विद्यमान है। यांत्रिकीय उन्नति के उदाहरण स्वरूप पुष्पक विमान, आयुध उन्नति के अनेक उदाहरण युद्धों में प्रयुक्त उपकरणों के मिलते हैं। स्थापत्य जो आधारभूत अभियांत्रिकी है, के अनेक उदाहरण विभिन्न नगरों के वर्णन में मिलते है। ये उदाहरण गोस्वामी तुलसीदास के परिवेश एवं अनुभव जनित एवं भगवान राम के प्रति उनके प्रेम स्वरूप काव्य कल्पना से अतिरंजित भी हो सकते है, किन्तु यह सुस्पष्ट है कि मानस के अनुसार राम के युग में स्थापत्य कला सुविकसित थी।
अंत में यह आध्यत्मिक उल्लेख आवश्यक जान पड़ता है कि सारे सुविकसित वास्तु और स्थापत्य के बाद भी श्रीराम तो बसते है मन मंदिर में।

(विभूति फीचर्स)

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